30.12.18

साँसो का हिसाब -शिव मंगल सिंग 'सुमन"




तुम जो जीवित कहलाने के हो आदी
तुम जिसको दफ़ना नहीं सकी बरबादी
तुम जिनकी धड़कन में गति का वन्दन है
तुम जिसकी कसकन में चिर संवेदन है
तुम जो पथ पर अरमान भरे आते हो
तुम जो हस्ती की मस्ती में गाते हो
तुम जिनने अपना रथ सरपट दौड़ाया
कुछ क्षण हाँफे, कुछ साँस रोककर गाया
तुमने जितनी रासें तानी, मोड़ी हैं
तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं
उनका हिसाब दो और करो रखवाली
कल आने वाला है साँसों का माली
कितनी साँसों की अलकें धूल सनी हैं
कितनी साँसों की पलकें फूल बनी हैं?
कितनी साँसों को सुनकर मूक हुए हो?
कितनी साँसों को गिनना चूक गये हो?
कितनी सांसें दुविधा के तम में रोयीं?
कितनी सांसें जमुहाई लेकर खोयीं?
जो सांसें सपनों में आबाद हुई हैं
जो सांसें सोने में बर्बाद हुई हैं
जो सांसें साँसों से मिल बहुत लजाईं
जो सांसें अपनी होकर बनी पराई
जो सांसें साँसों को छूकर गरमाई
जो सांसें सहसा बिछुड़ गईं ठंडाई
जिन साँसों को छल लिया किसी छलिया ने
उन सबको आज सहेजो इस डलिया में
तुम इनको निर्रखो परखो या अवरेखो
फिर साँस रोककर उलट पलट कर देखो
क्या तुम इन साँसों में कुछ रह पाये हो?
क्या तुम इन साँसों से कुछ कह पाये हो?
इनमें कितनी ,हाथों में गह सकते हो?
इनमें किन किन को अपनी कह सकते हो?
तुम चाहोगे टालना प्रश्न यह जी भर
शायद हंस दोगे मेरे पागलपन पर
कवि तो अदना बातों पर भी रोता है
पगले साँसों का भी हिसाब होता है?
कुछ हद तक तुम भी ठीक कह रहे लेकिन
सांसें हैं केवल नहीं हवाई स्पंदन
यह जो विराट में उठा बबंडर जैसा
यह जो हिमगिरि पर है प्रलयंकर जैसा
इसके व्याघातों को क्या समझ रहे हो?
इसके संघातों को क्या समझ रहे हो?
यह सब साँसों की नई शोध है भाई!
यह सब साँसों का मूक रोध है भाई
जब सब अंदर अंदर घुटने लगती है
जब ये ज्वालाओं पर चढ़कर जगती है
तब होता है भूकंप श्रृंग हिलते हैं
ज्वालामुखियों के वो फूट पड़ते हैं
पौराणिक कहते दुर्गा मचल रही है
आगन्तुक कहते दुनिया बदल रही है
यह साँसों के सम्मिलित स्वरों की बोली
कुछ ऐसी लगती नई नई अनमोली
पहचान जान में समय समय लगा करता है
पग पग नूतन इतिहास जगा करता है
जन जन का पारावार बहा करता है
जो बनता है दीवार ढहा करता है
सागर में ऐसा ज्वार उठा करता है
तल के मोती का प्यार तुला करता है
सांसें शीतल समीर भी बड़वानल भी
सांसें हैं मलयानिल भी दावानल भी
इसलिए सहेजो तुम इनको चुन चुन कर
इसलिए संजोओइनको तुम गिन गिन कर
अबतक गफ़लत में जो खोया सो खोया
अब तक अंतर में जो बोया सो बोया
अब तो साँसों की फ़सल उगाओ भाई
अब तो साँसों के दीप जलाओ भाई
तुमको चंदा से चाव हुआ तो होगा
तुमको सूरज ने कभी छुआ तो होगा?
उसकी ठंडी गरमी का क्या कर डाला?
जलनिधि का आकुल ज्वार कहाँ पर पाला?
मरुथल की उड़ती बालू का लेखा दो
प्याले अधर्रों की अकुलाई रेखा दो
तुमने पी ली कितनी संध्या की लाली?
ऊषा ने कितनी शबनम तुममें ढालीं?
मधुऋुतु को तुमने क्या उपहार दिया था?
पतझर को तुमने कितना प्यार किया था?
क्या किसी साँस की रगड़ ज्वाला में बदली?
क्या कभी वाष्प सी साँस बन गई बदली?
फिर बरसी भी तो कितनी कैसी बरसी?
चातकी बिचारी कितनी कैसी तरसी?
साँसों का फ़ौलादी पौरुष भी देखा?
कितनी साँसों ने की पत्थर पर रेखा
हर साँस साँस की देनी होगी गिनती
तुम इनको जोड़ों बैठ कहीं एकाकी
बेकार गईं जो उनकी कर दो बाक़ी
जो शेष बचे उनका मीजान लगा लो
जीवित रहने का अब अभिमान जगा लो
मृत से जीवित का अब अनुपात बता दो
साँसों की सार्थकता का मुझे पता दो
लज्जित क्यों होने लगा गुमान तुम्हारा?
क्या कहता है बोलो ईमानदार तुम्हारा?
तुम समझे थे तुम सचमुच मैं जीते हो
तुम ख़ुद ही देखो भरे या कि रीते हो
जीवन की लज्जा है तो अब भी चेतो
जो जंग लगी उनको ख़राद पर रेतो
जितनी बाक़ी हैं सार्थक उन्हें बना लो
पछताओ मत आगे की रक़म भुना लो
अब काल न तुमसे बाज़ी पाने पाये
अब एक साँस भी व्यर्थ न जाने पाये
तब जीवन का सच्चा सम्मान रहेगा
यह जिया न अपने लिए मौत से जीता
यह सदा भरा ही रहा न ढुलका रीता
****************

