कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं।कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुःख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं. -Dr.Dayaram Aalok,M.A.,Ayurved Ratna,D.I.Hom(London)
इस गाढे अंधेरे में यों तो हाथ को हाथ नहीं सूझता लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है : हत्यारों का बढता हुआ हुजूम, उनकी ख़ूंख़्वार आंखें, उसके तेज़ धारदार हथियार, उनकी भड़कीली पोशाकें मारने-नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह, उनके सधे-सोचे-समझे क़दम। हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिकमत नहीं है और न हमारी आंखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है। फिर भी हमको यह सब साफ़ नज़र आ रहा है। यह अजब अंधेरा है जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य। हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है और न ही अंतःकरण का कोई आलोक : यह हमारा विचित्र समय है जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के हमें गाढे अंधेरे में गुम भी कर रहा है और साथ ही उसमें जो हो रहा है वह दिखा रहा है : क्या कभी-कभार कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है?
संग संग चढ़ाऊँगी नंदजी की गैयाँ आठों पहर लूँगी तेरी बलैयाँ बन के रहूँगी छबीली तेरी छैयाँ मन के महल में रखूँगी नटखट तुझे लाखों जनम लाखों साल हो रे नंदलाल, रे नंदलाल मुझ को भी राधा बना ले नंदलाल
मुझको भी राधा बना ले नंदलाल
यशोदा की अँगना मैं दूँगी बुहारी तेरी मुरलिया को दूँगी न गारी
मटकी लुटा दूँगी माखन की सारी बंसी बजैया ... बंसी बजैया ओ रे कन्हैया मुझ को भी कर दे निहाल मुझको भी राधा ...
चरणों में तेरे लिपटके रहूँगी तेरा दिया हर सुख\-दुख सहूँगी छलिये तुझे कभी कुछ ना कहूँगी जमुना किनारे ... जमुना किनारे रखूँगी सजाके काया का केसरिया थाल
तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे तू बादल मैं बिजुरी, तू पंछी मैं पात रे
ना सरोवर, ना बावड़ी, ना कोई ठंडी छांव ना कोयल, ना पपीहरा, ऐसा मेरा गांव रे कहाँ बुझे तन की तपन, ओ सैयां सिरमोल रे चंद्र-किरन तो छोड़ कर, जाए कहाँ चकोर जाग उठी है सांवरे, मेरी कुआंरी प्यास रे (पिया) अंगारे भी लगने लगे आज मुझे मधुमास रे
तुझे आंचल मैं रखूँगी ओ सांवरे काली अलकों से बाँधूँगी ये पांव रे चल बैयाँ वो डालूं की छूटे नहीं मेरा सपना साजन अब टूटे नहीं मेंहदी रची हथेलियाँ, मेरे काजर-वाले नैन रे (पिया) पल पल तुझे पुकारते, हो हो कर बेचैन रे
ओ मेरे सावन साजन, ओ मेरे सिंदूर साजन संग सजनी बनी, मौसम संग मयूर चार पहर की चांदनी, मेरे संग बिठा अपने हाथों से पिया मुझे लाल चुनर उढ़ा केसरिया धरती लगे, अम्बर लालम-लाल रे अंग लगा कर साहिब रे, कर दे मुझे निहाल रे
स्वाभाविक नारी जन की लज्जा से वेष्टित, नित कर्म निष्ठ, अंगो की हृष्ट पुष्ट सुन्दर, श्रम से हैं जिसके क्षुधा काम चिर मर्यादित, वह स्वस्थ ग्राम नारी, नर की जीवन सहचर।
वह शोभा पात्र नहीं कुसुमादपि मृदुल गात्र, वह नैसर्गिक जीवन संस्कारों से चालित; सत्याभासों में पली न छायामूर्ति मात्र, जीवन रण में सक्षम, संघर्षों से शिक्षित।
वह वर्ग नारियों सी न सुज्ञ, संस्कृत कृत्रिम, रंजित कपोल भ्रू अधर, अंग सुरभित वासित; छाया प्रकाश की सृष्टि, --उसे सम ऊष्मा हिम, वह नहीं कुलों की काम वंदिनी अभिशापित!
स्थिर, स्नेह स्निग्ध है उसका उज्जवल दृष्टिपात, वह द्वन्द्व ग्रंथि से मुक्त मानवी है प्राकृत, नागरियों का नट रंग प्रणय उसको न ज्ञात,
, विभ्रम, अंग भंगिमा में अपठित।
उसमें यत्नों से रक्षित, वैभव से पोषित सौन्दर्य मधुरिमा नहीं, न शोभा सौकुमार्य, वह नहीं स्वप्नशायिनी प्रेयसी ही परिचित, वह नर की सहधर्मिणी, सदा प्रिय जिसे कार्य।
पिक चातक की मादक पुकार से उसका मन हो उठता नहीं प्रणय स्मृतियों से आंदोलित, चिर क्षुधा शीत की चीत्कारें, दुख का क्रंदन जीवन के पथ से उसे नहीं करते विचलित।
है माँस पेशियों में उसके दृढ़ कोमलता, संयोग अवयवों में, अश्लथ उसके उरोज, कृत्रिम रति की है नहीं हृदय में आकुलता, उद्दीप्त न करता उसे भाव कल्पित मनोज!
वह स्नेह, शील, सेवा, ममता की मधुर मूर्ति, यद्यपि चिर दैन्य, अविद्या के तम से पीड़ित, कर रही मानवी के अभाव की आज पूर्ति अग्रजा नागरी की,—यह ग्राम वधू निश्चित।
बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित, ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित! युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित, संस्कृतियों की ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित।
हिंस्र विजेताओं, भूपों के आक्रमणों की निर्दय जीर्ण हस्तलिपि यह नृशंस गृह संघर्षों की निश्चय! धर्मों का उत्पात, जातियों वर्गों का उत्पीड़न, इसमें चिर संकलित रूढ़ि, विश्वास, विचार सनातन। घर घर के बिखरे पन्नों में नग्न, क्षुधार्त कहानी, जन मन के दयनीय भाव कर सकती प्रकट न वाणी। मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मांतक सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक!
मनुष्यत्व के मूलतत्त्व ग्रामों ही में अंतर्हित, उपादान भावी संस्कृति के भरे यहाँ हैं अविकृत। शिक्षा के सत्याभासों से ग्राम नहीं हैं पीड़ित, जीवन के संस्कार अविद्या-तम में जन के रक्षित।