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6.1.19

कवि सम्मेलन, टुकड़े-टुकड़े हूटिंग - शैल चतुर्वेदी

                        




एक कवि सम्मेलन में
ऐसे श्रोता मिल गए
जिनकी कृपा से
कवियों के कलेजे हिल गए

एक अधेड़ कवि ने जैसे ही गाया-
" उनका चेहरा गुलाब क्या कहिए।"
सामने से आवाज़ आई-
" लेके आए जुलाब क्या कहिए।"
और कवि जी
जुलाब का नाम सुनते ही
अपना पेट पकड़कर बैठ गए
दूसरे कवि ने माइक पर आते ही
भूमिका बनाई-
"न तो कवि हूँ
न कविता बनाता हूँ।"
आवाज़ आई-
"तो क्या बेवक़ूफ़ बनाता है भाई।"
कवि को पसीना आ गया
और वह घबराहट में
किसी और का गीत गा गया-
"जब-जब घिरे बदरिया कारी
नैनन नीर झरे।"
आवाज़ आई-"तुम भी कहाँ जाकर मरे
यह कविता तो
लखनऊ वाली कवयित्री की है।"
कवि बोला-"हमने ही उसे दी है।"
आवाज़ आई-"पहले तो पल्ला पकड़ते हो
और जब हाथ से निकल जाती है
तो हल्ला करते हो।"
संयोजक ने संचालक से कहा-
"कविता मत सुनवाओ
जिसके पास गला है
उसको बुलवाओ।"
गले वाला कवि मुस्कुराया
और जैसे ही उसने नमूना दिखाया-
चटक म्हारा चम्पा आई रे रूत थारी
कोई श्रोता चिल्लाया-
"किस लोक गीत से मारी।"
कवि बोला-"हमारी है हमारी
विश्वास ना हो तो संचालक से पूछ लो।"
संचालक बोला-"गाओ या मत गाओ
मैं झूठ नहीं बोलता
गवाही मुझसे मत दिलवाओ।"

संचालक ने दूसरे कवि से कहा-
"गोपालजी आप ही आइए
ये श्रोता रूपी कैरव
कविता को नंगा कर रहे हैं
लाज बचाइए।"

गोपालजी जैसे ही शुरू हुए-
"तू ही साक़ी
तू ही बोतल
तू ही पैमाना"
किसी ने पूछा-"गुरू!
ये कविसम्मेलन है या मैख़ाना।"
कवि बोला-"मैं खानदानी कवि हूँ
मुझसे मत टकराना"
आवाज़ आई-"क्या आप के बाप भी कवि थे।"
कवि बोला-"जी हाँ, थे
मगर आप ये क्यों पूछ रहे हैं।"
उत्तर मिला-"हम आपकी बेवक़ूफ़ी की जड़ ढूंढ रहे हैं।"

अबकी बार-
एक आशुकवि को उठाया गया-
उसने कहा-"आपने हमें कई बार सुना है।"
आवाज़ आई-"जी हाँ आपकी बकवास सुनकर
कई बार सिर धुना है"
कवि बोला-"संभलकर बोलना
हमारे पास कलेज़ा है
उपर से नीचे तक भेजा ही भेजा है।"
किसी ने पूछा-"आपको किसने भेजा है?"
कवि बोला-"हम बनारस में रहते हैं
रस हमारे यहाँ ही बनते है।"
उत्तर मिला-"यहाँ के श्रोता मुश्किल से बनते है
बकवास नहीं कविता सुनते है।"
कवि बोला-"कविता तो कविता
हम अख़बार तक को गा कर पढ़ सकते हैं
मंच पर ही नहीं
छाती पर भी चढ़ सकते है।"
आवाज़ आई -"यहा से दारासिंग भी
आड़ासिंग होकर गए है।"
कवि बोला-"हम दारासिंग नहीं हैं
दुधारासिंग हैं
दोनो तरफ धार रखते हैं
कवि होकर भी कार रखते हैं।"
संचालक बोला-"बेकार मुंह मत लड़ाओ
कविता हो तो सुनाओ।"
कवि ने संचालक को पलटकर कहा-
"अच्छा! हमारी बिल्ली हम से ही म्याऊँ
कविता क्या होती है सुनाऊँ
संचालक में छुपा है चालक
घुसा हुआ लक चालक में।"
कोई श्रोता बोला-"कविता छोड़ के
काम कीजिए
नौटंकी या नाटक में।"
कवि हाज़िर जवाब था
दूध की बोतल में शराब था
बोला-"जी हाँ!
नौटंकी या रामलीला में काम करेंगे
और आप जैसे तो चार बन्दर
हमारे हाथ मरेंगे।"
उत्तर मिला-आपकी बगल में बैठे हनुमानजी
हमारी सहायता करेंगे।
आशुकवि के बैठते ही
हास्य कवि ने मज़मा लगाया-
"लो आ गए हम सभा में
देखना अब रंग आएगा
कि रावण को चटाता धूल
अब बजरंग आएगा।"
कई श्रोता एक साथ चिल्लाए-
"बजरंग बली की जै"
कवि बोला-"जै बोल लो
य कविता सुन लो।"
उत्तर मिला-"कविता और आप
महापाप महापाप।"
कवि बोला-"पाप कहो या बाप
मैं नहीं बैठूंगा
गैर उठें तेरी महफ़िल से तो मैं बैठूं
शनीचर जब चला जाता है
तो इतवार आता है।"
आवाज़ आई-"इस शनिवार को तेल पिलाईए
और इतवार को बुलाइए।"
कवि बोला मैं ही इतवार हूँ।"
आवाज़ आई-"छुट्टी कीजिए
और सोमवार जी को आने दीजिए।"

