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31.10.10

जब तक धरती पर अंधकार :डॉ.दयाराम आलोक


                                    
                                      


जब तक धरती पर अन्धकार मैं दीप जलाता जाऊंगा |
मै दीन-हीन ,नैराश्य-हृदय में मंगल ज्योति जलाऊंगा।

मानवता अब भी आत्म रोग ,अविवेक तिमिर में लिपटी है
धरती के मानव की हलचल भौतिक -बंधन में सिमटी है।
अनुभुति नहीं आदर्शों की अवसरवादी सिद्धांत सबल
हर ज्योति-पुंज से नफ़रत है सब ओर तिमिर साम्राज्य प्रबल

मैं गर्दिश के अभिषप्त मनुज को जीवन-पथ दिखलाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

दीवाली पर दीपों की जगमग केवल रस्म निभाना है।
अपने घर-आंगन की सज-धज करलो आदर्श पुराना है।
पर कभी किसी ने इस जग मग से दूर कुटिर में झांका है?
उस घास फ़ूस की छत नीचे पंजर ने आटा फ़ांका है

मैं वैभव को एकांत अभावों का हमदर्द बनाऊंगा,
जब तक धरती पर अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

ऋषि दयानंद ने आडंबर-पाखण्ड-पुंज पिघलाया था,
अज्ञान ,अशिक्षा मे गाफ़िल जन को सद्मार्ग दिखाया था।
गांधी,ईसा,सुकरात बुद्ध ने जग जीवन निर्माण किया,
पर अघ-लिप्तों ने युग पुरुषों का कब कितना सम्मान किया?
मैं ज्योति जलाने वालों को जग का आदर्श बनाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

आलोक प्रशासन होते ही तम तुरत अंग सकुचाता है।
कच्छप गुणधारी तिमिर सदा अवसर पर घात लगाता है।
मायावी तम की हलचल में कितना मोहक आकर्षण है
सामान्य दीप के जीवन का अंधड से शक्ति परीक्षण है।

मैं बुझने वाले हर दीपक का संरक्षक बन जाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।
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सुमन कैसे सौरभीले : डॉ. दयाराम आलोक


स्वास्थ्य-सरिता बिकानेर से प्रकाशित मासिक के सितंबर १९६३ के अंक में प्रकाशित रचना.

                          


                         

मुस्कराते खिल खिलाते सुमन कैसे सौरभीले
चपल चंचल पवन क्रीडित श्वेत ,नीले,लाल,पीले।
हरित,कोमल किसलयों में महकते मकरंद भीने।
शुष्क ऊर में मस्तियां भरते कुसुम-दल ओस गीले।

भृंग को भी दंग कर देता तुम्हारा रूप प्यारा
विरस मन में मोद भरता हैं मदिर सौरभ तुम्हारा
लहलहाती टहनियों में रम्यता से उभर जाते।
पवन-तन से लिपटकर वातावरण में मह महाते।

हरित धरती के तुम्हीं अभिराम राजकुमार मंजुल
नव्य,सुरभित,दिव्य,उन्नत,भव्य रूप सुरम्य चंचल
जननी ऊषा नित्य खग कलरव के मृदु स्वर में जगाती
बाल रवि की रश्मियां नव पंखुडियों में रंग भरती।

तितलियां ,कीडे पतंगे मचलकर उड पास आते
भिनकती मधुमखियां परिमल कणों से मधु बनातीं।
कंटकों में निडर हो खिलता गुलाब प्रसुन्न कैसा
आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश देता।

पोखरों में खिल रहे अनुपम सजीले कमल उज्ज्वल
कर रहे संकेत उठ मालिन्य से बन शुद्ध निर्मल।
झूमता मदहोश गैंदा पवन से अठखेलता है।
कुमुदनी की बंद पांखें इन्दु निशि में खोलता है।

प्रकृति रमणी नित्य नूतन कुसुम वसनों में संवरती
जूहि,चंपक ओ’ चमेली पुष्प छबि जन हृदय- हरती।
झिलमिलाते, टिमटिमाते हैं विपुल तारक गगन में
महकते सौरभ लुटाते सुमन मानव मैदिनी में।
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15.8.10

" आओ आज करें अभिनंदन" : डॉ. दयाराम आलोक

        

   "आओ आज करें अभिनंदन"


रचयिता -डॉ.दयाराम आलोक 


संविधान  की यह बाईसवीं
वर्ष गांठ हम मना रहे हैं.
जन गण मन में जोश बह रहा
गांव,गली,शहरों,बाजारों,
सभी जगह जन आंदोलित हैं

