6.1.19

कवि सम्मेलन, टुकड़े-टुकड़े हूटिंग - शैल चतुर्वेदी

                        




एक कवि सम्मेलन में
ऐसे श्रोता मिल गए
जिनकी कृपा से
कवियों के कलेजे हिल गए

एक अधेड़ कवि ने जैसे ही गाया-
" उनका चेहरा गुलाब क्या कहिए।"
सामने से आवाज़ आई-
" लेके आए जुलाब क्या कहिए।"
और कवि जी
जुलाब का नाम सुनते ही
अपना पेट पकड़कर बैठ गए
दूसरे कवि ने माइक पर आते ही
भूमिका बनाई-
"न तो कवि हूँ
न कविता बनाता हूँ।"
आवाज़ आई-
"तो क्या बेवक़ूफ़ बनाता है भाई।"
कवि को पसीना आ गया
और वह घबराहट में
किसी और का गीत गा गया-
"जब-जब घिरे बदरिया कारी
नैनन नीर झरे।"
आवाज़ आई-"तुम भी कहाँ जाकर मरे
यह कविता तो
लखनऊ वाली कवयित्री की है।"
कवि बोला-"हमने ही उसे दी है।"
आवाज़ आई-"पहले तो पल्ला पकड़ते हो
और जब हाथ से निकल जाती है
तो हल्ला करते हो।"
संयोजक ने संचालक से कहा-
"कविता मत सुनवाओ
जिसके पास गला है
उसको बुलवाओ।"
गले वाला कवि मुस्कुराया
और जैसे ही उसने नमूना दिखाया-
चटक म्हारा चम्पा आई रे रूत थारी
कोई श्रोता चिल्लाया-
"किस लोक गीत से मारी।"
कवि बोला-"हमारी है हमारी
विश्वास ना हो तो संचालक से पूछ लो।"
संचालक बोला-"गाओ या मत गाओ
मैं झूठ नहीं बोलता
गवाही मुझसे मत दिलवाओ।"

संचालक ने दूसरे कवि से कहा-
"गोपालजी आप ही आइए
ये श्रोता रूपी कैरव
कविता को नंगा कर रहे हैं
लाज बचाइए।"

गोपालजी जैसे ही शुरू हुए-
"तू ही साक़ी
तू ही बोतल
तू ही पैमाना"
किसी ने पूछा-"गुरू!
ये कविसम्मेलन है या मैख़ाना।"
कवि बोला-"मैं खानदानी कवि हूँ
मुझसे मत टकराना"
आवाज़ आई-"क्या आप के बाप भी कवि थे।"
कवि बोला-"जी हाँ, थे
मगर आप ये क्यों पूछ रहे हैं।"
उत्तर मिला-"हम आपकी बेवक़ूफ़ी की जड़ ढूंढ रहे हैं।"

अबकी बार-
एक आशुकवि को उठाया गया-
उसने कहा-"आपने हमें कई बार सुना है।"
आवाज़ आई-"जी हाँ आपकी बकवास सुनकर
कई बार सिर धुना है"
कवि बोला-"संभलकर बोलना
हमारे पास कलेज़ा है
उपर से नीचे तक भेजा ही भेजा है।"
किसी ने पूछा-"आपको किसने भेजा है?"
कवि बोला-"हम बनारस में रहते हैं
रस हमारे यहाँ ही बनते है।"
उत्तर मिला-"यहाँ के श्रोता मुश्किल से बनते है
बकवास नहीं कविता सुनते है।"
कवि बोला-"कविता तो कविता
हम अख़बार तक को गा कर पढ़ सकते हैं
मंच पर ही नहीं
छाती पर भी चढ़ सकते है।"
आवाज़ आई -"यहा से दारासिंग भी
आड़ासिंग होकर गए है।"
कवि बोला-"हम दारासिंग नहीं हैं
दुधारासिंग हैं
दोनो तरफ धार रखते हैं
कवि होकर भी कार रखते हैं।"
संचालक बोला-"बेकार मुंह मत लड़ाओ
कविता हो तो सुनाओ।"
कवि ने संचालक को पलटकर कहा-
"अच्छा! हमारी बिल्ली हम से ही म्याऊँ
कविता क्या होती है सुनाऊँ
संचालक में छुपा है चालक
घुसा हुआ लक चालक में।"
कोई श्रोता बोला-"कविता छोड़ के
काम कीजिए
नौटंकी या नाटक में।"
कवि हाज़िर जवाब था
दूध की बोतल में शराब था
बोला-"जी हाँ!
नौटंकी या रामलीला में काम करेंगे
और आप जैसे तो चार बन्दर
हमारे हाथ मरेंगे।"
उत्तर मिला-आपकी बगल में बैठे हनुमानजी
हमारी सहायता करेंगे।
आशुकवि के बैठते ही
हास्य कवि ने मज़मा लगाया-
"लो आ गए हम सभा में
देखना अब रंग आएगा
कि रावण को चटाता धूल
अब बजरंग आएगा।"
कई श्रोता एक साथ चिल्लाए-
"बजरंग बली की जै"
कवि बोला-"जै बोल लो
य कविता सुन लो।"
उत्तर मिला-"कविता और आप
महापाप महापाप।"
कवि बोला-"पाप कहो या बाप
मैं नहीं बैठूंगा
गैर उठें तेरी महफ़िल से तो मैं बैठूं
शनीचर जब चला जाता है
तो इतवार आता है।"
आवाज़ आई-"इस शनिवार को तेल पिलाईए
और इतवार को बुलाइए।"
कवि बोला मैं ही इतवार हूँ।"
आवाज़ आई-"छुट्टी कीजिए
और सोमवार जी को आने दीजिए।"

