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22.12.18

मेरी चुनरी उड़ाए लियो जाए / गोपाल सिंह नेपाली

मेरी चुनरी उड़ाए लियो जाए
उड़ाए लियो जाए फुलवारी की ठण्डी हवा

ठण्डी हवा जो चुनरी उड़ाए
गोरी ये मुखड़ा कहाँ छुपाए
भौरों की टोली नजर लगाए
ओ नज़र सबकी बचाए लियो जाए

मेरी चुनरी उड़ाए लियो जाए
उड़ाए लियो जाए फुलवारी की ठण्डी हवा

ठण्डी हवा में मन मेरा चंचल
बहियाँ पकड़ के हवा कहे चल-चल
चलोगी कैसे बजेगी पायल
ओ मेरी पायल बजाए लियो जाए

मेरी चुनरी उड़ाए लियो जाए
उड़ाए लियो जाये फुलवारी की ठण्डी हवा

जब मेरे मन की चमेली फूले
फागुन में खेले सावन में झूले
भादों में रानी रस्ता न भूले
ओ मेरे मन को भुलाए लियो जाए

मेरी चुनरी उड़ाए लियो जाए
उड़ाए लियो जाए फुलवारी की ठण्डी हवा
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मेरा धन है स्वाधीन क़लम , गोपाल सिंह नेपाली

                                                 





राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
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यह दिया बुझे नहीं , गोपाल सिंह नेपाली




            

घोर अंधकार हो,
चल रही बयार हो,
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ,
शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ,
यह स्वतंत्रता–दिया,
रूक रही न नाव हो
जोर का बहाव हो,
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है ।

यह अतीत कल्पना,
यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भावना,
यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो,
युद्ध¸ संधि¸ क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं,
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है ।


तीन–चार फूल है,
आस–पास धूल है,
बांस है –बबूल है,
घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर दे,
फूंक दे¸ चकोर दे,
कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं,
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।

झूम–झूम बदलियाँ
चूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहीं
हलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो,
यातना विशेष हो,
क्षुद्र जीत–हार पर¸ यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है ।
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बाबुल तुम बगिया के तरुवर , गोपाल सिंह नेपाली


बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ रे
दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे
बाबुल तुम बगिया के तरुवर …….

आँखों से आँसू निकले तो पीछे तके नहीं मुड़के
घर की कन्या बन का पंछी, फिरें न डाली से उड़के
बाजी हारी हुई त्रिया की
जनम -जनम सौगात पिया की
बाबुल तुम गूंगे नैना, हम आँसू की फुलझड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ ज्यों मोती की लडियाँ रे

हमको सुध न जनम के पहले , अपनी कहाँ अटारी थी
आँख खुली तो नभ के नीचे , हम थे गोद तुम्हारी थी
ऐसा था वह रैन -बसेरा
जहाँ सांझ भी लगे सवेरा
बाबुल तुम गिरिराज हिमालय , हम झरनों की कड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

छितराए नौ लाख सितारे , तेरी नभ की छाया में
मंदिर -मूरत , तीरथ देखे , हमने तेरी काया में
दुःख में भी हमने सुख देखा
तुमने बस कन्या मुख देखा
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो , हम कोमल पंखुड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

बचपन के भोलेपन पर जब , छिटके रंग जवानी के
प्यास प्रीति की जागी तो हम , मीन बने बिन पानी के
जनम -जनम के प्यासे नैना
चाहे नहीं कुंवारे रहना
बाबुल ढूंढ फिरो तुम हमको , हम ढूंढें बावरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

चढ़ती उमर बढ़ी तो कुल -मर्यादा से जा टकराई
पगड़ी गिरने के दर से , दुनिया जा डोली ले आई
मन रोया , गूंजी शहनाई
नयन बहे , चुनरी पहनाई
पहनाई चुनरी सुहाग की , या डाली हथकड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

मंत्र पढ़े सौ सदी पुराने , रीत निभाई प्रीत नहीं
तन का सौदा कर के भी तो , पाया मन का मीत नहीं
गात फूल सा , कांटे पग में
जग के लिए जिए हम जग में
बाबुल तुम पगड़ी समाज के , हम पथ की कंकरियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

मांग रची आंसू के ऊपर , घूंघट गीली आँखों पर
ब्याह नाम से यह लीला ज़ाहिर करवाई लाखों पर

नेह लगा तो नैहर छूता , पिया मिले बिछुड़ी सखियाँ
प्यार बताकर पीर मिली तो नीर बनीं फूटी अंखियाँ
हुई चलाकर चाल पुरानी
नयी जवानी पानी पानी
चली मनाने चिर वसंत में , ज्यों सावन की झाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

देखा जो ससुराल पहुंचकर , तो दुनिया ही न्यारी थी
फूलों सा था देश हरा , पर कांटो की फुलवारी थी
कहने को सारे अपने थे
पर दिन दुपहर के सपने थे
मिली नाम पर कोमलता के , केवल नरम कांकरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

वेद-शास्त्र थे लिखे पुरुष के , मुश्किल था बचकर जाना
हारा दांव बचा लेने को , पति को परमेश्वर जाना
दुल्हन बनकर दिया जलाया
दासी बन घर बार चलाया
माँ बनकर ममता बांटी तो , महल बनी झोंपड़िया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

मन की सेज सुला प्रियतम को , दीप नयन का मंद किया
छुड़ा जगत से अपने को , सिंदूर बिंदु में बंद किया
जंजीरों में बाँधा तन को
त्याग -राग से साधा मन को
पंछी के उड़ जाने पर ही , खोली नयन किवाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

जनम लिया तो जले पिता -माँ , यौवन खिला ननद -भाभी
ब्याह रचा तो जला मोहल्ला , पुत्र हुआ तो बंध्या भी
जले ह्रदय के अन्दर नारी
उस पर बाहर दुनिया सारी
मर जाने पर भी मरघट में , जल - जल उठी लकड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

जनम -जनम जग के नखरे पर , सज -धजकर जाएँ वारी
फिर भी समझे गए रात -दिन हम ताड़न के अधिकारी
पहले गए पिया जो हमसे अधम बने हम यहाँ अधम से
पहले ही हम चल बसें , तो फिर जग बाटें रेवड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे