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2.10.16

पंचवटी/मैथिली शरण गुप्त/पृष्ठ 7 से13





कह सकते हो तुम कि चन्द्र का, कौन दोष जो ठगा चकोर?
किन्तु कलाधर ने डाला है, किरण-जाल क्यों उसकी ओर?
दीप्ति दिखाता यदि न दीप तो, जलता कैसे कूद पतंग?
वाद्य-मुग्ध करके ही फिर क्या, व्याध पकड़ता नहीं कुरंग?

लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?
चले प्रभात वात फिर भी क्या, खिले न कोमल-कमल कली?"
कहने लगे सुलक्षण लक्ष्मण-"हे विलक्षणे, ठहरो तुम;
पवनाधीन पताका-सी यों, जिधर-तिधर मत फहरो तुम।

जिसकी रूप-स्तुति करती हो, तुम आवेग युक्त इतनी,
उसके शील और कुल की भी, अवगति है तुमको कितनी?"
उत्तर देती हुई कामिनी, बोली अंग शिथिल करके-
"हे नर, यह क्या पूछ रहे हो, अब तुम हाय! हृदय हरके?

अपना ही कुल-शील प्रेम में, पड़कर नहीं देखतीं हम,
प्रेम-पात्र का क्या देखेंगी, प्रिय हैं जिसे लेखतीं हम?
रात बीतने पर है अब तो, मीठे बोल बोल दो तुम;
प्रेमातिथि है खड़ा द्वार पर, हृदय-कपाट खोल दो तुम।"

"हा नारी! किस भ्रम में है तू, प्रेम नहीं यह तो है मोह;
आत्मा का विश्वास नहीं यह, है तेरे मन का विद्रोह!
विष से भरी वासना है यह, सुधा-पूर्ण वह प्रीति नहीं;
रीति नहीं, अनरीति और यह, अति अनीति है, नीति नहीं॥

आत्म-वंचना करती है तू, किस प्रतीति के धोखे से;
झाँक न झंझा के झोंके में, झुककर खुले झरोखे से!
शान्ति नहीं देगी तुझको यह, मृगतृष्णा करती है क्रान्ति,
सावधान हो मैं पर नर हूँ, छोड़ भावना की यह भ्रान्ति॥"

इसी समय पौ फटी पूर्व में, पलटा प्रकृति-पटी का रंग।
किरण-कण्टकों से श्यामाम्बर फटा, दिवा के दमके अंग।
कुछ कुछ अरुण, सुनहली कुछ कुछ, प्राची की अब भूषा थी,
पंचवटी की कुटी खोलकर, खड़ी स्वयं क्या ऊषा थी!

अहा! अम्बरस्था ऊषा भी, इतनी शुचि सस्फूर्ति न थी,
अवनी की ऊषा सजीव थी, अम्बर की-सी मूर्ति न थी।
वह मुख देख, पाण्डु-सा पड़कर, गया चन्द्र पश्चिम की ओर;
लक्ष्मण के मुँह पर भी लज्जा, लेने लगी अपूर्व हिलोर॥

चौंक पड़ी प्रमदा भी सहसा, देख सामने सीता को,
कुमुद्वती-सी दबी देख वह, उस पद्मिनी पुनीता को।
एक बार ऊषा की आभा, देखी उसने अम्बर में,
एक बार सीता की शोभा, देखी बिगताडम्बर में।

एक बार अपने अंगो की, ओर दृष्टि उसने डाली,
उलझ गई वह किन्तु,--बीच में, थी विभूषणों की जाली।
एक बार फिर वैदेही के, देखे अंग अदूषण वे,
सनक्षत्र अरुणोदय ऐसे-रखते थे शुभ भूषण वे॥

हँसने लगे कुसुम कानन के, देख चित्र-सा एक महान,
विकच उठीं कलियाँ डालों में, निरख मैथिली की मुस्कान॥
कौन कौन से फूल खिले हैं, उन्हें गिनाने लगा समीर,
एक एक कर गुन गुन करके, जुड़ आई भौंरों की भीर॥

नाटक के इस नये दृश्य के, दर्शक थे द्विज लोग वहाँ,
करते थे शाखासनस्थ वे, समधुप रस का भोग वहाँ।
झट अभिनयारम्भ करने को, कोलाहल भी करते थे,
पंचवटी की रंगभूमि को, प्रिय भावों से भरते थे॥

सीता ने भी उस रमणी को, देखा लक्ष्मण को देखा,
फिर दोनों के बीच खींच दी, एक अपूर्व हास्य-रेखा।
"देवर, तुम कैसे निर्दय हो, घर आये जन का अपमान,
किसके पर-नर तुम, उसके जो, चाहे तुमको प्राण-समान?