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रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह
राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,
लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,
राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,
उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,
अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,
विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,
रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,
मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,
वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,
गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,
उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,
जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।

लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;


फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,
हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,
जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,
चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"

कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?

सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"


कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।

क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।


यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"

कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।


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किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

किडनी फेल रोगी का डाईट चार्ट और इलाज

प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने से पेशाब रुकावट की कारगर हर्बल औषधि

सिर्फ आपरेशन नहीं ,किडनी की पथरी की १००% सफल हर्बल औषधि

हिन्दू मंदिरों और मुक्ति धाम को सीमेंट बैंच दान का सिलसिला

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ-शिवमंगल सिंह 'सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

हम पंछी उन्मुक्त गगन के-शिवमंगल सिंह 'सुमन'

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

साँसो का हिसाब -शिव मंगल सिंग 'सुमन"

राम की शक्ति पूजा -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ॰दयाराम आलोक

बिहारी कवि के दोहे

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

कबीर की साखियाँ - कबीर

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

बीती विभावरी जाग री! jai shankar prasad

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

रश्मिरथी - रामधारी सिंह दिनकर

सुदामा चरित - नरोत्तम दास

यह वासंती शाम -डॉ.आलोक

तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है.- डॉ॰दयाराम आलोक

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"

गायत्री शक्तिपीठ शामगढ़ मे बालकों को पुरुष्कार वितरण

कुलदेवी का महत्व और जानकारी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

                                       



झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर-कठोर-
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!

उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-
मेरे पागल बादल!

धँसता दलदल
हँसता है नद खल्-खल्
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।

देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से- इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

सिन्धु के अश्रु!
धारा के खिन्न दिवस के दाह!
विदाई के अनिमेष नयन!
मौन उर में चिह्नित कर चाह
छोड़ अपना परिचित संसार-

सुरभि का कारागार,
चले जाते हो सेवा-पथ पर,
तरु के सुमन!
सफल करके
मरीचिमाली का चारु चयन!
स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
अपना मुक्त विहार,

छाया में दुःख के अन्तःपुर का उद्घाचित द्वार
छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
जाते हो तुम अपने पथ पर,
स्मृति के गृह में रखकर
अपनी सुधि के सज्जित तार।

