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23.12.18

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा , गजानन माधव मुक्तिबोध


घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा
तेरी प्रत्यंचा का कम्पन सूनेपन का भार हरेगा
हिमवत, जड़, निःस्पन्द हृदय के अन्धकार में जीवन-भय है
तेरे तीक्ष्ण बाण की नोकों पर जीवन-सँचार करेगा।

तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अन्तर में उतरेंगे
तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे
कोपित तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन
रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन।

सभी उरों के अन्धकार में एक तड़ित वेदना उठेगी
तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित, जड़ावरण की महि फटेगी
शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अँकुर
दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी।

हे रहस्यमय ! ध्वंस-महाप्रभु, ओ ! जीवन के तेज सनातन
तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सर्जन
हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वन्दन
मेरे सर पर एक पैर रख, नाप तीन जग तू असीम बन ।
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रात, चलते हैं अकेले ही सितारे , गजानन माधव मुक्तिबोध


रात, चलते हैं अकेले ही सितारे।
एक निर्जन रिक्त नाले के पास
मैंने एक स्थल को खोद
मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर
खोदा और
खोदा और
दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर।
सुनाई दे रहे थे स्वर –
बड़े अपस्वर
घृणित रात्रिचरों के क्रूर।
काले-से सुरों में बोलता, सुनसान था मैदान।
जलती थी हमारी लालटैन उदास,
एक निर्जन रिक्त नाले के पास।
खुद चुका बिस्तर बहुत गहरा
न देखा खोलकर चेहरा
कि जो अपने हृदय-सा
प्यार का टुकड़ा
हमारी ज़िंदगी का एक टुकड़ा,
प्राण का परिचय,
हमारी आँख-सा अपना
वही चेहरा ज़रा सिकुड़ा
पड़ा था पीत,
अपनी मृत्यु में अविभीत।
वह निर्जीव,
पर उस पर हमारे प्राण का अधिकार;
यहाँ भी मोह है अनिवार,
यहाँ भी स्नेह का अधिकार।

बिस्तर खूब गहरा खोद,
अपनी गोद से,
रक्खा उसे नरम धरती-गोद।
फिर मिट्टी,
कि फिर मिट्टी,
रखे फिर एक-दो पत्थर
उढ़ा दी मृत्तिका की साँवली चादर
हम चल पड़े
लेकिन बहुत ही फ़िक्र से फिरकर,
कि पीछे देखकर
मन कर लिया था शांत।
अपना धैर्य पृथ्वी के हृदय में रख दिया था।
धैर्य पृथ्वी का हृदय में रख लिया था।
उतनी भूमि है चिरंतन अधिकार मेरा,
जिसकी गोद में मैंने सुलाया प्यार मेरा।
आगे लालटैन उदास,
पीछे, दो हमारे पास साथी।
केवल पैर की ध्वनि के सहारे
राह चलती जा रही थी।
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