याचक को निराश करने में, हो सकती है लाचारी,
किन्तु नहीं आई है आश्रय, लेने को यह सुकुमारी।
देने ही आई है तुमको, निज सर्वस्व बिना संकोच,
देने में कार्पण्य तुम्हें हो, तो लेने में क्या है सोच?"

उनके अरुण चरण-पद्मों में, झुक लक्ष्मण ने किया प्रणाम,
आशीर्वाद दिया सीता ने--"हों सब सफल तुम्हारे काम!"
और कहा--"सब बातें मैंने, सुनी नहीं तुम रखना याद;
कब से चलता है बोलो यह, नूतन शुक-रम्भा-संवाद?"

बोलीं फिर उस बाला से वे, सुस्मितपूर्वक वैसे ही-
"अजी, खिन्न तुम न हो, हमारे, ये देवर हैं ऐसे ही।
घर में ब्याही बहू छोड़कर, यहाँ भाग आये हैं ये,
इस वय में क्या कहूँ, कहाँ का, यह विराग लाये हैं ये!

किन्तु तुम्हारी इच्छा है तो, मैं भी उन्हें मनाऊँगी,
रहो यहाँ तुम अहो! तुम्हारा, वर मैं इन्हें बनाऊँगी।
पर तुम हो ऐश्वर्य्यशालिनी, हम दरिद्र वन-वासी हैं,
स्वामी-दास स्वयं हैं हम निज, स्वयं स्वामिनी-दासी हैं॥

पर करना होगा न तुम्हें कुछ, सभी काम कर लूँगी मैं,
परिवेषण तक मृदुल करों से, तुम्हें न करने दूँगी मैं।
हाँ, पालित पशु-पक्षी मेरे, तंग करें यदि तुम्हें कभी,
उन्हें क्षमा करना होगा तो, कह रखती हूँ इसे अभी!"

रमणी बोली-"रहे तुम्हारा, मेरा रोम रोम सेवी,
कहीं देवरानी यदि अपनी, मुझे बना लो तुम देवी!"
सीता बोलीं-"वन में तुम-सी, एक बहिन यदि पाऊँगी,
तो बातें करके ही तुमसे, मैं कृतार्थ हो जाऊँगी॥"

"इस भामा विषयक भाभी को, अविदित भाव नहीं मेरे,"
लक्ष्मण को सन्तोष यही था, फिर भी थे वे मुँह फेरे।
बोल उठे अब-"इन बातों में, क्या रक्खा है हे भाभी!
इस विनोद में नहीं दीखती, मुझे मोद की आभा भी।"
"तो क्या मैं विनोद करती हूँ!" बोली उनसे वैदेही,
अपने लिए रुक्ष हो तुम क्यों, होकर भी भ्रातृ-स्नेही?
आज उर्मिला की चिन्ता यदि, तुम्हें चित्त में होती है,
कि "वह विरहिणी बैठी मेरे, लिये निरन्तर रोती है।"

"तो मैं कहती हूँ, वह मेरी बहिन न देगी तुमको दोष,
तुम्हें सुखी सुनकर पीछे भी, पावेगी सच्चा सन्तोष।
प्रिय से स्वयं प्रेम करके ही, हम सब कुछ भर पाती हैं,
वे सर्वस्व हमारे भी हैं, यही ध्यान में लाती हैं॥

जो वर-माला लिये, आप ही, तुमको वरने आई हो,
 


अपना तन, मन, धन सब तुमको, अर्पण करने आई हो,
मज्जागत लज्जा तजकर भी, तिस पर करे स्वयं प्रस्ताव,
कर सकते हो तुम किस मन से, उससे भी ऐसा बर्ताव?"

