21.9.16

मुरझाया फूल - महादेवी वर्मा

मुरझाया फूल 
- महादेवी वर्मा





था कली के रूप शैशव में अहो सूखे सुमन
हास्य करता था, खिलाती अंक में तुझको पवन
खिल गया जब पूर्ण तू मंजुल, सुकोमल पुष्पवर
लुब्ध मधु के हेतु मंडराते लगे आने भ्रमर।



स्निग्ध किरणें चंद्र की तुझको हंसाती थी सदा
रात तुझ पर वारती थी मोतियों की संपदा
लोरियां गाकर मधुप निद्रा-विवश करते तुझे
यत्न माली कर रहा आनंद से भरता तुझे।



कर रहा अठखेलियाँ इतरा सदा उद्यान में
अंत का यह दृष्य आया था कभी क्या ध्यान में?
सो रहा अब तू धरा पर शुष्क बिखराया हुआ
गंध कोमलता नहीं मुख मंजु मुरझाया हुआ।



आज तुझको देख चाहक भ्रमर आता नहीं
लाल अपना राग तुझ पर प्रात बरसाता नहीं
जिस पवन ने अंक में ले प्यार तुझको था किया
तीव्र झोंकों से सुला उसने तुझे भू पर दिया।



कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन
किन्तु रोता कौन है तेरे लिए दानी सुमन
मत व्यथित हो फूल, सुख किसको दिया संसार ने
स्वार्थमय सबको बनाया है यहाँ करतार ने



विश्व में हे फूल तू सबके हृदय भाता रहा
दान कर सर्वस्व फिर भी हाय! हर्षाता रहा
जब न तेरी ही दशा पर दुख हुआ संसार को
कौन रोएगा सुमन! हम से मनुज नि:सार को।






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