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7.7.17

कामायनी - महाकाव्य -जयशंकर प्रसाद


                       

चिंता सर्ग 

भाग -1

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह |

नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन |

दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान |

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।

बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना
करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।

"ओ चिंता की पहली रेखा,
अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण
प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल-
री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-
अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना?
उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या?
तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में
सब के तू निगूढ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,
चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"

"चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।


आह सर्ग के अग्रदूत
तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।

अरी आँधियों ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।


मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।


अरे अमरता के चमकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,
बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधि का नाद अपार।"

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी
ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता
उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती
अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी
पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर
प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब,
तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित
मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।"

"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी
सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित
प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें
और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव,गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।



सौरभ से दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी,
जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंग-भंगियों का नत्तर्न,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मदिर भाव से आवत्तर्न।


    भाग -2



ऊषा सुनहले तीर बरसती
जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अतंर्निहित हुई।

वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का
आज लगा हँसने फिर से,
वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में
शरद-विकास नये सिर से।

नव कोमल आलोक बिखरता
हिम-संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीड़ा करता
जैसे मधुमय पिंग पराग।

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन
हटने लगा धरातल से,
जगीं वनस्पतियाँ अलसाई
मुख धोती शीतल जल से।


नेत्र निमीलन करती मानो
प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने,
जलधि लहरियों की अँगड़ाई
बार-बार जाती सोने।


सिंधुसेज पर धरा वधू अब
तनिक संकुचित बैठी-सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में
मान किये सी ऐठीं-सी।

देखा मनु ने वह अतिरंजित
विजन का नव एकांत,
जैसे कोलाहल सोया हो
हिम-शीतल-जड‌़ता-सा श्रांत।


इंद्रनीलमणि महा चषक था
सोम-रहित उलटा लटका,
आज पवन मृदु साँस ले रहा
जैसे बीत गया खटका।


वह विराट था हेम घोलता
नया रंग भरने को आज,
'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक
और कुतूहल का था राज़!


"विश्वदेव, सविता या पूषा,
सोम, मरूत, चंचल पवमान,
वरूण आदि सब घूम रहे हैं
किसके शासन में अम्लान?

किसका था भू-भंग प्रलय-सा
जिसमें ये सब विकल रहे,
अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न
ये फिर भी कितने निबल रहे!


विकल हुआ सा काँप रहा था,
सकल भूत चेतन समुदाय,
उनकी कैसी बुरी दशा थी
वे थे विवश और निरुपाय।

देव न थे हम और न ये हैं,
सब परिवर्तन के पुतले,
हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा,
जितना जो चाहे जुत ले।"

"महानील इस परम व्योम में,
अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान,
ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण
किसका करते से-संधान!

छिप जाते हैं और निकलते
आकर्षण में खिंचे हुए?
तृण, वीरुध लहलहे हो रहे
किसके रस से सिंचे हुए?

सिर नीचा कर किसकी सत्ता
सब करते स्वीकार यहाँ,
सदा मौन हो प्रवचन करते
जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?

हे अनंत रमणीय कौन तुम?
यह मैं कैसे कह सकता,
कैसे हो? क्या हो? इसका तो-
भार विचार न सह सकता।

हे विराट! हे विश्वदेव !
तुम कुछ हो,ऐसा होता भान-
मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत
यही कर रहा सागर गान।"

"यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल
सदय हृदय में अधिक अधीर,
व्याकुलता सी व्यक्त हो रही
आशा बनकर प्राण समीर।

यह कितनी स्पृहणीय बन गई
मधुर जागरण सी-छबिमान,
स्मिति की लहरों-सी उठती है
नाच रही ज्यों मधुमय तान।

जीवन-जीवन की पुकार है
खेल रहा है शीतल-दाह-
किसके चरणों में नत होता
नव-प्रभात का शुभ उत्साह।

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों
लगा गूँजने कानों में!
मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'
शाश्वत नभ के गानों में।

यह संकेत कर रही सत्ता
किसकी सरल विकास-मयी,
जीवन की लालसा आज
क्यों इतनी प्रखर विलास-मयी?

तो फिर क्या मैं जिऊँ
और भी-जीकर क्या करना होगा?
देव बता दो, अमर-वेदना
लेकर कब मरना होगा?"

एक यवनिका हटी,
पवन से प्रेरित मायापट जैसी।
और आवरण-मुक्त प्रकृति थी
हरी-भरी फिर भी वैसी।
स्वर्ण शालियों की कलमें थीं
दूर-दूर तक फैल रहीं,
शरद-इंदिरा की मंदिर की
मानो कोई गैल रही।

विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह
सुख-शीतल-संतोष-निदान,
और डूबती-सी अचला का
अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।

अचल हिमालय का शोभनतम
लता-कलित शुचि सानु-शरीर,
निद्रा में सुख-स्वप्न देखता
जैसे पुलकित हुआ अधीर।

उमड़ रही जिसके चरणों में
नीरवता की विमल विभूति,
शीतल झरनों की धारायें
बिखरातीं जीवन-अनुभूति!

उस असीम नीले अंचल में
देख किसी की मृदु मुसक्यान,
मानों हँसी हिमालय की है
फूट चली करती कल गान।

शिला-संधियों में टकरा कर
पवन भर रहा था गुंजार,
उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का
करता चारण-सदृश प्रचार।

संध्या-घनमाला की सुंदर
ओढे़ रंग-बिरंगी छींट,
गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ
पहने हुए तुषार-किरीट।

विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की
प्रतिनिधियों से भरी विभा,
इस अनंत प्रांगण में मानो
जोड़ रही है मौन सभा।

वह अनंत नीलिमा व्योम की
जड़ता-सी जो शांत रही,
दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे
निज अभाव में भ्रांत रही।

उसे दिखाती जगती का सुख,
हँसी और उल्लास अजान,
मानो तुंग-तुरंग विश्व की।
हिमगिरि की वह सुढर उठान

थी अंनत की गोद सदृश जो
विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय,
उसमें मनु ने स्थान बनाया
सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।

पहला संचित अग्नि जल रहा
पास मलिन-द्युति रवि-कर से,
शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा
लगा धधकने अब फिर से।

जलने लगा निंरतर उनका
अग्निहोत्र सागर के तीर,
मनु ने तप में जीवन अपना
किया समर्पण होकर धीर।

सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति
देव-यजन की वर माया,
उन पर लगी डालने अपनी
कर्ममयी शीतल छाया।
भाग-2
उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है
क्षितिज बीच अरुणोदय कांत,
लगे देखने लुब्ध नयन से
प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।

पाकयज्ञ करना निश्चित कर
लगे शालियों को चुनने,
उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना
लगी धूम-पट थी बुनने।

शुष्क डालियों से वृक्षों की
अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।
आहुति के नव धूमगंध से
नभ-कानन हो गया समृद्ध।

और सोचकर अपने मन में
"जैसे हम हैं बचे हुए-
क्या आश्चर्य और कोई हो
जीवन-लीला रचे हुए,"

अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ
कहीं दूर रख आते थे,
होगा इससे तृप्त अपरिचित
समझ सहज सुख पाते थे।

दुख का गहन पाठ पढ़कर
अब सहानुभूति समझते थे,
नीरवता की गहराई में
मग्न अकेले रहते थे।

मनन किया करते वे बैठे
ज्वलित अग्नि के पास वहाँ,
एक सजीव, तपस्या जैसे
पतझड़ में कर वास रहा।

फिर भी धड़कन कभी हृदय में
होती चिंता कभी नवीन,
यों ही लगा बीतने उनका
जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।

प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे
अंधकार की माया में,
रंग बदलते जो पल-पल में
उस विराट की छाया में।

अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते
प्रकृति सकर्मक रही समस्त,
निज अस्तित्व बना रखने में
जीवन हुआ था व्यस्त।

तप में निरत हुए मनु,
नियमित-कर्म लगे अपना करने,
विश्वरंग में कर्मजाल के
सूत्र लगे घन हो घिरने।

उस एकांत नियति-शासन में
चले विवश धीरे-धीरे,
एक शांत स्पंदन लहरों का
होता ज्यों सागर-तीरे।

विजन जगत की तंद्रा में
तब चलता था सूना सपना,
ग्रह-पथ के आलोक-वृत से
काल जाल तनता अपना।

प्रहर, दिवस, रजनी आती थी
चल-जाती संदेश-विहीन,
एक विरागपूर्ण संसृति में
ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।

धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित
सुंदर स्वच्छ निशीथ,
जिसमें शीतल पावन गा रहा
पुलकित हो पावन उद्गगीथ।

नीचे दूर-दूर विस्तृत था
उर्मिल सागर व्यथित, अधीर
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा
चंद्रिका-निधि गंभीर।

खुलीं उस रमणीय दृश्य में
अलस चेतना की आँखे,
हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक
मधु से वे भीगी पाँखे।

व्यक्त नील में चल प्रकाश का
कंपन सुख बन बजता था,

एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का
मधुर रहस्य उलझता था।

नव हो जगी अनादि वासना
मधुर प्राकृतिक भूख-समान,
चिर-परिचित-सा चाह रहा था
द्वंद्व सुखद करके अनुमान।

दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण की
बाला का अक्षय श्रृंगार,
मिलन लगा हँसने जीवन के
उर्मिल सागर के उस पार।

तप से संयम का संचित बल,
तृषित और व्याकुल था आज-
अट्टाहास कर उठा रिक्त का
वह अधीर-तम-सूना राज।

धीर-समीर-परस से पुलकित
विकल हो चला श्रांत-शरीर,
आशा की उलझी अलकों से
उठी लहर मधुगंध अधीर।

मनु का मन था विकल हो उठा
संवेदन से खाकर चोट,
संवेदन जीवन जगती को
जो कटुता से देता घोंट।

"आह कल्पना का सुंदर
यह जगत मधुर कितना होता
सुख-स्वप्नों का दल छाया में
पुलकित हो जगता-सोता।

संवेदन का और हृदय का
यह संघर्ष न हो सकता,
फिर अभाव असफलताओं की
गाथा कौन कहाँ बकता?

कब तक और अकेले?
कह दो हे मेरे जीवन बोलो?
किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,
अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।

"तम के सुंदरतम रहस्य,
हे कांति-किरण-रंजित तारा
व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु,
भरे नव रस सारा।

आतप-तपित जीवन-सुख की
शांतिमयी छाया के देश,
हे अनंत की गणना
देते तुम कितना मधुमय संदेश।

आह शून्यते चुप होने में
तू क्यों इतनी चतुर हुई?
इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों
अब इतनी मधुर हुई?"

"जब कामना सिंधु तट आई
ले संध्या का तारा दीप,
फाड़ सुनहली साड़ी उसकी
तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?

इस अनंत काले शासन का
वह जब उच्छंखल इतिहास,
आँसू और' तम घोल लिख रही तू
सहसा करती मृदु हास।

विश्व कमल की मृदुल मधुकरी
रजनी तू किस कोने से-
आती चूम-चूम चल जाती
पढ़ी हुई किस टोने से।

किस दिंगत रेखा में इतनी
संचित कर सिसकी-सी साँस,
यों समीर मिस हाँफ रही-सी
चली जा रही किसके पास।

विकल खिलखिलाती है क्यों तू?
इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर,
तुहिन कणों, फेनिल लहरों में,
मच जावेगी फिर अधेर।

घूँघट उठा देख मुस्कयाती
किसे ठिठकती-सी आती,
विजन गगन में किस भूल सी
किसको स्मृति-पथ में लाती।

रजत-कुसुम के नव पराग-सी
उडा न दे तू इतनी धूल-
इस ज्योत्सना की, अरी बावली
तू इसमें जावेगी भूल।

पगली हाँ सम्हाल ले,
कैसे छूट पडा़ तेरा अँचल?
देख, बिखरती है मणिराजी-
अरी उठा बेसुध चंचल।

फटा हुआ था नील वसन क्या
ओ यौवन की मतवाली।
देख अकिंचन जगत लूटता
तेरी छवि भोली भाली

ऐसे अतुल अंनत विभव में
जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?
या भूली-सी खोज़ रही कुछ
जीवन की छाती के दाग"

"मैं भी भूल गया हूँ कुछ,
हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था?
प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या?
मन जिसमें सुख सोता था

मिले कहीं वह पडा अचानक
उसको भी न लुटा देना
देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग,


न उसे भुला देना"

    श्रद्धा सर्ग 

भाग-1
कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि
तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप
प्रभा की धारा से अभिषेक?

मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का
सुलझा हुआ रहस्य,
एक करुणामय सुंदर मौन
और चंचल मन का आलस्य"

सुना यह मनु ने मधु गुंजार
मधुकरी का-सा जब सानंद,
किये मुख नीचा कमल समान
प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद,

एक झटका-सा लगा सहर्ष,
निरखने लगे लुटे-से
कौन गा रहा यह सुंदर संगीत?
कुतुहल रह न सका फिर मौन।

और देखा वह सुंदर दृश्य
नयन का इद्रंजाल अभिराम,
कुसुम-वैभव में लता समान
चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।

हृदय की अनुकृति बाह्य उदार
एक लम्बी काया, उन्मुक्त
मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल,
सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त।

मसृण, गांधार देश के नील
रोम वाले मेषों के चर्म,
ढक रहे थे उसका वपु कांत
बन रहा था वह कोमल वर्म।

नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघवन बीच गुलाबी रंग।

आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच
जब घिरते हों घन श्याम,
अरूण रवि-मंडल उनको भेद
दिखाई देता हो छविधाम।

या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग
फोड़ कर धधक रही हो कांत
एक ज्वालामुखी अचेत
माधवी रजनी में अश्रांत।
घिर रहे थे घुँघराले बाल अंस
अवलंबित मुख के पास,
नील घनशावक-से सुकुमार
सुधा भरने को विधु के पास।

और, उस पर वह मुसक्यान
रक्त किसलय पर ले विश्राम
अरुण की एक किरण अम्लान
अधिक अलसाई हो अभिराम।

नित्य-यौवन छवि से ही दीप्त
विश्व की करूण कामना मूर्ति,
स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण
प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।

ऊषा की पहिली लेखा कांत,
माधुरी से भीगी भर मोद,
मद भरी जैसे उठे सलज्ज
भोर की तारक-द्युति की गोद

कुसुम कानन अंचल में
मंद-पवन प्रेरित सौरभ साकार,
रचित, परमाणु-पराग-शरीर
खड़ा हो, ले मधु का आधार।

और, पडती हो उस पर शुभ्र नवल
मधु-राका मन की साध,
हँसी का मदविह्वल प्रतिबिंब
मधुरिमा खेला सदृश अबाध।

कहा मनु ने-"नभ धरणी बीच
बना जीचन रहस्य निरूपाय,
एक उल्का सा जलता भ्रांत,
शून्य में फिरता हूँ असहाय।

शैल निर्झर न बना हतभाग्य,
गल नहीं सका जो कि हिम-खंड,
दौड़ कर मिला न जलनिधि-अंक
आह वैसा ही हूँ पाषंड।

पहेली-सा जीवन है व्यस्त,
उसे सुलझाने का अभिमान
बताता है विस्मृति का मार्ग
चल रहा हूँ बनकर अनज़ान।

भूलता ही जाता दिन-रात
सजल अभिलाषा कलित अतीत,
बढ़ रहा तिमिर-गर्भ में
नित्य जीवन का यह संगीत।

क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत?
विवर में नील गगन के आज
वायु की भटकी एक तरंग,
शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़।

एक स्मृति का स्तूप अचेत,
ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब
और जड़ता की जीवन-राशि,
सफलता का संकलित विलंब।"

"कौन हो तुम बंसत के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार।
घन-तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मंद बयार।

नखत की आशा-किरण समान
हृदय के कोमल कवि की कांत-
कल्पना की लघु लहरी दिव्य
कर रही मानस-हलचल शांत"।

लगा कहने आगंतुक व्यक्ति
मिटाता उत्कंठा सविशेष,
दे रहा हो कोकिल सानंद
सुमन को ज्यों मधुमय संदेश।
सीख लूँ ललित कला का ज्ञान,
इधर रही गन्धर्वों के देश,
पिता की हूँ प्यारी संतान।

घूमने का मेरा अभ्यास बढ़ा था
मुक्त-व्योम-तल नित्य,
कुतूहल खोज़ रहा था,
व्यस्त हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।

दृष्टि जब जाती हिमगिरी ओर
प्रश्न करता मन अधिक अधीर,
धरा की यह सिकुडन भयभीत आह,
कैसी है? क्या है? पीर?

मधुरिमा में अपनी ही मौन
एक सोया संदेश महान,
सज़ग हो करता था संकेत,
चेतना मचल उठी अनजान।

बढ़ा मन और चले ये पैर,
शैल-मालाओं का श्रृंगार,
आँख की भूख मिटी यह देख
आह कितना सुंदर संभार।

एक दिन सहसा सिंधु अपार
लगा टकराने नद तल क्षुब्ध,
अकेला यह जीवन निरूपाय
आज़ तक घूम रहा विश्रब्ध।

यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न,
भूत-हित-रत किसका यह दान
इधर कोई है अभी सजीव,
हुआ ऐसा मन में अनुमान।

भाग-2
तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह!तुम कितने अधिक हताश-
बताओ यह कैसा उद्वेग?

हृदय में क्या है नहीं अधीर-
लालसा की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,
मन में घर सुंदर वेश

दुख के डर से तुम अज्ञात
जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज़
भविष्य से बनकर अनजान,

कर रही लीलामय आनंद-
महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम-
इसी में सब होते अनुरक्त।

काम-मंगल से मंडित श्रेय,
सर्ग इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
बनाते हो असफल भवधाम"

"दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील
छिपाये है जिसमें सुख गात।

जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल-
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।

विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा
स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य
यही भूमा का मधुमय दान।

नित्य समरसता का अधिकार
उमडता कारण-जलधि समान,
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"

लगे कहने मनु सहित विषाद-
"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास
अधिक उत्साह तरंग अबाध
उठाते मानस में सविलास।

किंतु जीवन कितना निरूपाय!
लिया है देख, नहीं संदेह,
निराशा है जिसका कारण,
सफलता का वह कल्पित गेह।"

कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,
तुम इतने हुए अधीर
हार बैठे जीवन का दाँव,
जीतते मर कर जिसको वीर।

तप नहीं केवल जीवन-सत्य
करूण यह क्षणिक दीन अवसाद,
तरल आकांक्षा से है भरा-
सो रहा आशा का आल्हाद।
करेंगे कभी न बासी फूल,
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र
आह उत्सुक है उनकी धूल।

पुरातनता का यह निर्मोक
सहन करती न प्रकृति पल एक,
नित्य नूतनता का आंनद
किये है परिवर्तन में टेक।

युगों की चट्टानों पर सृष्टि
डाल पद-चिह्न चली गंभीर,
देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति
अनुसरण करती उसे अधीर।"

"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
यही जड़ का चेतन-आनन्द।

अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ विचार।
तपस्वी! आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म-विस्तार।

दब रहे हो अपने ही बोझ
खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,
तुम्हारा सहचर बन कर क्या न
उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?