मुसकाये लक्ष्मण, फिर बोले-"किस मन से मैं कहूँ भला?
पहले मन भी तो हो मेरे, जिससे सुख-दुख सहूँ भला!"
"अच्छा ठहरो" कह सीता ने, करके ग्रीवा-भंग अहा!
"अरे, अरे", न सुना लक्ष्मण का, देख उटज की ओर कहा-

"आर्य्यपुत्र, उठकर तो देखो, क्या ही सु-प्रभात है आज,
स्वयं सिद्धि-सी खड़ी द्वार पर, करके अनुज-वधू का साज!"
क्षण भर में देखी रमणी ने, एक श्याम शोभा बाँकी!
क्या शस्यश्यामल भूतल ने, दिखलाई निज नर झाँकी!

किंवा उतर पड़ा अवनी पर, कामरूप कोई घन था,
एक अपूर्व ज्योति थी जिसमें, जीवन का गहरापन था!
देखा रमणी ने चरणों में--नत लक्ष्मण को उसने भेंट,-
अपने बड़े क्रोड़ में विधु-सा, छिपा लिया सब ओर समेट॥

सीता बोलीं-"नाथ, निहारो, यह अवसर अनमोल नया;
देख तुम्हारे प्राणानुज का, तप सुरेन्द्र भी डोल गया!
माना, इनके निकट नहीं है, इन्द्रासन की कुछ गिनती,
किन्तु अप्सरा की भी क्यों ये, सुनते नहीं नम्र विनती?

तुम सबका स्वभाव ऐसा ही, निश्वल और निराला है,
और नहीं तो आई, लक्ष्मी, कौन छोड़ने वाला है?
कुम्हला रही देख लो, कर में, स्वयंवरा की वरमाला,
किन्तु कण्ठ देवर ने अपना, मानो कुण्ठित कर डाला॥"

मुसकाकर राघव ने पहले, देखा तनिक अनुज की ओर,
फिर रमणी की ओर देखकर, कहा अहा! ज्यों बोले मोर-
"शुभे, बताओ कि तुम कौन हो, और चाहती हो तुम क्या?"
छाती फूल गई रमणी की, क्या चन्दन है, कुमकुम क्या!

बोली वह--"पूछा तो तुमने-शुभे, चाहती हो तुम क्या?"
इन दशनों-अधरों के आगे, क्या मुक्ता हैं, विद्रुम क्या?
मैं हूँ कौन वेश ही मेरा, देता इसका परिचय है,
और चाहती हूँ क्या, यह भी, प्रकट हो चुका निश्वय है॥
जो कह दिया, उसे कहने में, फिर मुझको संकोच नहीं,
अपने भावी जीवन का भी, जी में कोई सोच नहीं।
मन में कुछ वचनों में कुछ हो, मुझमें ऐसी बात नहीं;
सहज शक्ति मुझमें अमोघ है, दाव, पेंच या घात नहीं॥

मैं अपने ऊपर अपना ही, रखती हूँ, अधिकार सदा,
जहाँ चाहती हूँ, करती हूँ, मैं स्वच्छन्द विहार सदा,
कोई भय मैं नहीं मानती, समय-विचार करूँगी क्या?
डरती हैं बाधाएँ मुझसे, उनसे आप डरूँगी क्या?

अर्द्धयामिनी होने पर भी, इच्छा हो आई मन में,
एकाकिनी घूमती-फिरती, आ निकली मैं इस वन में।
देखा आकर यहाँ तुम्हारे, प्राणानुज ये बैठे हैं,
मूर्ति बने इस उपल शिला पर, भाव-सिन्धु में पैठे हैं॥


सत्य मुझे प्रेरित करता है, कि मैं उसे प्रकटित कर दूँ,
इन्हें देख मन हुआ कि इनके-आगे मैं उसको धर दूँ।
वह मन, जिसे अमर भी कोई, कभी क्षुब्ध कर सका नहीं;
कोई मोह, लोभ भी कोई, मुग्ध, लुब्ध कर सका नहीं॥

इन्हें देखती हुई आड़ में, बड़ी देर मैं खड़ी रही,
क्या बतलाऊँ किन हावों में, किन भावों में पड़ी रही?
फिर मानों मन के सुमनों से, माला एक बना लाई,
इसके मिस अपने मानस की, भेंट इन्हें देने आई॥

पर ये तो बस-’कहो, कौन तुम?’ करने लगे प्रश्न छूँछा,
यह भी नहीं-’चाहती हो क्या’, जैसा अब तुमने पूँछा।
चाहे दोनों खरे रहें या, निकलें दोनों ही खोटे,
बड़े सदैव बड़े होते हैं, छोटे रहते हैं छोटे॥