सिमवार जी ने माइक पर आते ही
महिलाओं पर दृष्टी जमाई
और टाई को मोड़ते हुए
एक ग़ज़ल सुनाई।"
एक श्रोता बोला-"गला क्या है बांसुरी है।"
दूसरा बोला-ऊपर से नीचे तक छुरी है।"
तीसरे ने कहा-"वाकई खूब गाता है।"
चौथा बोला-"लेकिन महिलाओं को सुनाता है।"
कवि ने फौरन मक़ता पेश किया-
"हम दौरे इंक़लाब समझते हैं उसको मोम
ख़ाके ज़मीं के साथ अगर कहकशां चले।"
किसी ने तुक मारी-
"बदनाम करके प्रीतम मुझ को कहाँ चले।"
कवि ने स्वर बदला-
"रूप तुम्हारा मन में कस्तूरी बो गया।"
आवाज़ आई-"गीत पढ़ रहे हो
या खेती कर रहे हो।"
कवि बैठते हुए बोला-"ऐसा रिसपाँस मिलेगा
तो खेती ही करनी पड़ेगी।"

अब व्यंग्यकार को पुकारा गया-
नशे के आसमान से
ज़मीन पर उतारा गया
व्यंग्यकार ने माइक पकड़कर
लड़खड़ाते हुए कहा-
"देश लड़खड़ा रहा है, सम्भालो।"
आवाज़ आई-"थोड़ी सी और लगा लो।"
कवि बोला-"आप मेरा नहीं
हिन्दी साहित्य का अपमान कर रहें हैं।"
उत्तर मिला-"जी हाँ, ज्ञान का सारा आकाश
आप ही के कन्धो पर टिका है
और हिन्दी का सारा साहित्य
आप ही के नाम से बिका है।"
कवि बोला-"हम प्रमाण दे सकते हैं।"
आवाज़ आई-"क्यों नहीं,
आप 'गीतांजलि' को पी सकते हैं
'मेघदूत' को खा सकते हैं
और 'कामायनी' तक पर
उंगुली उठा सकते हैं।"
कवि बोला-"हमने दिल्ली से मद्रास तक
बड़े-बड़े मंचो को हिलाया हैं।
उत्तर मिला-"ये और कह दो
कि निराला को गोद में खिलाया है।"
व्यंग्यकार बैठते हुए बोला-
"अरे हट, ये भी कोई श्रोता हैं।"
कई बोला-"आप जैसो के लिये सरोता हैं।"

इतनी देर बाद संचालक को अक़्ल आई
तो उसने मंच पर अपनी माया फैलाई
कवयित्री की ग़ज़ल गूंजी।
"सुबह न आया, शाम न आया
उनका कोई पैगाम न आया।"
आवाज़ आई-"इंतज़ार बेकार हैं
पोस्टमैन बिमार है।"
कवयित्री बोली-"शोर मत मचाओ
दम है तो मंच पर आ जाओ।"
उत्तर मिला-"इक्यावन रूपये लूंगा।"
संयोजक बोला-"बहिन जी उसे रोकिए
मैं एक पैसा भी नहीं दूंगा।
वो लोकल कवि है
इक्यावन रूपये में बावन कविताएँ सुनाएगा
और मंच पर रखे हुए सारे पान
अकेले खा जएगा।"

