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22.2.19

पथहारा वक्तव्य - अशोक वाजपेयी




हमें पता था
कि खाली हाथ और टूटे हथियार लिए
शिविर में लौटना होगा:
यह भी कि हम जैसे लोग
कभी जीत नहीं पाए-
वे या तो हारते हैं
या खेत रहते हैं-
हम सिर्फ बचे हुए हैं
इस शर्म से कि हमने चुप्पी नहीं साधी,
कि हमने मोर्चा सम्हालने से पहले या हारने के बाद
न तो समर्पण किया, न समझौता:
हम लड़े, हारे और बचे भर हैं!
यह कोई वीरगाथा नहीं है:
इतिहास विजय की कथाएं कहता है,
उसमें प्रतिरोध और पराजय के लिए जगह नहीं होती।
लोग हमारी मूढ़ता पर हंसते हैं-
हमेशा की तरह
वे विजेताओं के जुलूस में
उत्साह से शामिल हैं-
हम भी इस भ्रम से मुक्त होने की कोशिश में हैं
कि हमने अलग से कोई साहस दिखाया:
हम तो कविता और अंत:करण के पाले में रहे
जो आदिकाल से युद्धरत हैं, रहेंगे!
हम पथहारे हैं
पर पथ हमसे कहीं आगे जाता है।
****************

यूट्यूब विडिओ की प्लेलिस्ट -


*भजन, कथा ,कीर्तन के विडिओ

*मंदिरों की बेहतरी हेतु डॉ आलोक का समर्पण भाग 1:-दूधाखेडी गांगासा,रामदेव निपानिया,कालेश्वर बनजारी,पंचमुखी व नवदुर्गा चंद्वासा ,भेरूजी हतई,खंडेराव आगर

*जाति इतिहास : Dr.Aalok भाग २ :-कायस्थ ,खत्री ,रेबारी ,इदरीसी,गायरी,नाई,जैन ,बागरी ,आदिवासी ,भूमिहार

*मनोरंजन ,कॉमेडी के विडिओ की प्ले लिस्ट

*जाति इतिहास:Dr.Aalok: part 5:-जाट,सुतार ,कुम्हार,कोली ,नोनिया,गुर्जर,भील,बेलदार

*जाति इतिहास:Dr.Aalok भाग 4 :-सौंधीया राजपूत ,सुनार ,माली ,ढोली, दर्जी ,पाटीदार ,लोहार,मोची,कुरेशी

*मुक्ति धाम अंत्येष्टि स्थलों की बेहतरी हेतु डॉ.आलोक का समर्पण ,खण्ड १ :-सीतामऊ,नाहर गढ़,डग,मिश्रोली ,मल्हार गढ़ ,नारायण गढ़

*डॉ . आलोक का काव्यालोक

*दर्जी समाज के आदि पुरुष  संत दामोदर जी महाराज की जीवनी 

*मुक्ति धाम अंत्येष्टि स्थलों की बेहतरी हेतु डॉ .आलोक का समर्पण भाग 1 :-मंदसौर ,शामगढ़,सितामऊ ,संजीत आदि

कितने दिन और बचे हैं? - अशोक वाजपेयी




कोई नहीं जानता कि
कितने दिन और बचे हैं?

चोंच में दाने दबाए
अपने घोंसले की ओर
उड़ती चिड़िया कब सुस्ताने बैठ जाएगी
बिजली के एक तार पर और
आल्हाद से झूलकर छू लेगी दूसरा तार भी।

वनखंडी में
आहिस्ता-आहिस्ता एक पगडंडी पार करता
कीड़ा आ जाएगा
सूखी लकड़ियाँ बीनती
बुढ़िया की फटी चप्पल के तले।

रेल के इंजन से निकलती
चिनगारी तेज़ हवा में उड़कर
चिपक जाएगी
एक डाल पर बैठी प्रसन्न तितली से।

कोई नहीं जानता कि
किनता समय और बचा है
प्रतीक्षा करने का
कि प्रेम आएगा एक पैकेट में डाक से,
कि थोड़ी देर और बाक़ी है
कटहल का अचार खाने लायक होने में,
कि पृथ्वी को फिर एक बार
हरा होने और आकाश को फिर दयालु और
उसे फिर विगलित होने में
अभी थोड़ा-सा समय और है।

दस्तक होगी दरवाज़े पर
और वह कहेगी कि
चलो, तुम्हारा समय हो चुका।
कोई नहीं जानता कि
कितना समय और बचा है,
मेरा या तुम्हारा।

वह आएगी –
जैसे आती है धूप
जैसे बरसता है मेघ
जैसे खिलखिलाती है
एक नन्हीं बच्ची
जैसे अंधेरे में भयातुर होता है
ख़ाली घर।
वह आएगी ज़रूर,
पर उसके आने के लिए
कितने दिन और बचे है
कोई नहीं जानता।

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31.12.18

गाढे अंधेरे में , अशोक वाजपेयी

                          



इस गाढे अंधेरे में
यों तो हाथ को हाथ नहीं सूझता
लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है :
हत्यारों का बढता हुआ हुजूम,
उनकी ख़ूंख़्वार आंखें,
उसके तेज़ धारदार हथियार,
उनकी भड़कीली पोशाकें
मारने-नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह,
उनके सधे-सोचे-समझे क़दम।
हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिकमत नहीं है
और न हमारी आंखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।
फिर भी हमको यह सब साफ़ नज़र आ रहा है।
यह अजब अंधेरा है
जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है
जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य।
हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है
और न ही अंतःकरण का कोई आलोक :
यह हमारा विचित्र समय है
जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के
हमें गाढे अंधेरे में गुम भी कर रहा है
और साथ ही उसमें जो हो रहा है
वह दिखा रहा है :
क्या कभी-कभार कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है?

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