सिमवार जी ने माइक पर आते ही
महिलाओं पर दृष्टी जमाई
और टाई को मोड़ते हुए
एक ग़ज़ल सुनाई।"
एक श्रोता बोला-"गला क्या है बांसुरी है।"
दूसरा बोला-ऊपर से नीचे तक छुरी है।"
तीसरे ने कहा-"वाकई खूब गाता है।"
चौथा बोला-"लेकिन महिलाओं को सुनाता है।"
कवि ने फौरन मक़ता पेश किया-
"हम दौरे इंक़लाब समझते हैं उसको मोम
ख़ाके ज़मीं के साथ अगर कहकशां चले।"
किसी ने तुक मारी-
"बदनाम करके प्रीतम मुझ को कहाँ चले।"
कवि ने स्वर बदला-
"रूप तुम्हारा मन में कस्तूरी बो गया।"
आवाज़ आई-"गीत पढ़ रहे हो
या खेती कर रहे हो।"
कवि बैठते हुए बोला-"ऐसा रिसपाँस मिलेगा
तो खेती ही करनी पड़ेगी।"

अब व्यंग्यकार को पुकारा गया-
नशे के आसमान से
ज़मीन पर उतारा गया
व्यंग्यकार ने माइक पकड़कर
लड़खड़ाते हुए कहा-
"देश लड़खड़ा रहा है, सम्भालो।"
आवाज़ आई-"थोड़ी सी और लगा लो।"
कवि बोला-"आप मेरा नहीं
हिन्दी साहित्य का अपमान कर रहें हैं।"
उत्तर मिला-"जी हाँ, ज्ञान का सारा आकाश
आप ही के कन्धो पर टिका है
और हिन्दी का सारा साहित्य
आप ही के नाम से बिका है।"
कवि बोला-"हम प्रमाण दे सकते हैं।"
आवाज़ आई-"क्यों नहीं,
आप 'गीतांजलि' को पी सकते हैं
'मेघदूत' को खा सकते हैं
और 'कामायनी' तक पर
उंगुली उठा सकते हैं।"
कवि बोला-"हमने दिल्ली से मद्रास तक
बड़े-बड़े मंचो को हिलाया हैं।
उत्तर मिला-"ये और कह दो
कि निराला को गोद में खिलाया है।"
व्यंग्यकार बैठते हुए बोला-
"अरे हट, ये भी कोई श्रोता हैं।"
कई बोला-"आप जैसो के लिये सरोता हैं।"

इतनी देर बाद संचालक को अक़्ल आई
तो उसने मंच पर अपनी माया फैलाई
कवयित्री की ग़ज़ल गूंजी।
"सुबह न आया, शाम न आया
उनका कोई पैगाम न आया।"
आवाज़ आई-"इंतज़ार बेकार हैं
पोस्टमैन बिमार है।"
कवयित्री बोली-"शोर मत मचाओ
दम है तो मंच पर आ जाओ।"
उत्तर मिला-"इक्यावन रूपये लूंगा।"
संयोजक बोला-"बहिन जी उसे रोकिए
मैं एक पैसा भी नहीं दूंगा।
वो लोकल कवि है
इक्यावन रूपये में बावन कविताएँ सुनाएगा
और मंच पर रखे हुए सारे पान
अकेले खा जएगा।"

संचालक ने हारकर धीरज जी को बुलाया
माइक नीचे झुकाया
मसनद नीचे लगाया
जी बोले-"मैं आ गया हूँ, बजाओ
तालियाँ बजाओ।"
कई आवाज़े एक साथ आई-
"पहले कव्वाली सुनाओ"
मुंह पर मुठ्ठी बांधकर
नज़ले को भीतर खींचते हुए
और दाँतो को भींचते हुए
जैसे ही धीरज जी शुरु हुए-
"छुपे रुस्तम है क़यामत की नज़र रखते हैं।"
आवाज़ आई-"व्हिस्की मिलती है कहाँ
इसकी खबर रखते हैं।"
धीरज ने कव्वाली रोकी
और सन्योजक से बोले-
"आप तो कह रहे थे यहाँ नहीं मिलती।"
सन्योजक बोला- "व्हिस्की नहीं, ठर्रा मिलता है।"
कविवर ऐश जी और बागी जी
एक साथ बोले-"मंगवा दो अपुन को चलता है।"
तभी संचालक ने घोषणा की-"आ गए, आ गए
कविवर नौटंकीलाल आ गए
मुश्किल से आ पाए है
ट्रेन छूट गई
प्लेन से आए हैं
देखिए वो आ रहे हैं
गलत मत समझियएगा
यात्रा की थकान है न
इसीलिए लड़खड़ा रहे हैं।"

चमचों से घिरे हुए
'शोर' मचाते
'पूरब को पश्चिम' से मिलाते
और 'क्रांती' के गीत गुनगुनाते
कविवर नौटंकीलाल
कवियों को दाँत दिखाकर
जनता की और घूम गए
और माइक को नायिका समझकर
उससे झूम गए
बोले-"हाँ तो मेरी जान, मेरे मीत
लो, सुन लो
मेरी नई-नई फ़िल्म का धांसू गीत
"अर र र र र र र हुर्र
मेरे दिल का पिंजरा छोड़ के
हो मत जाना फुर्र
अरे रे मेरी सोन चिरैया।"
आवाज़ आई-"यहाँ सब पढ़े लिखे है भैया।"

तभी कोई चिल्लाया-
"सांप, सांप, सांप।"
और सारा पंडाल
हो गया साफ
कवि सम्मेलन ध्वस्त होने के पश्चात
किसी कवि ने संचालक से पूछा-
"क्यों गुरू! जूतों का कहीं पता है।"
संचालक बोला-"जूतों को मारो गोली
सन्योजक लापता है।"
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