समर्पण लो-सेवा का सार,
सजल संसृति का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग
इसी पद-तल में विगत-विकार

दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिमा लो, अगाध विश्वास,
हमारा हृदय-रत्न-निधि
स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।

बनो संसृति के मूल रहस्य,
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
विश्व-भर सौरभ से भर जाय
सुमन के खेलो सुंदर खेल।"

"और यह क्या तुम सुनते नहीं
विधाता का मंगल वरदान-
'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'
विश्व में गूँज रहा जय-गान।

डरो मत, अरे अमृत संतान
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।

देव-असफलताओं का ध्वंस
प्रचुर उपकरण जुटाकर आज,
पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति
पूर्ण हो मन का चेतन-राज।

चेतना का सुंदर इतिहास-
अखिल मानव भावों का सत्य,
विश्व के हृदय-पटल पर
दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य।

विधाता की कल्याणी सृष्टि,
सफल हो इस भूतल पर पूर्ण,
पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज
और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।

उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प
कुचलती रहे खडी सानंद,
आज से मानवता की कीर्ति
अनिल, भू, जल में रहे न बंद।
द्वीफ-कच्छप डूबें-उतरायें।
किन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्ति
अभ्युदय का कर रही उपाय।

विश्व की दुर्बलता बल बने,
पराजय का बढ़ता व्यापार-
हँसाता रहे उसे सविलास
शक्ति का क्रीडामय संचार।

शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त


विजयिनी मानवता हो जाय"।
                काम सर्ग 


भाग-1
"मधुमय वसंत जीवन-वन के,
बह अंतरिक्ष की लहरों में,
कब आये थे तुम चुपके से
रजनी के पिछले पहरों में?

क्या तुम्हें देखकर आते यों
मतवाली कोयल बोली थी?
उस नीरवता में अलसाई
कलियों ने आँखे खोली थी?

जब लीला से तुम सीख रहे
कोरक-कोने में लुक करना,
तब शिथिल सुरभि से धरणी में
बिछलन न हुई थी? सच कहना

जब लिखते थे तुम सरस हँसी
अपनी, फूलों के अंचल में
अपना कल कंठ मिलाते थे
झरनों के कोमल कल-कल में।

निश्चित आह वह था कितना,
उल्लास, काकली के स्वर में
आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही
जीवन दिगंत के अंबर में।

शिशु चित्रकार! चंचलता में,
कितनी आशा चित्रित करते!
अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी-
जीवन की आँखों में भरते।

लतिका घूँघट से चितवन की वह
कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा,
प्लावित करती मन-अजिर रही-
था तुच्छ विश्व वैभव सारा।

वे फूल और वह हँसी रही वह
सौरभ, वह निश्वास छना,
वह कलरव, वह संगीत अरे
वह कोलाहल एकांत बना"

कहते-कहते कुछ सोच रहे
लेकर निश्वास निराशा की-
मनु अपने मन की बात,
रूकी फिर भी न प्रगति अभिलाषा की।

"ओ नील आवरण जगती के!
दुर्बोध न तू ही है इतना,
अवगुंठन होता आँखों का
आलोक रूप बनता जितना।

चल-चक्र वरूण का ज्योति भरा
व्याकुल तू क्यों देता फेरी?
तारों के फूल बिखरते हैं
लुटती है असफलता तेरी।

नव नील कुंज हैं झूम रहे
कुसुमों की कथा न बंद हुई,
है अतंरिक्ष आमोद भरा हिम-
कणिका ही मकरंद हुई।

इस इंदीवर से गंध भरी
बुनती जाली मधु की धारा,
मन-मधुकर की अनुरागमयी
बन रही मोहिनी-सी कारा।

अणुओं को है विश्राम कहाँ
यह कृतिमय वेग भरा कितना
अविराम नाचता कंपन है,
उल्लास सजीव हुआ कितना?

उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की
कितनी है मोहमयी माया?
जिनसे समीर छनता-छनता
बनता है प्राणों की छाया।

आकाश-रंध्र हैं पूरित-से
यह सृष्टि गहन-सी होती है
आलोक सभी मूर्छित सोते
यह आँख थकी-सी रोती है।

सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ
बनकर रहस्य हैं नाच रही,
मेरी आँखों को रोक वहीं
आगे बढने में जाँच रही।

मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी
वह सब क्या छाया उलझन है?
सुंदरता के इस परदे में
क्या अन्य धरा कोई धन है?

मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो
पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धागों की
सुलझन का समझूं मान तुम्हें।

माधवी निशा की अलसाई
अलकों में लुकते तारा-सी,
क्या हो सूने-मरु अंचल में
अंतःसलिला की धारा-सी,

श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई
मधु-धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे में
जैसे कोई कुछ बोल रहा।

है स्पर्श मलय के झिलमिल सा
संज्ञा को और सुलाता है,
पुलकित हो आँखे बंद किये
तंद्रा को पास बुलाता है।

व्रीडा है यह चंचल कितनी
विभ्रम से घूँघट खींच रही,
छिपने पर स्वयं मृदुल कर से
क्यों मेरी आँखे मींच रही?

उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा
इस उदित शुक्र की छाया में,
ऊषा-सा कौन रहस्य लिये
सोती किरनों की काया में।

उठती है किरनों के ऊपर
कोमल किसलय की छाजन-सी,
स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में-
जैसे कुछ दूर बजे बंसी।

सब कहते हैं- 'खोलो खोलो,
छवि देखूँगा जीवन धन की'
आवरन स्वयं बनते जाते हैं
भीड़ लग रही दर्शन की।

चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं
अवगुंठत आज सँवरता सा,
जिसमें अनंत कल्लोल भरा
लहरों में मस्त विचरता सा-

अपना फेनिल फन पटक रहा
मणियों का जाल लुटाता-सा,
उनिन्द्र दिखाई देता हो
उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।"

"जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा
इस मधुर भार को जीवन के,
आने दो कितनी आती हैं
बाधायें दम-संयम बन के।

नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे-
इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भरा है उनमें
संदेहों की जाली क्या है?

