दैनिक ध्वज में १५ मार्च १९७० को प्रकाशित गीत-
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!
सुखप्रद सुन्दर!प्रथम मिलन सी प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!
सुरभित सुमन पवन हिचकोलें,
गुंजित बाग भ्रमर रस घोलें
लहरों में थिरकन मचली है
अंतर मौन निमंत्रण खोलें
बादल के परदे पर किरणें
सृजन कर रहीं दृष्य मनोहर
और तुम्हारे नयन सृजन के आवाहन परिपूर्ण मिलनकर ,
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!
हांर सिंगार अंग पुलकित है,
पुष्प-पुष्प मकरंद अमित है
कल-कल,छल-छल नदियां बहती
नीलांबर वसुधा विचलित है।
भूले बिसरे क्षण उभरे हैं
जो गुजरे थे संग तुम्हारे
स्नेहिल बातें करें कुंज में प्रणय गीत उतरे अधरों पर
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर।
लौट रहे पंछी नीडों को
फ़र-फ़र नन्हे पंख हिलाते
दूर वेणु का स्वर उभरा है
प्रियतम को प्रण याद दिलाते ।
वन उपवन बढ चले धुंधलके
अंबर ने नक्षत्र सजाये
किन्तु सुनें हम अमराई में कोयल का मधु गीत मचलकर
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुंदर!
डॉ. दयाराम आलोक जी की यह कविता "यह वासंती शाम" दैनिक ध्वज अखबार में 1970 में प्रकाशित हुई थी। कविता में वासंती शाम के सौंदर्य और प्रेम के भावों को प्रस्तुत किया गया है।
कविता में वासंती शाम को प्रेम के मिलन के रूप में देखा गया है, जो सुखप्रद और सुंदर है। कविता में प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन किया गया है, जैसे कि सुरभित सुमन, गुंजित बाग, लहरों में थिरकन, बादल के परदे पर किरणें सृजन कर रहीं आदि।
कविता में प्रेम के भावों को प्रस्तुत किया गया है, जैसे कि प्रथम मिलन, स्नेहिल बातें, प्रणय गीत, प्रियतम को प्रण याद दिलाते आदि। कविता में प्रेम को एक सुखप्रद और सुंदर अनुभव के रूप में देखा गया है।
कविता की भाषा सुंदर और प्रवाहमय है, जो पाठक को वासंती शाम के सौंदर्य और प्रेम के भावों में डूबने का अवसर प्रदान करती है। कविता का अंतिम पंक्ति "यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुंदर" प्रेम के भावों को प्रस्तुत करती है और कविता को एक सुंदर और सुखप्रद अनुभव के रूप में समाप्त करती है
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