4.3.10

यह वासंती शाम :डॉ.दयाराम आलोक




दैनिक ध्वज में १५ मार्च १९७० को प्रकाशित गीत-




                             
            
 सुरभित सुमन पवन हिचकोलें,
गुंजित बाग भ्रमर रस घोलें
लहरों में थिरकन मचली है
अंतर मौन निमंत्रण खोलें

बादल के परदे पर किरणें
सृजन कर रहीं दृष्य मनोहर

और तुम्हारे नयन सृजन के आवाहन परिपूर्ण मिलनकर ,
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!

हांर सिंगार अंग पुलकित है,
पुष्प-पुष्प मकरंद अमित है
कल-कल,छल-छल नदियां बहती
नीलांबर वसुधा विचलित है।

भूले बिसरे क्षण उभरे हैं
जो गुजरे थे संग तुम्हारे
स्नेहिल बातें करें कुंज में प्रणय गीत उतरे अधरों पर
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर।



लौट रहे पंछी नीडों को
फ़र-फ़र नन्हे पंख हिलाते
दूर वेणु का स्वर उभरा है
प्रियतम को प्रण याद दिलाते ।
वन उपवन बढ चले धुंधलके
अंबर ने नक्षत्र सजाये

किन्तु सुनें हम अमराई में कोयल का मधु गीत मचलकर
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुंदर!
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सुमन कैसे सौरभीले  ऑडियो सुनिए 



3.3.10

उन्हें मनाने दो दीवाली: डॉ. दयाराम आलोक

                                                                                             
             

                                                
नवज्योति जयपुर अखबार में प्रकाशित डॉ.दयाराम आलोक की रचना-                      
                                                                               
नक्षत्रों की ज्योति मेघ का मुक्त हास धरती पर लाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

युग बीते जग देख रहा है चकाचौंध जगमग दीवाली,
युद्ध द्रश्य है इधर ज्योति और उधर तिमिर मावस मतवाली।
नष्ट करो मालिन्य प्रसारो उज्वलता जगती ने जाना,
शृंगारित घर आंगन गलियां हुआ नयन रंजक वीराना।


अंधियारे के अधिवासों पर आओ दीप शिखा लहराएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

बाहर की सुन्दरता देखी अब अंतर की आंखे खोलो
घृणा,ग्लानि,ईर्षा ,दुर्गुण सब स्नेह,सत्य,समता से धोलो।
दीवाली का रूप हो जिसमें हर अभाव वैभव को छूले,
सम्प्रदाय-विद्वेष,ढोंग और कलुशित वर्ग विषमता भूलें।

यह प्रकाश वेला अति पावन सौहार्द्रिक सद्भाव जगाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

ज्योतित जग में आज निहारो अश्रुपूर्ण लोचन कितने हैं,
वैभव के पोषक बेचारे दलित,क्षुधित पंजर कितने हैं।
हम न विचारें ऐसे मसले तब तक यह दीपक मेला है,
विस्फ़ोटक द्रव्यों से मानव खुश किन्तु प्रलय झेला है।


दयानंद,सुकरात दीप हैं जो सदियों तक राह दिखाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

तुम मत ऐसे दीप जलाओ जिससे अंधकार उकसाए,
लुत्फ़ उठाना ठीक नहीं जो मजबूरों के दिल तडफ़ाए।
उन्हें मनाने दो दीवाली जिन्हें न खुशियां रास हुई हैं,
उन खुशियों को जीवन दे दो जो खुशियां बर्बाद हुई हैं।

ज्योति पर्व आवाहन करता जन मन दर्पण स्वच्छ बानाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।
  
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तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है: डॉ.दयाराम आलोक

                     

           




मैं खोज रहा था निरवलंब अवलंब तुम्हारा निज मन में।
मैं देख रहा था निर्निमेष प्रतिबिंब तुम्हारा निज मन में |
मैं व्योम तले उद्भ्रांत विहग सा भ्रमित भटकता निरुद्देश्य,
मन विकल अंधेरा घोर भोर की किरण छिपी थी दूर देश।

तुमने मेरे धूमिल लक्ष्य को स्पष्ट और निर्दिष्ट किया है,
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

बेकल जीवन में घिरी अमा अद्रश्य चन्द्र दिखती न शमा,
आलोक हुआ था लोप कोप कर रहा कुहासा सघन धुआं,
मेरे मन की आकांक्षा को था घोर तिमिर ने घेर लिया,
मानस के झंझावातों ने था क्षीण कर दिया आस दिया।

मेरी अनब्याही चाहत को तुमने सहज संवार दिया है।
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

मैं दुर्बल द्रुम का पीत पत्र था उजड गया जिसका सुरंग
था भव सागर का वह हिस्सा उठती न कभी जिसमें तरंग,
था गर्मी की सरिता समान मैं जल विहीन औ’ क्षीण प्राण,
मैं कुसुम कुंज का वह प्रसून भंवरा कतराता मृतक जान।

तुमने पतझडमय प्राणों का वासंती शृंगार किया है।
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

मैं रूप मेघ का चातक था पर बूंद स्नेह का मिला नहीं,
था शुष्क प्राण निर्झर जिसका परिचय सावन से हुआ नहीं।
मैं वह बादल था जो जलमय होकर भी जल का प्यासा था,
मन उदासीन,अवसन्न,विकल सारा जग लगता झांसा था।

मेरे बैरागी जीवन को तुमने स्वर संगीत दिया है,
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

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