कौशल यह कोमल कितना है
सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इद्रंयों कि मेरी,
मेरी ही हार बनेगी क्या?

"पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ-यह
स्पर्श,रूप, रस गंध भरा मधु,
लहरों के टकराने से
ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।

तारा बनकर यह बिखर रहा
क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे
मादकता-माती नींद लिये
सोऊँ मन में अवसाद भरे।

चेतना शिथिल-सी होती है
उन अधंकार की लहरों में-"
मनु डूब चले धीरे-धीरे
रजनी के पिछले पहरों में।

उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी
स्मृतियों की संचित छाया से,
इस मन को है विश्राम कहाँ
चंचल यह अपनी माया से।

भाग-2
जागरण-लोक था भूल चला
स्वप्नों का सुख-संचार हुआ,
कौतुक सा बन मनु के मन का
वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।

था व्यक्ति सोचता आलस में
चेतना सजग रहती दुहरी,
कानों के कान खोल करके
सुनती थी कोई ध्वनि गहरी-

"प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा
संतुष्ट ओध से मैं न हुआ,
आया फिर भी वह चला गया
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।

देवों की सृष्टि विलिन हुई
अनुशीलन में अनुदिन मेरे,
मेरा अतिचार न बंद हुआ
उन्मत्त रहा सबको घेरे।

मेरी उपासना करते वे
मेरा संकेत विधान बना,
विस्तृत जो मोह रहा मेरा वह
देव-विलास-वितान तना।

मैं काम, रहा सहचर उनका
उनके विनोद का साधन था,
हँसता था और हँसाता था
उनका मैं कृतिमय जीवन था।

जो आकर्षण बन हँसती थी
रति थी अनादि-वासना वही,
अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के
अंतर में उसकी चाह रही।

हम दोनों का अस्तित्व रहा
उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।
जिससे संसृति का बनता है
आकार रूप के नर्त्तन-सा।

उस प्रकृति-लता के यौवन में
उस पुष्पवती के माधव का-
मधु-हास हुआ था वह पहला
दो रूप मधुर जो ढाल सका।"

"वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई
अपने आलस का त्याग किये,
परमाणु बल सब दौड़ पड़े
जिसका सुंदर अनुराग लिये।

कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से
मिलने को गले ललकते से,
अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के
विद्युत्कण मिले झलकते से।

वह आकर्षण, वह मिलन हुआ
प्रारंभ माधुरी छाया में,
जिसको कहते सब सृष्टि,
बनी मतवाली माया में।

प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी
संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही,
ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था-
मादक मरंद की वृष्टि रही।

भुज-लता पड़ी सरिताओं की
शैलों के गले सनाथ हुए,
जलनिधि का अंचल व्यजन बना
धरणी के दो-दो साथ हुए।



कोरक अंकुर-सा जन्म रहा
हम दोनों साथी झूल चले,
उस नवल सर्ग के कानन में
मृदु मलयानिल के फूल चले,

हम भूख-प्यास से जाग उठे
आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में,
रति-काम बने उस रचना में जो
रही नित्य-यौवन वय में?'

"सुरबालाओं की सखी रही
उनकी हृत्त्री की लय थी
रति, उनके मन को सुलझाती
वह राग-भरी थी, मधुमय थी।

मैं तृष्णा था विकसित करता,
वह तृप्ति दिखती थी उनकी,
आनन्द-समन्वय होता था
हम ले चलते पथ पर उनको।

वे अमर रहे न विनोद रहा,
चेतना रही, अनंग हुआ,
हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये
संचित का सरल प्रंसग हुआ।"

"यह नीड़ मनोहर कृतियों का
यह विश्व कर्म रंगस्थल है,
है परंपरा लग रही यहाँ
ठहरा जिसमें जितना बल है।

वे कितने ऐसे होते हैं
जो केवल साधन बनते हैं,
आरंभ और परिणामों को
संबध सूत्र से बुनते हैं।

ऊषा की सज़ल गुलाली
जो घुलती है नीले अंबर में
वह क्या? क्या तुम देख रहे
वर्णों के मेघाडंबर में?

अंतर है दिन औ 'रजनी का यह
साधक-कर्म बिखरता है,
माया के नीले अंचल में
आलोक बिदु-सा झरता है।"

"आरंभिक वात्या-उद्गम मैं
अब प्रगति बन रहा संसृति का,
मानव की शीतल छाया में
ऋणशोध करूँगा निज कृति का।

दोनों का समुचित परिवर्त्तन
जीवन में शुद्ध विकास हुआ,
प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई
जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।

यह लीला जिसकी विकस चली
वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला,
उसका संदेश सुनाने को
संसृति में आयी वह अमला।

हम दोनों की संतान वही-
कितनी सुंदर भोली-भाली,
रंगों ने जिनसे खेला हो
ऐसे फूलों की वह डाली।

जड़-चेतनता की गाँठ वही
सुलझन है भूल-सुधारों की।
वह शीतलता है शांतिमयी
जीवन के उष्ण विचारों की।

उसको पाने की इच्छा हो तो
योग्य बनो"-कहती-कहती
वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा
जैसे मुरली चुप हो रहती।

मनु आँख खोलकर पूछ रहे-
"पंथ कौन वहाँ पहुँचाता है?
उस ज्योतिमयी को देव
कहो कैसे कोई नर पाता?"