संचालक ने हारकर धीरज जी को बुलाया
माइक नीचे झुकाया
मसनद नीचे लगाया
जी बोले-"मैं आ गया हूँ, बजाओ
तालियाँ बजाओ।"
कई आवाज़े एक साथ आई-
"पहले कव्वाली सुनाओ"
मुंह पर मुठ्ठी बांधकर
नज़ले को भीतर खींचते हुए
और दाँतो को भींचते हुए
जैसे ही धीरज जी शुरु हुए-
"छुपे रुस्तम है क़यामत की नज़र रखते हैं।"
आवाज़ आई-"व्हिस्की मिलती है कहाँ
इसकी खबर रखते हैं।"
धीरज ने कव्वाली रोकी
और सन्योजक से बोले-
"आप तो कह रहे थे यहाँ नहीं मिलती।"
सन्योजक बोला- "व्हिस्की नहीं, ठर्रा मिलता है।"
कविवर ऐश जी और बागी जी
एक साथ बोले-"मंगवा दो अपुन को चलता है।"
तभी संचालक ने घोषणा की-"आ गए, आ गए
कविवर नौटंकीलाल आ गए
मुश्किल से आ पाए है
ट्रेन छूट गई
प्लेन से आए हैं
देखिए वो आ रहे हैं
गलत मत समझियएगा
यात्रा की थकान है न
इसीलिए लड़खड़ा रहे हैं।"

चमचों से घिरे हुए
'शोर' मचाते
'पूरब को पश्चिम' से मिलाते
और 'क्रांती' के गीत गुनगुनाते
कविवर नौटंकीलाल
कवियों को दाँत दिखाकर
जनता की और घूम गए
और माइक को नायिका समझकर
उससे झूम गए
बोले-"हाँ तो मेरी जान, मेरे मीत
लो, सुन लो
मेरी नई-नई फ़िल्म का धांसू गीत
"अर र र र र र र हुर्र
मेरे दिल का पिंजरा छोड़ के
हो मत जाना फुर्र
अरे रे मेरी सोन चिरैया।"
आवाज़ आई-"यहाँ सब पढ़े लिखे है भैया।"

तभी कोई चिल्लाया-
"सांप, सांप, सांप।"
और सारा पंडाल
हो गया साफ
कवि सम्मेलन ध्वस्त होने के पश्चात
किसी कवि ने संचालक से पूछा-
"क्यों गुरू! जूतों का कहीं पता है।"
संचालक बोला-"जूतों को मारो गोली
सन्योजक लापता है।"
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किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

किडनी फेल रोगी का डाईट चार्ट और इलाज

प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने से पेशाब रुकावट की कारगर हर्बल औषधि

सिर्फ आपरेशन नहीं ,किडनी की पथरी की १००% सफल हर्बल औषधि

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ-शिवमंगल सिंह 'सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

हम पंछी उन्मुक्त गगन के-शिवमंगल सिंह 'सुमन'

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

साँसो का हिसाब -शिव मंगल सिंग 'सुमन"

राम की शक्ति पूजा -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ॰दयाराम आलोक

बिहारी कवि के दोहे

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

कबीर की साखियाँ - कबीर

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

बीती विभावरी जाग री! jai shankar prasad

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

रश्मिरथी - रामधारी सिंह दिनकर

सुदामा चरित - नरोत्तम दास

यह वासंती शाम -डॉ.आलोक

तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है.- डॉ॰दयाराम आलोक

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"

गायत्री शक्तिपीठ शामगढ़ मे बालकों को पुरुष्कार वितरण

कुलदेवी का महत्व और जानकारी

गांधी की गीता :शैल चतुर्वेदी

                          



गरीबों का पेट काटकर
उगाहे गए चंदे से
ख़रीदा गया शाल
देश (अपने) कन्धो पर डाल
और तीन घंटे तक
बजाकर गाल
मंत्री जी ने
अपनी दृष्टी का संबन्ध
तुलसी के चित्र से जोड़ा
फिर रामराज की जै बोलते हुए
(लंच नहीं) मंच छोड़ा
मार्ग में सचिव बोला-
"सर, आपने तो कमाल कर दिया
आज तुलसी जयंती है
और भाषण गांधी पर दिया।"

