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22.12.18

मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ , 'क़मर' मुरादाबादी

                                      



मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मेरा दारूल-अमाँ है और मैं हूँ

हयात-ए-गम निशाँ है और मैं हूँ
मुसलसल इम्तिहाँ है और मैं हूँ

निगाह-ए-शौक है और उन के जलवे
शिकस्त-ए-नागहाँ है और मै हूँ

उसी का नाम हो शायद मोहब्बत
कोई बार-ए-गिराँ है और मैं हूँ

मोहब्बत बे-सहारा तो नहीं है
मेरा दर्द-ए-निहाँ है और मैं हूँ

मोहब्बत के फसाने अल्लाह अल्लाह
ज़माने की जबाँ है और मैं हूँ

‘कमर’ तकलीद का काइल नहीं मैं
मेरा तर्ज़-ए-बयाँ है और मैं हूँ

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