तुम सबका यह हास्य भले ही, करता हो मेरा उपहास,
किन्तु स्वानुभव, स्वविचारों पर, है मुझको पूरा विश्वास।
तो अब सुनो, बड़े होने से, तुममें बड़ी बड़ाई है,
दृढ़ता भी है, मृदुता भी है, इनमें एक कड़ाई है॥

पहनो कान्त, तुम्हीं यह मेरी, जयमाला-सी वरमाला,
बने अभी प्रासाद तुम्हारी, यह एकान्त पर्णशाला!
मुझे ग्रहण कर इस आभा से, भूल जायेंगे ये भ्रू-भंग,
हेमकूट, कैलास आदि पर, सुख भोगोगे मेरे संग॥"

मुसकाईं मिथिलेशनन्दिनी-"प्रथम देवरानी, फिर सौत;
अंगीकृत है मुझे, किन्तु तुम, माँगो कहीं न मेरी मौत।
मुझे नित्य दर्शन भर इनके, तुम करती रहने देना,
कहते हैं इसको ही--अँगुली, पकड़ प्रकोष्ठ पकड़ लेना!

रामानुज ने कहा कि "भाभी, है यह बात अलीक नहीं-
औरों के झगड़े में पड़ना, कभी किसी को ठीक नहीं।
पंचायत करने आई थीं, अब प्रपंच में क्यों न पड़ो,
वंचित ही होना पड़ता है, यदि औरों के लिए लड़ो॥"
राघवेन्द्र रमणी से बोले-"बिना कहे भी वह वाणी,
आकृति से ही प्रकृति तुम्हारी, प्रकटित है हे कल्याणी!
निश्वय अद्भुत गुण हैं तुम में, फिर भी मैं यह कहता हूँ-
गृहत्याग करके भी वन में, सपत्नीक मैं रहता हूँ॥

किन्तु विवाहित होकर भी यह, मेरा अनुज अकेला है,
मेरे लिए सभी स्वजनों की, कर आया अवहेला है।
इसके एकांगी स्वभाव पर तुमने भी है ध्यान दिया,
तदपि इसे ही पहले अपने, प्रबल प्रेम का दान दिया॥

एक अपूर्व चरित लेकर जो, उसको पूर्ण बनाते हैं,
वे ही आत्मनिष्ठ जन जग में, परम प्रतिष्ठा पाते हैं।
यदि इसको अपने ऊपर तुम, प्रेमासक्त बना लोगी,
तो निज कथित गुणों की सबको, तुम सत्यता जना दोगी॥

जो अन्धे होते हैं बहुधा, प्रज्ञाचक्षु कहाते हैं,
पर हम इस प्रेमान्ध बन्धु को, सब कुछ भूला पाते हैं।
इसके इसी प्रेम को यदि तुम, अपने वश में कर लोगी,
तो मैं हँसी नहीं करता हूँ, तुम भी परम धन्य होगी।"

भेद दृष्टि से फिर लक्ष्मण को, देखा स्वगुण-गर्जनी ने,
वर्जन किया किन्तु लक्ष्मण की, अधरस्थिता तर्जनी ने!
बोले वे-"बस, मौन कि मेरे, लिए हो चुकी मान्या तुम,
यों अनुरक्ता हुईं आर्य्य पर, जब अन्यान्य वदान्या तुम॥"

प्रभु ने कहा कि "तब तो तुमको, दोनों ओर पड़े लाले,
मेरी अनुज-वधू पहले ही, बनी आप तुम हे बाले!"
हुई विचित्र दशा रमणी की, सुन यों एक एक की बात,
लगें नाव को ज्यों प्रवाह के, और पवन के भिन्नाघात!