पूर्ण-मनोरथ! आए-
तुम आए;
रथ का घर्घर नाद
तुम्हारे आने का संवाद!
ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर!
सुरबालाओं के सुख स्वागत।
विजय! विश्व में नवजीवन भर,
उतरो अपने रथ से भारत!
उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
मौन कुटीर।

आज भेंट होगी-
हाँ, होगी निस्संदेह
आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह
आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमिक प्रवास,
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

सिन्धु के अश्रु!
धरा के खिन्न दिवस के दाह!
बिदाई के अनिमेष नयन!
मौन उर में चिन्हित कर चाह
छोड़ अपना परिचित संसार--
सुरभि के कारागार,
चले जाते हो सेवा पथ पर,
तरु के सुमन!
सफल करके
मरीचिमाली का चारु चयन।
स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
अपना मुक्त विहार,
छाया में दुख के
अंतःपुर का उद्घाटित द्वार
छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
जाते हो तुम अपने रथ पर,
स्मृति के गृह में रखकर
अपनी सुधि के सज्जित तार।
पूर्ण मनोरथ! आये--
तुम आये;
रथ का घर्घर-नाद
तुम्हारे आने का सम्वाद।
ऐ त्रिलोक-जित! इन्द्र-धनुर्धर!
सुर बालाओं के सुख-स्वागत!
विजय विश्व में नव जीवन भर,
उतरो अपने रथ से भारत!
उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
मौन कुटीर।
आज भेंट होगी--
हाँ, होगी निस्सन्देह,
आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह
आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास,
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से,
घर से क्रीड़ारत बालक-से,
ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार!
स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार!
अन्धकार-- घन अन्धकार ही
क्रीड़ा का आगार।
चौंक चमक छिप जाती विद्युत
तडिद्दाम अभिराम,
तुम्हारे कुंचित केशों में
अधीर विक्षुब्ध ताल पर
एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।
वर्ण रश्मियों-से कितने ही
छा जाते हैं मुख पर--
जग के अंतस्थल से उमड़
नयन पलकों पर छाये सुख पर;
रंग अपार
किरण तूलिकाओं से अंकित
इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; --
व्योम और जगती के राग उदार
मध्यदेश में, गुडाकेश!
गाते हो वारम्वार।
मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में
स्वरारोह, अवरोह, विघात,
मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि
छा लेती है गगन, श्याम कानन,
सुरभित उद्यान,
झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।
वधिर विश्व के कानों में
भरते हो अपना राग,
मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।

निरंजन बने नयन अंजन!
कभी चपल गति, अस्थिर मति,
जल-कलकल तरल प्रवाह,
वह उत्थान-पतन-हत अविरत
संसृति-गत उत्साह,
कभी दुख -दाह
कभी जलनिधि-जल विपुल अथाह--
कभी क्रीड़ारत सात प्रभंजन--
बने नयन-अंजन!
कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर
चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर,
झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,
सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहर--
अहे कार्य से गत कारण पर!
निराकार, हैं तीनों मिले भुवन--
बने नयन-अंजन!
आज श्याम-घन श्याम छवि
मुक्त-कण्ठ है तुम्हे देख कवि,
अहो कुसुम-कोमल कठोर-पवि!
शत-सहस्र-नक्षत्र-चन्द्र रवि संस्तुत
नयन मनोरंजन!
बने नयन अंजन!

तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया-
यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!
फिर-फिर!
बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र हुँकार।
अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर।
हँसते है छोटे पौधे लघुभार-
शस्य अपार,
हिल-हिल
खिल-खिल,
हाथ मिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते।
अट्टालिका नही है रे
आतंक-भवन,
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।
रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है।
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!


प्रेयसी-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला





घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।

खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग-भाव भर
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
किरण-सम्पात से।

दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
विचरते मञ्जु-मुख
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
उठी हुई उर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।

हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-
श्रृंगार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।

याद है, उषःकाल,-
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;

करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसंग,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक;
देख मैं रुक गयी:-
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।

दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।
अपनी ही दृष्टि में;
जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।

मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी,
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँधकर मैं रह गयी;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !

बँधी हुई तुमसे ही
देखने लगी मैं फिर-
फिर प्रथम पृथ्वी को;
भाव बदला हुआ-
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !

देखती हुई सहज
हो गयी मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई;
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई !

चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि !

सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द-
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
उनकी ही मैं हुई !

समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।
बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
तब तुम लघुपद-विहार
अनिल ज्यों बार-बार

वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।
अपने उस गीत पर
सुखद मनोहर उस तान का माया में,
लहरों में हृदय की
भूल-सी मैं गयी
संसृति के दुःख-घात,
श्लथ-गात, तुममें ज्यों
रही मैं बद्ध हो।

किन्तु हाय,
रूढ़ि, धर्म के विचार,
कुल, मान, शील, ज्ञान,
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,
घेर लेते बार-बार,
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
भिन्न-धर्मभाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।

किन्तु दिन रात का,
जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के !
अन्धकार था हृदय
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
गृह-जन थे कर्म पर।
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।

आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
जीवन की वीणा में,
सुनती थी मैं जिसे।
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
चल दी मैं मुक्त, साथ।
एक बार की ऋणी
उद्धार के लिए,
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।

पूर्ण मैं कर चुकी।
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,
जागती मैं रही,
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
**************

पाटीदार जाति की जानकारी

साहित्यमनीषी डॉ.दयाराम आलोक से इंटरव्यू

कुलदेवी का महत्व और जानकारी

ढोली(दमामी,नगारची ,बारेठ)) जाती का इतिहास

रजक (धोबी) जाती का इतिहास

जाट जाति की जानकारी और इतिहास

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

किडनी फेल रोगी का डाईट चार्ट और इलाज

प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने से पेशाब रुकावट की कारगर हर्बल औषधि

सिर्फ आपरेशन नहीं ,किडनी की पथरी की १००% सफल हर्बल औषधि

सायटिका रोग की रामबाण हर्बल औषधि

बांछड़ा जाती की जानकारी

नट जाति की जानकारी

बेड़िया जाति की जानकारी

सांसी जाती का इतिहास

हिन्दू मंदिरों और मुक्ति धाम को दयाराम अलोक द्वारा सीमेंट बैंच दान का सिलसिला

जांगड़ा पोरवाल समाज की गोत्र और भेरुजी के स्थल

रैबारी समाज का इतिहास ,गोत्र एवं कुलदेवियां

कायस्थ समाज की कुलदेवियाँ


आत्‍मकथ्‍य - जयशंकर प्रसाद

                                 



मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्‍ज्‍वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसतने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्‍वप्‍न देकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्‍या कर जो भाग गया।
जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्‍दर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्‍मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्‍यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?
क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।

29.12.18

बिहारी कवि के दोहे





रीति काल के कवियों में बिहारी प्रायः सर्वोपरि माने जाते हैं। बिहारी सतसई उनकी प्रमुख रचना हैं। इसमें ७१३ दोहे हैं। किसी ने इन दोहों के बारे में कहा हैः

सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।

(नावक = एक प्रकार के पुराने समय का तीर निर्माता जिसके तीर देखने में बहुत छोटे परन्तु बहुत तीखे होते थे} , दोहरा = दोहा)

बिहारी शाहजहाँ के समकालीन थे और राजा जयसिंह के राजकवि थे। राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद अपनी नव-वधू के प्रेम में राज्य की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे थे तब बिहारी ने उन्हें यह दोहा सुनाया थाः

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।

अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।

(श्लेष अलंकारः अली = राजा, भौंरा; कली = रानी, पुष्प की कली)

कहते हैं कि बात राजा की समझ में आ गई और उन्होंने फिर से राज्य पर ध्यान देना शुरू कर दिया। जयसिंह शाहजहाँ के अधीन राजा थे। एक बार शाहजहाँ ने बलख पर हमला किया जो सफल नही रहा और शाही सेना को वहाँ से निकालना मुश्किल हो गया। कहते हैं कि जयसिंह ने अपनी चतुराई से सेना को वहाँ से कुशलपूर्वक निकाला। बिहारी ने लिखा हैः

घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।

पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।

( चुरी = चूड़ी, राति = रक्षा करके, जयसाहि = राजा जयसिंह)




बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों ने भक्ति की कवितायें लिखी हैं किन्तु वे भक्ति से कम काव्य की चातुरी से अधिक प्रेरित हैं। किसी रीतिकालीन कवि ने लिखा हैः आगे के सुकवि रीझिहैं चतुराई देखि, राधिका कन्हाई सुमिरन को तो इक बहानो है। बिहारी का एक दोहा हैः

मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।

यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।

(काछनी = धोती की काँछ, यहि बानिक = इसी तरह)


सतसई का प्रथम दोहा हैः

मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।

जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।

(झाँई = छाया, स्याम = श्याम, दुति = द्युति = प्रकाश)

राधा जी के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने लगते है। दूसरा अर्थ है कि राधा की छाया पड़ने से कृष्ण हरित (प्रसन्न) हो उठते हैं। श्लेष अलंकार का सुन्दर उदाहरण है।


बिहारी का एक बड़ा प्रसिद्ध दोहा है:

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।

को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥

अर्थात: यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनमें क्यों न गहरा प्रेम हो, एक वृषभानु की पुत्री हैं, दूसरे बलराम के भाई हैं। दूसरा अर्थ है: एक वृषभ (बैल) की अनुजा (बहन) हैं और दूसरे हलधर (बैल) के भाई हैं। यहाँ श्लेष अलंकार है।

बिहारी शहर के कवि हैं। ग्रामीणों की अरसिकता की हँसी उड़ाते हैं। जब गंधी (इत्र बेचने वाला) गाँव में इत्र बेचने जाता है तो सुनिये क्या होता हैः

करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।

रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।

(फुलेल = इत्र, सराहि = सराहना करके, इतर = इत्र, काँहि = किसको)

कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।

गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।

(गँवई = छोटा गाँव, गाहक = ग्राहक)




इसी तरह जब गाँव में गुलाब खिलता है तो क्या होता हैः

वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।

फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।

(नागर = नागरिक, आब = इज्जत)


नायिका के वर्णन में बिहारी कभी कभी अतिशयोक्ति का उपयोग करते हैं:

काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन, आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा


यानी कि: ये सुहागन काजल न लगा, कहीं तेरी उँगली तेरी गँड़ासे जैसी आँख की कोर से कट न जाये। गँड़ासे से जानवरों का चारा काटा जाता है।


और सुनियेः

सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।

बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।

यानी कि विरहिणी नायिका की श्वास से माघ के महीने में भी उस गाँव में लू चलती है। विरहिणी क्या हुई, लोहार की धौंकनी हो गई!

विरहिणी अपनी सखी से कहती हैः

मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।

कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।

यानी कि मैं ही पागल हूँ या सारा गाँव पागल है। ये कैसे कहते हैं कि चन्द्रमा का नाम शीतकर (शीतल करने वाला) है? तुलना करिये तुलसीदास जी की चौपाई से। अशोकवन में सीता जी कहती हैं: पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानुँहि मोहि जानि बिरहागी। अर्थात्: मुझको विरहिणी जानकर अग्निमय चन्द्रमा भी अग्नि की वर्षा नहीं करता।

कुछ दोहे नीति पर भी हैं, जैसेः

कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।

नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।

अर्थात् कोई कितना भी प्रयत्न करे किन्तु मनुष्य के स्वभाव में अन्तर नहीं पड़ता। नल के बल से पानी ऊपर तो चढ़ जाता है किन्तु फिर भी अपने स्वभाव के अनुसार नीचे ही बहता है।

इस लेख को बिहारी के दो दोहों के साथ समाप्त करता हूँ जिनमें वे भगवान को उलाहना दे रहे हैं:

नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि,

तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।

अर्थात् : हे भगवान लगता है आब आपको आनाकानी अच्छी लगने लगी है और हमारी पुकार फीकी हो गई है। लगता है कि एक बार हाथी को तार कर तारने का यश छोड़ ही दिया है।

कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।

तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।

अर्थात्: हे श्याम, मैं कब से दीन होकर तुम्हें पुकार रहा हूँ किन्तु आप मेरी सहायता नहीं कर रहे हैं। हे जग-गुरु, जगनायक क्या आपको भी इस संसार की हवा लग गई है?