पर कौन वहाँ उत्तर देता
वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ,
देखा तो सुंदर प्राची में
अरूणोदय का रस-रंग हुआ।

उस लता कुंज की झिल-मिल से
हेमाभरश्मि थी खेल रही,
देवों के सोम-सुधा-रस की
मनु के हाथों में बेल रही।

       वासना सर्ग
भाग-1
चल पड़े कब से हृदय दो,
पथिक-से अश्रांत,
यहाँ मिलने के लिये,
जो भटकते थे भ्रांत।

एक गृहपति, दूसरा था
अतिथि विगत-विकार,
प्रश्न था यदि एक,
तो उत्तर द्वितीय उदार।

एक जीवन-सिंधु था,
तो वह लहर लघु लोल,
एक नवल प्रभात,
तो वह स्वर्ण-किरण अमोल।

एक था आकाश वर्षा
का सजल उद्धाम,
दूसरा रंजित किरण से
श्री-कलित घनश्याम।

नदी-तट के क्षितिज में
नव जलद सांयकाल-
खेलता दो बिजलियों से
ज्यों मधुरिमा-जाल।

लड़ रहे थे अविरत युगल
थे चेतना के पाश,
एक सकता था न
कोई दूसरे को फाँस।

था समर्पण में ग्रहण का
एक सुनिहित भाव,
थी प्रगति, पर अड़ा रहता
था सतत अटकाव।

चल रहा था विजन-पथ पर
मधुर जीवन-खेल,
दो अपरिचित से नियति
अब चाहती थी मेल।

नित्य परिचित हो रहे
तब भी रहा कुछ शेष,
गूढ अंतर का छिपा
रहता रहस्य विशेष।

दूर, जैसे सघन वन-पथ-
अंत का आलोक-
सतत होता जा रहा हो,
नयन की गति रोक।

गिर रहा निस्तेज गोलक
जलधि में असहाय,
घन-पटल में डूबता था
किरण का समुदाय।

कर्म का अवसाद दिन से
कर रहा छल-छंद,
मधुकरी का सुरस-संचय
हो चला अब बंद।

उठ रही थी कालिमा
धूसर क्षितिज से दीन,
भेंटता अंतिम अरूण
आलोक-वैभव-हीन।

यह दरिद्र-मिलन रहा
रच एक करूणा लोक,
शोक भर निर्जन निलय से
बिछुड़ते थे कोक।

मनु अभी तक मनन करते
थे लगाये ध्यान,
काम के संदेश से ही
भर रहे थे कान।

इधर गृह में आ जुटे थे
उपकरण अधिकार,
शस्य, पशु या धान्य
का होने लगा संचार।

नई इच्छा खींच लाती,
अतिथि का संकेत-
चल रहा था सरल-शासन
युक्त-सुरूचि-समेत।

देखते थे अग्निशाला
से कुतुहल-युक्त,
मनु चमत्कृत निज नियति
का खेल बंधन-मुक्त।

एक माया आ रहा था
पशु अतिथि के साथ,
हो रहा था मोह
करुणा से सजीव सनाथ।

चपल कोमल-कर रहा
फिर सतत पशु के अंग,
स्नेह से करता चमर-
उदग्रीव हो वह संग।

कभी पुलकित रोम राजी
से शरीर उछाल,
भाँवरों से निज बनाता
अतिथि सन्निधि जाल।

कभी निज़ भोले नयन से
अतिथि बदन निहार,
सकल संचित-स्नेह
देता दृष्टि-पथ से ढार।

और वह पुचकारने का
स्नेह शबलित चाव,
मंजु ममता से मिला
बन हृदय का सदभाव।

देखते-ही-देखते
दोनों पहुँच कर पास,
लगे करने सरल शोभन
मधुर मुग्ध विलास।

वह विराग-विभूति
ईर्षा-पवन से हो व्यस्त
बिखरती थी और खुलते थे
ज्वलन-कण जो अस्त।

किन्तु यह क्या?
एक तीखी घूँट, हिचकी आह!
कौन देता है हृदय में
वेदनामय डाह?

"आह यह पशु और
इतना सरल सुन्दर स्नेह!
पल रहे मेरे दिये जो
अन्न से इस गेह।

मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते
सभी निज भाग,
और देते फेंक मेरा
प्राप्य तुच्छ विराग।


अरी नीच कृतघ्नते!
पिच्छल-शिला-संलग्न,
मलिन काई-सी करेगी
कितने हृदय भग्न?



हृदय का राजस्व अपहृत
कर अधम अपराध,
दस्यु मुझसे चाहते हैं
सुख सदा निर्बाध।



विश्व में जो सरल सुंदर
हो विभूति महान,
सभी मेरी हैं, सभी
करती रहें प्रतिदान।


यही तो, मैं ज्वलित
वाडव-वह्नि नित्य-अशांत,
सिंधु लहरों सा करें
शीतल मुझे सब शांत।"






आ गया फिर पास
क्रीड़ाशील अतिथि उदार,
चपल शैशव सा मनोहर
भूल का ले भार।



कहा "क्यों तुम अभी
बैठे ही रहे धर ध्यान,
देखती हैं आँख कुछ,
सुनते रहे कुछ कान-

मन कहीं, यह क्या हुआ है ?
आज कैसा रंग? "
नत हुआ फण दृप्त
ईर्षा का, विलीन उमंग।

और सहलाने लागा कर-
कमल कोमल कांत,
देख कर वह रूप -सुषमा
मनु हुए कुछ शांत।

कहा " अतिथि! कहाँ रहे
तुम किधर थे अज्ञात?
और यह सहचर तुम्हारा
कर रहा ज्यों बात-

किसी सुलभ भविष्य की,
क्यों आज अधिक अधीर?
मिल रहा तुमसे चिरंतन
स्नेह सा गंभीर?

कौन हो तुम खींचते यों
मुझे अपनी ओर
ओर ललचाते स्वयं
हटते उधर की ओर

ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती
ही नहीं यह आँख,
तुम्हें कुछ पहचानने की
खो गयी-सी साख।

कौन करूण रहस्य है
तुममें छिपा छविमान?
लता वीरूध दिया करते
जिसमें छायादान।


पशु कि हो पाषाण
सब में नृत्य का नव छंद,
एक आलिगंन बुलाता
सभा का सानंद।

राशि-राशि बिखर पड़ा
है शांत संचित प्यार,
रख रहा है उसे ढोकर
दीन विश्व उधार।

देखता हूँ चकित जैसे
ललित लतिका-लास,
अरूण घन की सजल
छाया में दिनांत निवास-

और उसमें हो चला
जैसे सहज सविलास,
मदिर माधव-यामिनी का
धीर-पद-विन्यास।

आह यह जो रहा
सूना पड़ा कोना दीन-
ध्वस्त मंदिर का,
बसाता जिसे कोई भी न-

उसी में विश्राम माया का
अचल आवास,
अरे यह सुख नींद कैसी,
हो रहा हिम-हास!

वासना की मधुर छाया!
स्वास्थ्य, बल, विश्राम!
हदय की सौंदर्य-प्रतिमा!
कौन तुम छविधाम?

कामना की किरण का
जिसमें मिला हो ओज़,
कौन हो तुम, इसी
भूले हृदय की चिर-खोज़?

कुंद-मंदिर-सी हँसी
ज्यों खुली सुषमा बाँट,
क्यों न वैसे ही खुला
यह हृदय रुद्ध-कपाट?

कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं,
और परिचय व्यर्थ,
तुम कभी उद्विग्न
इतने थे न इसके अर्थ।

चलो, देखो वह चला
आता बुलाने आज-
सरल हँसमुख विधु जलद-
लघु-खंड-वाहन साज़।


भाग-2

कालिमा धुलने लगी
घुलने लगा आलोक,
इसी निभृत अनंत में
बसने लगा अब लोक।

इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,
देख कर सब भूल जायें
दुख के अनुमान।

देख लो, ऊँचे शिखर का
व्योम-चुबंन-व्यस्त-
लौटना अंतिम किरण का
और होना अस्त।

चलो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,
साधना का राज़।"

सृष्टि हँसने लगी
आँखों में खिला अनुराग,
राग-रंजित चंद्रिका थी,
उड़ा सुमन-पराग।

और हँसता था अतिथि
मनु का पकड़कर हाथ,
चले दोनों स्वप्न-पथ में,
स्नेह-संबल साथ।

देवदारु निकुंज गह्वर
सब सुधा में स्नात,
सब मनाते एक उत्सव
जागरण की रात।

आ रही थी मदिर भीनी
माधवी की गंध,
पवन के घन घिरे पड़ते थे
बने मधु-अंध।

शिथिल अलसाई पड़ी
छाया निशा की कांत-
सो रही थी शिशिर कण की
सेज़ पर विश्रांत।

उसी झुरमुट में हृदय की
भावना थी भ्रांत,
जहाँ छाया सृजन करती
थी कुतूहल कांत।

कहा मनु ने "तुम्हें देखा
अतिथि! कितनी बार,
किंतु इतने तो न थे
तुम दबे छवि के भार!


पूर्व-जन्म कहूँ कि था
स्पृहणीय मधुर अतीत,
गूँजते जब मदिर घन में
वासना के गीत।

भूल कर जिस दृश्य को
मैं बना आज़ अचेत,
वही कुछ सव्रीड,
सस्मित कर रहा संकेत।

"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"
यही सुदृढ विचार'
चेतना का परिधि
बनता घूम चक्राकार।

मधु बरसती विधु किरण
है काँपती सुकुमार?
पवन में है पुलक,
मथंर चल रहा मधु-भार।

तुम समीप, अधीर
इतने आज क्यों हैं प्राण?
छक रहा है किस सुरभी से
तृप्त होकर घ्राण?

आज क्यों संदेह होता
रूठने का व्यर्थ,
क्यों मनाना चाहता-सा
बन रहा था असमर्थ।

धमनियों में वेदना-
सा रक्त का संचार,
हृदय में है काँपती
धड़कन, लिये लघु भार

चेतना रंगीन ज्वाला
परिधि में सांनद,
मानती-सी दिव्य-सुख
कुछ गा रही है छंद।

अग्निकीट समान जलती
है भरी उत्साह,
और जीवित हैं,
न छाले हैं न उसमें दाह।

कौन हो तुम-माया-
कुहुक-सी साकार,
प्राण-सत्ता के मनोहर
भेद-सी सुकुमार!

हृदय जिसकी कांत छाया
में लिये निश्वास,
थके पथिक समान करता
>व्यजन ग्लानि विनाश।"

श्याम-नभ में मधु-किरण-सा
फिर वही मृदु हास,
सिंधु की हिलकोर
दक्षिण का समीर-विलास!

कुंज में गुंजरित
कोई मुकुल सा अव्यक्त-
लगा कहने अतिथि,
मनु थे सुन रहे अनुरक्त-

"यह अतृप्ति अधीर मन की,
क्षोभयुक्त उन्माद,
सखे! तुमुल-तरंग-सा
उच्छवासमय संवाद।

मत कहो, पूछो न कुछ,
देखो न कैसी मौन,
विमल राका मूर्ति बन कर
स्तब्ध बैठा कौन?

विभव मतवाली प्रकृति का
आवरण वह नील,
शिथिल है, जिस पर बिखरता
प्रचुर मंगल खील,

राशि-राशि नखत-कुसुम की
अर्चना अश्रांत
बिखरती है, तामरस
सुंदर चरण के प्रांत।"

मनु निखरने लगे
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,
वह अनंत प्रगाढ
छाया फैलती अपरूप,

बरसता था मदिर कण-सा
स्वच्छ सतत अनंत,
मिलन का संगीत
होने लगा था श्रीमंत।

छूटती चिनगारियाँ
उत्तेजना उद्भ्रांत।
धधकती ज्वाला मधुर,
था वक्ष विकल अशांत।

वातचक्र समान कुछ
था बाँधता आवेश,
धैर्य का कुछ भी न
मनु के हृदय में था लेश।

कर पकड़ उन्मुक्त से
हो लगे कहने "आज,
देखता हूँ दूसरा कुछ
मधुरिमामय साज!

वही छवि! हाँ वही जैसे!
किंतु क्या यह भूल?
रही विस्मृति-सिंधु में
स्मृति-नाव विकल अकूल।

जन्म संगिनी एक थी
जो कामबाला नाम-
मधुर श्रद्धा था,
हमारे प्राण को विश्राम-

सतत मिलता था उसी से,
अरे जिसको फूल
दिया करते अर्ध में
मकरंद सुषमा-मूल।

प्रलय मे भी बच रहे हम
फिर मिलन का मोद
रहा मिलने को बचा,
सूने जगत की गोद।

ज्योत्स्ना सी निकल आई!
पार कर नीहार,
प्रणय-विधु है खड़ा
नभ में लिये तारक हार।

कुटिल कुतंक से बनाती
कालमाया जाल-
नीलिमा से नयन की
रचती तमिसा माल।

नींद-सी दुर्भेद्य तम की,
फेंकती यह दृष्टि,
स्वप्न-सी है बिखर जाती
हँसी की चल-सृष्टि।

हुई केंद्रीभूत-सी है
साधना की स्फूर्त्ति,
दृढ-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्त्ति।

दिवाकर दिन या परिश्रम
का विकल विश्रांत
मैं पुरूष, शिशु सा भटकता
आज तक था भ्रांत।


चंद्र की विश्राम राका
बालिका-सी कांत,
विजयनी सी दीखती
तुम माधुरी-सी शांत।



पददलित सी थकी
व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत,
शस्य-श्यामल भूमि में
होती समाप्त अशांत।

आह! वैसा ही हृदय का
बन रहा परिणाम,
पा रहा आज देकर
तुम्हीं से निज़ काम।

आज ले लो चेतना का
यह समर्पण दान।
विश्व-रानी! सुंदरी नारी!
जगत की मान!"