कहा क्रुद्ध होकर तब उसने-"तो अब मैं आशा छोड़ूँ!
जो सम्बन्ध जोड़ बैठी थी, उसे आप ही अब तोड़ूँ?
किन्तु भूल जाना न इसे तुम, मुझमें है ऐसी भी शक्ति,
कि झकमार कर करनी होगी, तुमको फिर मुझ पर अनुरक्ति।

मेरे भृकुटि-कटाक्ष तुल्य भी, ठहरेंगे न तुम्हारे चाप",
बोले तब रघुराज-"तुम्हारा, ऐसा ही क्यों न हो प्रताप।
किन्तु प्राणियों के स्वभाव की, होती है ऐसी ही रीति,
परवशता हो सकती है पर, होती नहीं भीति में प्रीति॥"

इतना कहकर मौन हुए प्रभु, और तनिक गम्भीर हुए,
पर सौमित्रि न शान्त रह सके, उन्मुख वे वरवीर हुए--
"और इसे तुम भी न भूलना, तुम नारी होकर इतना-
अहम्भाव जब रखती हो तब, रख सकते हैं नर कितना?"

झंकृत हुई विषम तारों की, तन्त्री-सी स्वतन्त्र नारी,
"तो क्या अबलाएँ सदैव ही, अबलाएँ हैं-बेचारी?
नहीं जानते तुम कि देखकर, निष्फल अपन प्रेमाचार,
होती हैं अबलाएँ कितनी, प्रबलाएँ अपमान विचार!
पक्षपातमय सानुरोध है, जितना अटल प्रेम का बोध,
उतना ही बलवत्तर समझो, कामिनियों का वैर-विरोध।
होता है विरोध से भी कुछ, अधिक कराल हमारा क्रोध,
और, क्रोध से भी विशेष है, द्वेष-पूर्ण अपना प्रतिशोध॥

देख क्यों न लो तुम, मैं जितनी सुन्दर हूँ उतनी ही घोर,
दीख रही हूँ जितनी कोमल, हूँ उतनी ही कठिन-कठोर!"
सचमुच विस्मयपूर्वक सबने, देखा निज समक्ष तत्काल-
वह अति रम्य रूप पल भर में, सहसा बना विकट-कराल!

सबने मृदु मारुत का दारुण, झंझा नर्तन देखा था,
सन्ध्या के उपरान्त तमी का, विकृतावर्तन देखा था!
काल-कीट-कृत वयस-कुसुम-का, क्रम से कर्तन देखा था!
किन्तु किसी ने अकस्मात् कब, यह परिवर्तन देखा था!

गोल कपोल पलटकर सहसा, बने भिड़ों के छत्तों-से,
हिलने लगे उष्ण साँसों में, ओंठ लपालप-लत्तों से!
कुन्दकली-से दाँत हो गये, बढ़ बारह की डाढ़ों से,
विकृत, भयानक और रौद्र रस, प्रगटे पूरी बाढ़ों-से?

जहाँ लाल साड़ी थी तनु में, बना चर्म का चीर वहाँ,
हुए अस्थियों के आभूषण, थे मणिमुक्ता-हीर जहाँ!
कन्धों पर के बड़े बाल वे, बने अहो! आँतों के जाल,
फूलों की वह वरमाला भी, हुई मुण्डमाला सुविशाल!

हो सकते थे दो द्रुमाद्रि ही, उसके दीर्घ शरीर-सखा;
देख नखों को ही जँचती थी, वह विलक्षणी शूर्पणखा!
भय-विस्मय से उसे जानकी, देख न तो हिल-डोल सकीं,
और न जड़ प्रतिमा-सी वे कुछ, रुद्र कण्ठ से बोल सकीं॥

अग्रज और अनुज दोनों ने, तनिक परस्पर अवलोका,
प्रभु ने फिर सीता को रोका, लक्ष्मण ने उसको टोका।
सीता सँभल गई जो देखी, रामचन्द्र की मृदु मुस्कान,
शूर्पणखा से बोले लक्ष्मण, सावधान कर उसे सुजान-

"मायाविनि, उस रम्य रूप का, था क्या बस परिणाम यही?
इसी भाँति लोगों को छलना, है क्या तेरा काम यही?
विकृत परन्तु प्रकृत परिचय से, डरा सकेगी तू न हमें,
अबला फिर भी अबला ही है, हरा सकेगी तू न हमें।

वाह्य सृष्टि-सुन्दरता है क्या, भीतर से ऐसी ही हाय!
जो हो, समझ मुझे भी प्रस्तुत, करता हूँ मैं वही उपाय।
कि तू न फिर छल सके किसी को, मारूँ तो क्या नारी जान,
विकलांगी ही तुझे करूँगा, जिससे छिप न सके पहचान॥

