8.9.16

हिमालय के आँगन में - jay shankar prasad




हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक

विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत

बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह

धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान


जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

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बीती विभावरी जाग री! jai shankar prasad


बीती विभावरी जाग री!
-jay shankar prasad 



बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये,
अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री।
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31.10.10

जब तक धरती पर अंधकार :डॉ.दयाराम आलोक


                                    
                                      


जब तक धरती पर अन्धकार मैं दीप जलाता जाऊंगा |
मै दीन-हीन ,नैराश्य-हृदय में मंगल ज्योति जलाऊंगा।

मानवता अब भी आत्म रोग ,अविवेक तिमिर में लिपटी है
धरती के मानव की हलचल भौतिक -बंधन में सिमटी है।
अनुभुति नहीं आदर्शों की अवसरवादी सिद्धांत सबल
हर ज्योति-पुंज से नफ़रत है सब ओर तिमिर साम्राज्य प्रबल

मैं गर्दिश के अभिषप्त मनुज को जीवन-पथ दिखलाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

दीवाली पर दीपों की जगमग केवल रस्म निभाना है।
अपने घर-आंगन की सज-धज करलो आदर्श पुराना है।
पर कभी किसी ने इस जग मग से दूर कुटिर में झांका है?
उस घास फ़ूस की छत नीचे पंजर ने आटा फ़ांका है

मैं वैभव को एकांत अभावों का हमदर्द बनाऊंगा,
जब तक धरती पर अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

ऋषि दयानंद ने आडंबर-पाखण्ड-पुंज पिघलाया था,
अज्ञान ,अशिक्षा मे गाफ़िल जन को सद्मार्ग दिखाया था।
गांधी,ईसा,सुकरात बुद्ध ने जग जीवन निर्माण किया,
पर अघ-लिप्तों ने युग पुरुषों का कब कितना सम्मान किया?
मैं ज्योति जलाने वालों को जग का आदर्श बनाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

आलोक प्रशासन होते ही तम तुरत अंग सकुचाता है।
कच्छप गुणधारी तिमिर सदा अवसर पर घात लगाता है।
मायावी तम की हलचल में कितना मोहक आकर्षण है
सामान्य दीप के जीवन का अंधड से शक्ति परीक्षण है।

मैं बुझने वाले हर दीपक का संरक्षक बन जाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।
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सुमन कैसे सौरभीले : डॉ. दयाराम आलोक


स्वास्थ्य-सरिता बिकानेर से प्रकाशित मासिक के सितंबर १९६३ के अंक में प्रकाशित रचना.

                          


                         

मुस्कराते खिल खिलाते सुमन कैसे सौरभीले
चपल चंचल पवन क्रीडित श्वेत ,नीले,लाल,पीले।
हरित,कोमल किसलयों में महकते मकरंद भीने।
शुष्क ऊर में मस्तियां भरते कुसुम-दल ओस गीले।

भृंग को भी दंग कर देता तुम्हारा रूप प्यारा
विरस मन में मोद भरता हैं मदिर सौरभ तुम्हारा
लहलहाती टहनियों में रम्यता से उभर जाते।
पवन-तन से लिपटकर वातावरण में मह महाते।

हरित धरती के तुम्हीं अभिराम राजकुमार मंजुल
नव्य,सुरभित,दिव्य,उन्नत,भव्य रूप सुरम्य चंचल
जननी ऊषा नित्य खग कलरव के मृदु स्वर में जगाती
बाल रवि की रश्मियां नव पंखुडियों में रंग भरती।

तितलियां ,कीडे पतंगे मचलकर उड पास आते
भिनकती मधुमखियां परिमल कणों से मधु बनातीं।
कंटकों में निडर हो खिलता गुलाब प्रसुन्न कैसा
आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश देता।

पोखरों में खिल रहे अनुपम सजीले कमल उज्ज्वल
कर रहे संकेत उठ मालिन्य से बन शुद्ध निर्मल।
झूमता मदहोश गैंदा पवन से अठखेलता है।
कुमुदनी की बंद पांखें इन्दु निशि में खोलता है।

प्रकृति रमणी नित्य नूतन कुसुम वसनों में संवरती
जूहि,चंपक ओ’ चमेली पुष्प छबि जन हृदय- हरती।
झिलमिलाते, टिमटिमाते हैं विपुल तारक गगन में
महकते सौरभ लुटाते सुमन मानव मैदिनी में।
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23.10.10

गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ. दयाराम आलोक





गांधी जयंति 2 october 1968 , ध्वज में प्रकाशित कृति

.              

गांधी नैतिकता,कर्म,मुक्ति के बोधक थे.
वे सत्य,अहिंसा प्रेम शांति के पोषक थे.
"वह राजनीति निष्प्राण कि जिसमें धर्म नहीं"
और धर्म हीन शासन से जन कल्याण नहीं.


मानव -मानव थे तुल्य दृष्टि में गांधी के.
सब धर्म श्रेष्ठ थे उस मानवतावादी के.
वह आचारों की शुद्धि हेतु बल देता था.
और स्वयं कष्ट सह दुष्ट हृदय पिघलाता था

वे धीमी-धीमी क्रांति चाहने वाले थे.
उनके समाजवादी सिद्धांत निराले थे.
"धन तो भाई ईश्वर की एक धरोहर है"
"परमार्थ करो उपलब्ध तुम्हे यदि अवसर है"


जब वर्ष गांठ आये हम उनको याद करें.
केवल इतना करना मिथ्या विज्ञापन है.
जब तक समाज में ऊंच-नीच की बातें हैं
गांधी के प्रति हम लोगों का अंधापन है।.