धूम-लतिका सी गगन-तरू
पर न चढती दीन,
दबी शिशिर-निशीथ में
ज्यों ओस-भार नवीन।

झुक चली सव्रीड
वह सुकुमारता के भार,
लद गई पाकर पुरूष का
नर्ममय उपचार।

और वह नारीत्व का जो
मूल मधु अनुभाव,
आज जैसे हँस रहा
भीतर बढ़ाता चाव।


मधुर व्रीडा-मिश्र
चिंता साथ ले उल्लास,
हृदय का आनंद-कूज़न
लगा करने रास।

गिर रहीं पलकें,
झुकी थी नासिका की नोक,
भ्रूलता थी कान तक
चढ़ती रही बेरोक।

स्पर्श करने लगी लज्जा
ललित कर्ण कपोल,
खिला पुलक कदंब सा
था भरा गदगद बोल।

किन्तु बोली "क्या
समर्पण आज का हे देव!
बनेगा-चिर-बंध-
नारी-हृदय-हेतु-सदैव।

आह मैं दुर्बल, कहो
क्या ले सकूँगी दान!
वह, जिसे उपभोग करने में
विकल हों प्रान?"

लज्जा सर्ग

भाग-1


"कोमल किसलय के अंचल में
नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी,
गोधूली के धूमिल पट में
दीपक के स्वर में दिपती-सी।

मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में
मन का उन्माद निखरता ज्यों-
सुरभित लहरों की छाया में
बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों-

वैसी ही माया में लिपटी
अधरों पर उँगली धरे हुए,
माधव के सरस कुतूहल का
आँखों में पानी भरे हुए।

नीरव निशीथ में लतिका-सी
तुम कौन आ रही हो बढ़ती?
कोमल बाँहे फैलाये-सी
आलिगंन का जादू पढ़ती?

किन इंद्रजाल के फूलों से
लेकर सुहाग-कण-राग-भरे,
सिर नीचा कर हो गूँथ माला
जिससे मधु धार ढरे?

पुलकित कदंब की माला-सी
पहना देती हो अंतर में,
झुक जाती है मन की डाली
अपनी फल भरता के डर में।

वरदान सदृश हो डाल रही
नीली किरणों से बुना हुआ,
यह अंचल कितना हलका-सा
कितना सौरभ से सना हुआ।

सब अंग मोम से बनते हैं
कोमलता में बल खाती हूँ,
मैं सिमिट रही-सी अपने में
परिहास-गीत सुन पाती हूँ।

स्मित बन जाती है तरल हँसी
नयनों में भरकर बाँकपना,
प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो
वह बनता जाता है सपना।

मेरे सपनों में कलरव का संसार
आँख जब खोल रहा,
अनुराग समीरों पर तिरता था
इतराता-सा डोल रहा।

अभिलाषा अपने यौवन में
उठती उस सुख के स्वागत को,
जीवन भर के बल-वैभव से
सत्कृत करती दूरागत को।

किरणों का रज्जु समेट लिया
जिसका अवलंबन ले चढ़ती,
रस के निर्झर में धँस कर मैं
आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।

छूने में हिचक, देखने में
पलकें आँखों पर झुकती हैं,
कलरव परिहास भरी गूजें
अधरों तक सहसा रूकती हैं।

संकेत कर रही रोमाली
चुपचाप बरजती खड़ी रही,
भाषा बन भौंहों की काली-रेखा-सी
भ्रम में पड़ी रही।

तुम कौन! हृदय की परवशता?
सारी स्वतंत्रता छीन रही,
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे
जीवन-वन से हो बीन रही"

संध्या की लाली में हँसती,
उसका ही आश्रय लेती-सी,
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी
श्रद्धा का उत्तर देती-सी।

"इतना न चमत्कृत हो बाले
अपने मन का उपकार करो,
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती
ठहरो कुछ सोच-विचार करो।

अंबर-चुंबी हिम-श्रंगों से
कलरव कोलाहल साथ लिये,
विद्युत की प्राणमयी धारा
बहती जिसमें उन्माद लिये।

मंगल कुंकुम की श्री जिसमें
निखरी हो ऊषा की लाली,
भोला सुहाग इठलाता हो
ऐसी हो जिसमें हरियाली।

हो नयनों का कल्याण बना
आनन्द सुमन सा विकसा हो,
वासंती के वन-वैभव में
जिसका पंचम स्वर पिक-सा हो,

जो गूँज उठे फिर नस-नस में
मूर्छना समान मचलता-सा,
आँखों के साँचे में आकर
रमणीय रूप बन ढलता-सा,

नयनों की नीलम की घाटी
जिस रस घन से छा जाती हो,
वह कौंध कि जिससे अंतर की
शीतलता ठंडक पाती हो,

हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का
गोधूली की सी ममता हो,
जागरण प्रात-सा हँसता हो
जिसमें मध्याह्न निखरता हो,

हो चकित निकल आई
सहसा जो अपने प्राची के घर से,
उस नवल चंद्रिका-से बिछले जो
मानस की लहरों पर-से,

भाग-2

फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में,
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में,

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों,
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों,

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ,
गौरव महिमा हूँ सिखलाती,
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती,

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो,
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो,

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी,
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी,

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ,
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती,
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती,


चंचल किशोर सुंदरता की मैं
करती रहती रखवाली,
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"

"हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है?

इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ,

अवयव की सुंदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,

घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों
सहसा जल भर आता है?

सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में?

छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला,
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीहता श्रम-शीला?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में
,चाहती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में।


नारी जीवन का चित्र यही क्या?
विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।

रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती,
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती।

मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ
भुजलता फँसा कर नर-तरू से
झूले सी झोंके खाती हूँ।

इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ,
इतना ही सरल झलकता है।"

" क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने
-तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
रह नित्य-विरूद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर मन का
सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।

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