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥

अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥



या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥

पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥

कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥

इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥

सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥

बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस॥

गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥

पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहै, आनन-ओप उजास॥

कहति नटति रीझति खिझति, मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

छला छबीले लाल को, नवल नेह लहि नारि।
चूमति चाहति लाय उर, पहिरति धरति उतारि।

सघन कुंज घन, घन तिमिर, अधिक ऍंधेरी राति।
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति॥

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय॥


कर लै चूमि चढाइ सिर, उर लगाइ भुज भेंटि।
लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥

कहत सबै, बेंदी दिये, ऑंक हस गुनो होत।
तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥

कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥


कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ॥

दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥

पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले सु भली करी, भले बने हौ लाल॥

अंग-अंग नग जगमगैं, दीपसिखा-सी देह।
दियो बढाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह॥

रूप सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न।
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैन॥

तर झरसी, ऊपर गरी, कज्जल-जल छिरकाइ।
पिय पाती बिन ही लिखी, बाँची बिरह-बलाइ॥

भूषन भार सँभारिहै, क्यों यह तन सुकुमार।
सूधे पाय न परत हैं, सोभा ही के भार॥

लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरब गरूर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥


मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥

इत आवति चलि जाति उत, चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।

भूषन भार सँभारिहै, क्यौं इहि तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।

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झुकी कमान : चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'


              

             

      (1)

आए प्रचंड रिपु, शब्द सुन उन्हीं का,
भेजी सभी जगह एक झुकी कमान
ज्यों युद्ध चिह्न समझे सब लोग धाए,
त्यों साथ थी कह रही यह व्योम वाणी -
'सुना नहीं क्या रणशंखनाद ?
चलो पके खेत किसान छोड़ो
पक्षी इन्हें खाएँ, तुम्हें पड़ा क्या?
भाले भिदाओ, अब खड्ग खोलो
हवा इन्हें साफ किया करेगी -
लो शस्त्र, हो लालन देश छाती
स्वाधीन का सुत किसान सशस्त्र दौड़ा
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी

(2)

उठा पुरानी तलवार लीजै
स्वतंत्र छूटें अब बाघ भालू,
पराक्रमी और शिकार कीजै
बिना सताए मृग चौकड़ी लें
लो शस्त्र, हैं शत्रु समीप आए
आया सशस्त्र, तज के मृगया अधूरी,
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी

(3)

ज्योंनार छोड़ो सुख की रई सी
गीतांत की बात न वीर जोहो
चाहे घना झाग सूरा दिखावै
प्रकाश में सुंदरि नाचती हों
प्रासाद छोड़, सब छोड़ दौड़ो,
स्वदेश के शत्रु अवश्य मारो,
सरदार के शत्रु अवश्य मारो,
सरदार ने धनुष ले, तुरही बजाई
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी

(4)

राजन! पिता की वीरता को,
कुंजों, किलों में सब गा रहे हैं
गोपाल बैठे जहाँ गीत गावैं,
या भाट वीणा झनका रहे हैं
अफीम छोड़ो कुल शत्रु आए
नया तुम्हारा यश भार पावैं
बंदूक ले नृपकुमार बना सुनेता,
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी

(5)

छोड़ो अधूरा अब यज्ञ ब्रह्मण
वेदांत-पारायण को बिसारो
विदेश ही का बलिवैश्वदेव,
औ तर्पनों में रिपु-रक्त दारो
शस्त्रार्थ शास्त्रार्थ गिनो अभी से -
चलो दिखाओ, हम अग्रजन्मा,
धोती सम्हाल, कुश छोड़, सबाण दौड़े
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी
(6)

माता न रोको निज पुत्र आज,
संग्राम का मोद उसे चखाओ
तलवार भाले निज को दिखाओ
तू सुंदरी ले प्रिय से विदाई
स्वदेश माँगे उनकी सहाई
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी
है सत्य की विजय, निश्चय बात जानी,
है जन्मभूमि जिनको जननी समान,
स्वातंत्र्य है प्रिय जिन्हें शुभ स्वर्ग से भी
अन्याय की जकड़ती कटु बेड़ियों को
विद्वान वे कब समीप निवास देंगे?