उस आक्रमणकारिणी के झट, लेकर शोणित तीक्ष्ण कृपाण,
नाक कान काटे लक्ष्मन ने, लिये न उसके पापी प्राण।
और कुरूपा होकर तब वह, रुधिर बहाती, बिललाती,
धूल उड़ाती आँधी ऐसी, भागी वहाँ से चिल्लाती॥

गूँजा किया देर तक उसका, हाहाकर वहाँ फिर भी,
हुईं उदास विदेहनन्दिनी, आतुर एवं अस्थिर भी।
होने लगी हृदय में उनके, वह आतंकमयी शंका,
मिट्टी में मिल गई अन्त में, जिससे सोने की लंका॥

"हुआ आज अपशकुन सबेरे, कोई संकट पड़े न हा!
कुशल करे कर्त्तार" उन्होंने, लेकर एक उसाँस कहा।
लक्ष्मण ने समझाया उनको-"आर्य्ये, तुम निःशंक रहो,
इस अनुचर के रहते तुमको, किसका डर है, तुम्हीं कहो॥

नहीं विघ्न-बाधाओं को हम, स्वयं बुलाने जाते हैं,
फिर भी यदि वे आ जायें तो, कभी नहीं घबड़ाते हैं।
मेरे मत में तो विपदाएँ, हैं प्राकृतिक परीक्षाएँ,
उनसे वही डरें, कच्ची हों, जिनकी शिक्षा-दीक्षाएँ॥

कहा राम ने कि "यह सत्य है, सुख-दुख सब है समयाधीन,
सुख में कभी न गर्वित होवे, और न दुख में होवे दीन।
जब तक संकट आप न आवें, तब तक उनसे डर माने,
जब वे आजावें तब उनसे, डटकर शूर समर ठाने॥

"यदि संकट ऐसे हों जिनको, तुम्हें बचाकर मैं झेलूँ,
तो मेरी भी यह इच्छा है, एक बार उनसे खेलूँ।

देखूँ तो कितने विघ्नों की, वहन-शक्ति रखता हूँ मैं,
कुछ निश्चय कर सकूँ कि कितनी, सहन शक्ति रखता हूँ मैं॥"

"नहीं जानता मैं, सहने को, अब क्या है अवशेष रहा?
कोई सह न सकेगा, जितना, तुमने मेरे लिए सहा!"
"आर्य्य तुम्हारे इस किंकर को, कठिन नहीं कुछ भी सहना,
असहनशील बना देता है, किन्तु तुम्हारा यह कहना॥"

सीता कहने लगीं कि "ठहरो, रहने दो इन बातों को,
इच्छा तुम न करो सहने की, आप आपदाघातों को।
नहीं चाहिए हमें विभव-बल, अब न किसी को डाह रहे,
बस, अपनी जीवन-धारा का, यों ही निभृत प्रवाह बहे॥

हमने छोड़ा नहीं राज्य क्या, छोड़ी नहीं राज्य निधि क्या?
सह न सकेगा कहो, हमारी, इतनी सुविधा भी विधि क्या?"
"विधि की बात बड़ों से पूछो, वे ही उसे मानते हैं,
मैं पुरुषार्थ पक्षपाती हूँ; इसको सभी जानते हैं।"

यह कहकर लक्ष्मण मुसकाये, रामचन्द्र भी मुसकाये,
सीता मुसकाईं विनोद के, पुनः प्रमोद भाव छाये।
"रहो, रहो पुरुषार्थ यही है,-पत्नी तक न साथ लाये;"
कहते कहते वैदेही के, नेत्र प्रेम से भर आये॥

"चलो नदी को घड़े उठा लो, करो और पुरुषार्थ क्षमा,
मैं मछलियाँ चुगाने को कुछ, ले चलती हूँ धान, समा।
घड़े उठाकर खड़े हो गये, तत्क्षण लक्ष्मण गद्गद-से,
बोल उठे मानो प्रमत्त हो, राघव महा मोद-मद से-

"तनिक देर ठहरो मैं देखूँ, तुम देवर-भाभी की ओर,
शीतल करूँ हृदय यह अपना, पाकर दुर्लभ हर्ष-हिलोर!"
यह कहकर प्रभु ने दोनों पर, पुलकित होकर सुध-बुध भूल,
उन दोनों के ही पौधों के, बरसाये नव विकसित फूल॥
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