मूँछो में से होंठ बाहर निकालकर
सचिव की ओर
आध्यात्मिक दृष्टि डालकर
मंत्री जी ने
दिव्य नयन खोले
और मुस्कुराकर बोले-
"तुलसी और गांधी में
कैसे अंतर?
दोनों ही महात्मा
कट्टर धर्मात्मा
वे सतयुग के
ये कलयुग के
तुलसी ने रामायण लिखी
गांधी ने गीता
तुमने तुलसीकृत
वाल्मीकी रामायण पढ़ी है?
नहीं पढ़ी न!
मुझे भी समय नहीं मिलता
मगर सुना है-
आज़ादी कि रक्षा के लिए




2.1.19

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार:शिवमंगलसिंह सुमन




तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार 

                           
                             



तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

********************




मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ:शिवमंगल सिंह 'सुमन



मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ                      

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती
जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती
गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का
ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का ।
चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी ना मुझको स्वार्थपरता ।
इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं-
पथ नया अपना रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की
और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की
विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है
एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है ।
शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी
तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी
ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा
ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा ।
इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-
गीत नूतन गा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती
क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर ।
अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई ना अन्तर
मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर
वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर
कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर
इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-
मैं सुनाता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन
अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन
धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन
मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन ।
एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं
वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं
अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो
तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो
अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-
मैं भिगोता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ
यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ
सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता
भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता
पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है
कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है
'लाभ शुभ' लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने
और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने ।
बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी
यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी
चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी
हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी ।
नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-
गढ़ ढ़हाता जा रहा हूँ ।
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।।


हम पंछी उन्मुक्त गगन के:शिवमंगल सिंह 'सुमन'

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
                              





हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

***************

1.1.19

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

   


                                                

एक नन्हा मेमना
और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक सामने से आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी - कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!

इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।

2.
पानी से निकलकर
मगरमच्छ किनारे पर आया,
इशारे से
बंदर को बुलाया.
बंदर गुर्राया-
खों खों, क्यों,
तुम्हारी नजर में तो
मेरा कलेजा है?

मगरमच्छ बोला-
नहीं नहीं, तुम्हारी भाभी ने
खास तुम्हारे लिये
सिंघाड़े का अचार भेजा है.

बंदर ने सोचा
ये क्या घोटाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आने वाला है.
लेकिन प्रकट में बोला-
वाह!
अचार, वो भी सिंघाड़े का,
यानि तालाब के कबाड़े का!
बड़ी ही दयावान
तुम्हारी मादा है,
लगता है शेर के खिलाफ़
चुनाव लड़ने का इरादा है.

कैसे जाना, कैसे जाना?
ऐसे जाना, ऐसे जाना
कि आजकल
भ्रष्टाचार की नदी में
नहाने के बाद
जिसकी भी छवि स्वच्छ है,
वही तो मगरमच्छ है.

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

                           




(खेल में मग्न बच्चों को घर की सुध नहीं रहती)

माता पिता से मिला जब उसको प्रेम ना,
तो बाड़े से भाग लिया नन्हा सा मेमना।
बिना रुके बढ़ता गया, बढ़ता गया भू पर,
पहाड़ पर चढ़ता गया, चढ़ता गया ऊपर।

बहुत दूर जाके दिखा, उसे एक बछड़ा,
बछड़ा भी अकड़ गया, मेमना भी अकड़ा।
दोनों ने बनाए अपने चेहरे भयानक,
खड़े रहे काफी देर, और फिर अचानक—

पास आए, पास आए और पास आए,
इतने पास आए कि चेहरे पे सांस आए।
आंखों में देखा तो लगे मुस्कुराने,
फिर मिले तो ऐसे, जैसे दोस्त हों पुराने।

उछले कूदे नाचे दोनों, गाने गाए दिल के,
हरी-हरी घास चरी, दोनों ने मिल के।
बछड़ा बोला- मेरे साथ धक्कामुक्की खेलोगे?
मैं तुम्हें धकेलूंगा, तुम मुझे धकेलोगे।

कभी मेमना धकियाए, कभी बछड़ा धकेले,
सुबहा से शाम तलक. कई गेम खेले।
मेमने को तभी एक आवाज़ आई,
बोला— ये तो मेरी मैया रंभाई।

लेकिन कोई बात नहीं, अभी और खेलो,
मेरी बारी ख़त्म हुई, अपनी बारी ले लो।
सुध-बुध सी खोकर वे फिर से लगे खेलने,
दिन को ढंक दिया पूरा, संध्या की बेल ने।

पर दोनों अल्हड़ थे, चंचल अलबेले,
ख़ूब खेल खेले और ख़ूब देर खेले।
तभी वहां गैया आई बछड़े से बोली—
मालूम है तेरे लिए कितनी मैं रो ली।

दम मेरा निकल गया, जाने तू कहां है,
जंगल जंगल भटकी हूं, और तू यहां है!
क्या तूने, सुनी नहीं थी मेरी टेर?
बछड़ा बोला— खेलूंगा और थोड़ी देर!

