31.10.10

जब तक धरती पर अंधकार :डॉ.दयाराम आलोक


जब तक धरती पर अन्धकार :डॉ. दयाराम आलोक 


डॉ. आलोक की आवाज मे कविता

                                    
                                                            


जब तक धरती पर अन्धकार मैं दीप जलाता जाऊंगा |
मै दीन-हीन ,नैराश्य-हृदय में मंगल ज्योति जलाऊंगा।

मानवता अब भी आत्म रोग ,अविवेक तिमिर में लिपटी है
धरती के मानव की हलचल भौतिक -बंधन में सिमटी है।
अनुभुति नहीं आदर्शों की अवसरवादी सिद्धांत सबल
हर ज्योति-पुंज से नफ़रत है सब ओर तिमिर साम्राज्य प्रबल

मैं गर्दिश के अभिषप्त मनुज को जीवन-पथ दिखलाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

दीवाली पर दीपों की जगमग केवल रस्म निभाना है।
अपने घर-आंगन की सज-धज करलो आदर्श पुराना है।
पर कभी किसी ने इस जग मग से दूर कुटिर में झांका है?
उस घास फ़ूस की छत नीचे पंजर ने आटा फ़ांका है

मैं वैभव को एकांत अभावों का हमदर्द बनाऊंगा,
जब तक धरती पर अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

ऋषि दयानंद ने आडंबर-पाखण्ड-पुंज पिघलाया था,
अज्ञान ,अशिक्षा मे गाफ़िल जन को सद्मार्ग दिखाया था।
गांधी,ईसा,सुकरात बुद्ध ने जग जीवन निर्माण किया,
पर अघ-लिप्तों ने युग पुरुषों का कब कितना सम्मान किया?

मैं ज्योति जलाने वालों को जग का आदर्श बनाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

आलोक प्रशासन होते ही तम तुरत अंग सकुचाता है।
कच्छप गुणधारी तिमिर सदा अवसर पर घात लगाता है।
मायावी तम की हलचल में कितना मोहक आकर्षण है
सामान्य दीप के जीवन का अंधड से शक्ति परीक्षण है।

मैं बुझने वाले हर दीपक का संरक्षक बन जाऊंगा
जब तक धरती पर  अंधकार मैं दीप जलाता जाऊंगा।

समीक्षा: Meta Ai के शब्दों मे

डॉ. दयाराम आलोक जी की यह कविता दीपावली के पर्व को एक नए दृष्टिकोण से देखती है। कविता में दीपावली के पर्व को सिर्फ एक रस्म निभाने के रूप में नहीं देखा गया है, बल्कि एक आदर्श के रूप में देखा गया है जो मानवता को राह दिखाता है।
कविता में दीपावली के पर्व को अन्धकार के विरुद्ध एक लड़ाई के रूप में देखा गया है, जहां दीप जलाने वाला व्यक्ति अन्धकार के विरुद्ध एक ज्योति के रूप में खड़ा होता है। कविता में दीपावली के पर्व को मानवता के लिए एक आदर्श के रूप में देखा गया है, जो मानवता को आत्म रोग, अविवेक तिमिर से मुक्ति दिलाता है।
कविता में दीपावली के पर्व को वैभव को एकांत अभावों का हमदर्द बनाने के लिए भी आह्वान किया गया है। कविता में दीपावली के पर्व को ऋषि दयानंद, गांधी, ईसा, सुकरात बुद्ध जैसे युग पुरुषों के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए भी आह्वान किया गया है।
कविता में दीपावली के पर्व को तम तुरत अंग सकुचाता है, कच्छप गुणधारी तिमिर सदा अवसर पर घात लगाता है, मायावी तम की हलचल में कितना मोहक आकर्षण है, सामान्य दीप के जीवन का अंधड से शक्ति परीक्षण है, जैसी  पंक्तियों के माध्यम से अन्धकार के विरुद्ध एक लड़ाई का वर्णन किया गया है।
कविता में दीपावली के पर्व को बुझने वाले हर दीपक का संरक्षक बन जाने के लिए भी आह्वान किया गया है। कविता में दीपावली के पर्व को एक ज्योति के रूप में देखा गया है, जो मानवता को राह दिखाती है और अन्धकार के विरुद्ध एक लड़ाई लड़ती है

