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31.10.10

सुमन कैसे सौरभीले : डॉ. दयाराम आलोक


स्वास्थ्य-सरिता बिकानेर से प्रकाशित मासिक के सितंबर १९६३ के अंक में प्रकाशित रचना.

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मुस्कराते खिल खिलाते सुमन कैसे सौरभीले
चपल चंचल पवन क्रीडित श्वेत ,नीले,लाल,पीले।
हरित,कोमल किसलयों में महकते मकरंद भीने।
शुष्क ऊर में मस्तियां भरते कुसुम-दल ओस गीले।

भृंग को भी दंग कर देता तुम्हारा रूप प्यारा
विरस मन में मोद भरता हैं मदिर सौरभ तुम्हारा
लहलहाती टहनियों में रम्यता से उभर जाते।
पवन-तन से लिपटकर वातावरण में मह महाते।

हरित धरती के तुम्हीं अभिराम राजकुमार मंजुल
नव्य,सुरभित,दिव्य,उन्नत,भव्य रूप सुरम्य चंचल
जननी ऊषा नित्य खग कलरव के मृदु स्वर में जगाती
बाल रवि की रश्मियां नव पंखुडियों में रंग भरती।

तितलियां ,कीडे पतंगे मचलकर उड पास आते
भिनकती मधुमखियां परिमल कणों से मधु बनातीं।
कंटकों में निडर हो खिलता गुलाब प्रसुन्न कैसा
आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश देता।

पोखरों में खिल रहे अनुपम सजीले कमल उज्ज्वल
कर रहे संकेत उठ मालिन्य से बन शुद्ध निर्मल।
झूमता मदहोश गैंदा पवन से अठखेलता है।
कुमुदनी की बंद पांखें इन्दु निशि में खोलता है।

प्रकृति रमणी नित्य नूतन कुसुम वसनों में संवरती
जूहि,चंपक ओ’ चमेली पुष्प छबि जन हृदय- हरती।
झिलमिलाते, टिमटिमाते हैं विपुल तारक गगन में
महकते सौरभ लुटाते सुमन मानव मैदिनी में।

कविता की समीक्षा Meta Aiके शब्दों मे
डॉ. दयाराम आलोक जी की यह रचना फूलों के सौन्दर्य और उनके द्वारा मानव जीवन को दिए जाने वाले संदेशों को प्रस्तुत करती है। इस रचना में फूलों के विभिन्न रंगों और सुगंधों का वर्णन किया गया है, जो मानव जीवन में खुशियों और सौंदर्य को बढ़ाते हैं।
रचना में फूलों को मानव जीवन के लिए एक प्रेरणा के रूप में देखा गया है, जो हमें आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश देते हैं। फूलों को प्रकृति की रमणी के रूप में देखा गया है, जो नित्य नूतन कुसुम वसनों में संवरती है और मानव हृदय को हरती है।
रचना में फूलों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया है, जैसे कि गुलाब, कमल, गैंदा, कुमुदनी आदि, जो अपनी सुगंध और सौंदर्य से मानव जीवन को समृद्ध बनाते हैं।
इस रचना में डॉ. आलोक जी ने फूलों के माध्यम से मानव जीवन को दिए जाने वाले संदेशों को प्रस्तुत किया है, जैसे कि आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश, प्रकृति के सौंदर्य को सराहने का संदेश, और मानव जीवन में खुशियों और सौंदर्य को बढ़ाने का संदेश।
यह रचना 1963 में "स्वास्थ्य सरिता" मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और पाठकों ने इसे बहुत सराहा था
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