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू,
उसका मन हुआ एक पल को जिज्ञासू।
जैसे गैया रोती है ले लेकर सिसकी,
ऐसे ही रोती होगी, बकरी मां उसकी।

फिर तो जी उसने खेला कोई भी गेम ना,
जल्दी से घर को लौटा नन्हा सा मेमना।
*********************



31.12.18

सूरदास के पद

                                    




मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥


प्रीति करि काहु सुख न लह्यो।
प्रीति पतंग करी दीपक सों, आपै प्रान दह्यो॥
अलिसुत प्रीति करी जलसुत सों, संपति हाथ गह्यो।
सारँग प्रीति करी जो नाद सों, सन्मुख बान सह्यो॥
हम जो प्रीति करि माधव सों, चलत न कछु कह्यो।
'सूरदास' प्रभु बिनु दुख दूनो, नैननि नीर बह्यो॥


राग विहाग

भाव भगति है जाकें
रास रस लीला गाइ सुनाऊं।
यह जस कहै सुनै मुख स्त्रवननि तिहि चरनन सिर नाऊं॥
कहा कहौं बक्ता स्त्रोता फल इक रसना क्यों गाऊं।
अष्टसिद्धि नवनिधि सुख संपति लघुता करि दरसाऊं॥
हरि जन दरस हरिहिं सम बूझै अंतर निकट हैं ताकें।
सूर धन्य तिहिं के पितु माता भाव भगति है जाकें॥

भावार्थ: विहाग राग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि मेरा मन चाहता है कि मैं भगवान् श्रीकृष्ण की रसीली रास लीलाओं का नित्य ही गान करूं। जो लोग भक्तिभाव से कृष्ण लीलाओं को सुनते हैं तथा अन्य लोगों को भी सुनाते हैं उनके चरणों में मैं शीश झुकाऊं। वक्ता व श्रोता अर्थात् कृष्ण लीलाओं का गान करने व अन्य को सुनाने के फल का मैं और क्या वर्णन करूं। इन सबका फल एक जैसा ही होता है। तब फिर इस जिह्वा से क्यों न कृष्ण लीलाओं का गान किया जाए। जो दीनभाव से इसका गान करता है, उसे अष्टसिद्धि व नव निधियां तथा सभी तरह की सुख-संपत्ति प्राप्त होती है। जिनका मन निर्मल है या जो हरिभक्त हैं, वह सबमें ही हरि स्वरूप देखते हैं। सूरदास कहते हैं कि वे माता-पिता धन्य हैं जिनकी संतानों में हरिभक्ति का भाव विद्यमान है।

राग काफी--तीन ताल ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।

सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥

उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥

निसिदिन बरसत नैन हमारे।

सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।

अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
'सूरदास' अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥

तिहारो दरस मोहे भावे श्री यमुना जी ।

श्री गोकुल के निकट बहत हो, लहरन की छवि आवे ॥१॥

सुख देनी दुख हरणी श्री यमुना जी, जो जन प्रात उठ न्हावे ।
मदन मोहन जू की खरी प्यारी, पटरानी जू कहावें ॥२॥
वृन्दावन में रास रच्यो हे, मोहन मुरली बजावे ।
सूरदास प्रभु तिहारे मिलन को, वेद विमल जस गावें ॥३॥


मधुकर! स्याम हमारे चोर।

मन हरि लियो सांवरी सूरत¸ चितै नयन की कोर।।

पकरयो तेहि हिरदय उर–अंतर प्रेम–प्रीत के जोर।
गए छुड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर।।
सोबत तें हम उचकी परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।
सूर¸ स्याम मुसकाहि मेरो सर्वस सै गए नंद किसोर।।

अंखियां हरि–दरसन की प्यासी।

देख्यौ चाहति कमलनैन कौ¸ निसि–दिन रहति उदासी।।
आए ऊधै फिरि गए आंगन¸ डारि गए गर फांसी।
केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृन्दावन के बासी।।
काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।।

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।

तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।

बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।
ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं।

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