पाखण्ड मत करो केवल सूत कताई का.
खद्दर लपेटकर मजा न लो नेताई का.
खद्दर के चद्दर से मत अपने पाप ढको.
निज अवलंबन को आडंबर का रूप न दो.


भारत में अब हिंसाएं और हडतालें हैं.
अब धर्म,प्रांत भाषा के प्रश्न उछालें हैं
गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं.
दु:ख है हमको केवल गांधीजी प्यारे हैं.
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सुमन कैसे सौरभीले ऑडियो सुनिए

15.8.10

" आओ आज करें अभिनंदन" : डॉ. दयाराम आलोक

        

   "आओ आज करें अभिनंदन"


रचयिता -डॉ.दयाराम आलोक 


संविधान  की यह बाईसवीं
वर्ष गांठ हम मना रहे हैं.
जन गण मन में जोश बह रहा
गांव,गली,शहरों,बाजारों,
सभी जगह जन आंदोलित हैं

बच्चे कैसे आल्हादित हैं
आजादी का असली मतलब
शायद इन्हें अधिक मालूम है।

हर संस्था में तीव्र बाढ है
कार्यक्रमों की
ध्वज आरोहण
छात्र चल रहे पंक्ति बद्ध हो
नारे गगन प्रकंपित करते
भाषण,नाटक,नृत्य,प्रदर्शन
झूम रहा हर हिन्दुस्तानी

पर स्वतंत्रता
जिसको पाया
देश-भक्त सच्चे वीरों ने
अग्नि ज्वलित की जन मानस में--
"आजादी पैदाईश हक है"
मुझे खून दो आजादी लो"
अंग्रेजों छोडो भारत को"

बाल,लाल,पाल,
आजाद भगत सिंह,बोस
गांधी,नेहरू,वल्लभ भाई
अन्य कई बलिदान हुए
तब भारत की
आजादी आई।
साहस धैर्य,त्याग का जज्बा
जो उनमें था
अपनाना है।


लेकिन अब कुछ और हो रहा
बलिदानी भारत के बेटे
सत्ता को आराध्य मानकर
जूझ रहे हैं तन,मन,धन से
गांधी का प्यारा सत्याग्रह
अब होता है
स्वार्थपूर्ण लक्ष्यों के खातिर

प्रजातंत्र के अभिभावक गण
जनता के निर्वाचित नेता
मुक्के चला रहे सदनों में
किसके खातिर?

दाल गले वह दल अच्छा है
दल मानों पेडों की डालें
उछल रहे हैं डाल -डाल पर
बंदर सम मतवाले नेता।

रेल उलटना आग लगाना
बंद और चक्का जाम लगाना
संप्रदाय,भाषाई झगडे
नये धर्म बन गये देश के

शायद हम अब भी गुलाम हैं
वही क्रियाएं दुहर रही हैं
जो सैंतालिस पूर्व हुई थीं

गलत साध्य,
टुच्चे साधन हैं
चिंतन,मनन,त्याग,जनसेवा
सबसे अधिक जरूरी सदगुण
सबसे कम विकसित दिखते हैं।
आओ आज करें अभिनंदन
उत्साही तरुणों,युवकों का
राष्ट्र-धर्म को अंगीकार कर
बढें समुन्नत करें देश को

*******

4.3.10

प्रणय-गीत : डॉ.दयाराम आलोक




हम तुम गीत प्रणय के गाएं
प्राण-प्राण योवन  महकाएँ

मोह न मन का घटने पाए
मेघ न स्नेहिल छंटने पाएं
हृदय खोल दें इक दूजे पर
उपालंभ झूठलाएं
हम तुम गीत प्रणय के गाएं


ऊर की अभिलाषाएं कुंठित
सृजन-विनाश हुए अनुबंधित
क्षुब्ध उदधि उत्ताल तरंगें
पथ प्रशस्त कर जाएं
हम तुम गीत प्रणय के गाएं


लतिका-विटप ग्रथित बंधन में
विचलित सुमन भ्रमर गुंजन में
हूक न कब तक उठे हृदय में
जब वसंत बौराए.
हम तुम गीत प्रणय के गाएं.

अधर कपोल प्रणय प्रण पालें
चक्षु चकोर नियम अपनालें
सब बंधन शैवाल बह चलें
स्नेह सलिल ढरकाएं
हम तुम गीत प्रणय के गाएं
**************

रात और प्रभात :डॉ.दयाराम आलोक


                     
                                           


                   
                                   
रात,
भयानक अंधकार है,
कलुषित उद्वेगों का पौषक.
पथिक,
चल रहा डरता-डरता,
कठिन डगर पर धीमे-धीमे.
मंजिल,
दूर नजर आती है
आकर्षक,सुन्दर,मन भावन

दीप,
जल रहा
झिल मिल-झिल मिल,
सघन तिमिर से सतत जूझता.
दीपक की लौ,
कहती-"संभलो,
क्यों दुष्कृत्यों में डूबे हो,
मैं गवाह हूं
देख रही हूं
नग्न कृत्य जो अभी हो रहा."

तिमिर,
कुपित हो उठा
"दिये की ये हिम्मत है?"
अंधड को आदेश
कुचलने का दे डाला.

दीप लडा,
बलिदान हो गया
लीन हो गई उसकी आत्मा,
उस अनंत में

जिसमें लाखों ज्वालाएं हैं
अगणित दीपक मालाएं हैं

अंधकार हंस दिया-
"शत्रु का हुआ सफ़ाया"
आत्म शक्ति से रहित
प्राणियों के घट-घट में
तिमिर प्रतिष्ठित सहज हो गया

पर यह क्रम
चल सका न लंबा
रवि ने अपना रथ दौडाया,
दुष्ट तिमिर अवसान हो गया
रवि के प्रबल रश्मि अस्त्रों से
जग ने कहा-
"प्रभात हो गया"
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