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25.12.18

बन्द करो मधु की ,गोपालदास "नीरज"




बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"




स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
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22.12.18

बन्द करो मधु की , गोपालदास "नीरज"

                                          




बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
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