बच्चे कैसे आल्हादित हैं
आजादी का असली मतलब
शायद इन्हें अधिक मालूम है।

हर संस्था में तीव्र बाढ है
कार्यक्रमों की
ध्वज आरोहण
छात्र चल रहे पंक्ति बद्ध हो
नारे गगन प्रकंपित करते
भाषण,नाटक,नृत्य,प्रदर्शन
झूम रहा हर हिन्दुस्तानी

पर स्वतंत्रता
जिसको पाया
देश-भक्त सच्चे वीरों ने
अग्नि ज्वलित की जन मानस में--
"आजादी पैदाईश हक है"
मुझे खून दो आजादी लो"
अंग्रेजों छोडो भारत को"

बाल,लाल,पाल,
आजाद भगत सिंह,बोस
गांधी,नेहरू,वल्लभ भाई
अन्य कई बलिदान हुए
तब भारत की
आजादी आई।
साहस धैर्य,त्याग का जज्बा
जो उनमें था
अपनाना है।


लेकिन अब कुछ और हो रहा
बलिदानी भारत के बेटे
सत्ता को आराध्य मानकर
जूझ रहे हैं तन,मन,धन से
गांधी का प्यारा सत्याग्रह
अब होता है
स्वार्थपूर्ण लक्ष्यों के खातिर

प्रजातंत्र के अभिभावक गण
जनता के निर्वाचित नेता
मुक्के चला रहे सदनों में
किसके खातिर?

दाल गले वह दल अच्छा है
दल मानों पेडों की डालें
उछल रहे हैं डाल -डाल पर
बंदर सम मतवाले नेता।

रेल उलटना आग लगाना
बंद और चक्का जाम लगाना
संप्रदाय,भाषाई झगडे
नये धर्म बन गये देश के

शायद हम अब भी गुलाम हैं
वही क्रियाएं दुहर रही हैं
जो सैंतालिस पूर्व हुई थीं

गलत साध्य,
टुच्चे साधन हैं
चिंतन,मनन,त्याग,जनसेवा
सबसे अधिक जरूरी सदगुण
सबसे कम विकसित दिखते हैं।
आओ आज करें अभिनंदन
उत्साही तरुणों,युवकों का
राष्ट्र-धर्म को अंगीकार कर
बढें समुन्नत करें देश को

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3.3.10

उन्हें मनाने दो दीवाली: डॉ. दयाराम आलोक

                                                                                             
             

                                                
नवज्योति जयपुर अखबार में प्रकाशित डॉ.दयाराम आलोक की रचना-                      
                                                                               
नक्षत्रों की ज्योति मेघ का मुक्त हास धरती पर लाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

युग बीते जग देख रहा है चकाचौंध जगमग दीवाली,
युद्ध द्रश्य है इधर ज्योति और उधर तिमिर मावस मतवाली।
नष्ट करो मालिन्य प्रसारो उज्वलता जगती ने जाना,
शृंगारित घर आंगन गलियां हुआ नयन रंजक वीराना।


अंधियारे के अधिवासों पर आओ दीप शिखा लहराएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

बाहर की सुन्दरता देखी अब अंतर की आंखे खोलो
घृणा,ग्लानि,ईर्षा ,दुर्गुण सब स्नेह,सत्य,समता से धोलो।
दीवाली का रूप हो जिसमें हर अभाव वैभव को छूले,
सम्प्रदाय-विद्वेष,ढोंग और कलुशित वर्ग विषमता भूलें।

यह प्रकाश वेला अति पावन सौहार्द्रिक सद्भाव जगाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

ज्योतित जग में आज निहारो अश्रुपूर्ण लोचन कितने हैं,
वैभव के पोषक बेचारे दलित,क्षुधित पंजर कितने हैं।
हम न विचारें ऐसे मसले तब तक यह दीपक मेला है,
विस्फ़ोटक द्रव्यों से मानव खुश किन्तु प्रलय झेला है।


दयानंद,सुकरात दीप हैं जो सदियों तक राह दिखाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

तुम मत ऐसे दीप जलाओ जिससे अंधकार उकसाए,
लुत्फ़ उठाना ठीक नहीं जो मजबूरों के दिल तडफ़ाए।
उन्हें मनाने दो दीवाली जिन्हें न खुशियां रास हुई हैं,
उन खुशियों को जीवन दे दो जो खुशियां बर्बाद हुई हैं।

ज्योति पर्व आवाहन करता जन मन दर्पण स्वच्छ बानाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।
  
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