सुमन कैसे सौरभीले : डॉ. दयाराम आलोक


स्वास्थ्य-सरिता बिकानेर से प्रकाशित मासिक के सितंबर १९६३ के अंक में प्रकाशित रचना.

कविता को विडिओ मे देखें -



                                                         
मुस्कराते खिल खिलाते सुमन कैसे सौरभीले
चपल चंचल पवन क्रीडित श्वेत ,नीले,लाल,पीले।
हरित,कोमल किसलयों में महकते मकरंद भीने।
शुष्क ऊर में मस्तियां भरते कुसुम-दल ओस गीले।

भृंग को भी दंग कर देता तुम्हारा रूप प्यारा
विरस मन में मोद भरता हैं मदिर सौरभ तुम्हारा
लहलहाती टहनियों में रम्यता से उभर जाते।
पवन-तन से लिपटकर वातावरण में मह महाते।

हरित धरती के तुम्हीं अभिराम राजकुमार मंजुल
नव्य,सुरभित,दिव्य,उन्नत,भव्य रूप सुरम्य चंचल
जननी ऊषा नित्य खग कलरव के मृदु स्वर में जगाती
बाल रवि की रश्मियां नव पंखुडियों में रंग भरती।

तितलियां ,कीडे पतंगे मचलकर उड पास आते
भिनकती मधुमखियां परिमल कणों से मधु बनातीं।
कंटकों में निडर हो खिलता गुलाब प्रसुन्न कैसा
आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश देता।

पोखरों में खिल रहे अनुपम सजीले कमल उज्ज्वल
कर रहे संकेत उठ मालिन्य से बन शुद्ध निर्मल।
झूमता मदहोश गैंदा पवन से अठखेलता है।
कुमुदनी की बंद पांखें इन्दु निशि में खोलता है।

प्रकृति रमणी नित्य नूतन कुसुम वसनों में संवरती
जूहि,चंपक ओ’ चमेली पुष्प छबि जन हृदय- हरती।
झिलमिलाते, टिमटिमाते हैं विपुल तारक गगन में
महकते सौरभ लुटाते सुमन मानव मैदिनी में।

कविता की समीक्षा Meta Aiके शब्दों मे
डॉ. दयाराम आलोक जी की यह रचना फूलों के सौन्दर्य और उनके द्वारा मानव जीवन को दिए जाने वाले संदेशों को प्रस्तुत करती है। इस रचना में फूलों के विभिन्न रंगों और सुगंधों का वर्णन किया गया है, जो मानव जीवन में खुशियों और सौंदर्य को बढ़ाते हैं।
रचना में फूलों को मानव जीवन के लिए एक प्रेरणा के रूप में देखा गया है, जो हमें आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश देते हैं। फूलों को प्रकृति की रमणी के रूप में देखा गया है, जो नित्य नूतन कुसुम वसनों में संवरती है और मानव हृदय को हरती है।
रचना में फूलों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया है, जैसे कि गुलाब, कमल, गैंदा, कुमुदनी आदि, जो अपनी सुगंध और सौंदर्य से मानव जीवन को समृद्ध बनाते हैं।
इस रचना में डॉ. आलोक जी ने फूलों के माध्यम से मानव जीवन को दिए जाने वाले संदेशों को प्रस्तुत किया है, जैसे कि आपदा में मुस्कराने का मधुर संदेश, प्रकृति के सौंदर्य को सराहने का संदेश, और मानव जीवन में खुशियों और सौंदर्य को बढ़ाने का संदेश।
यह रचना 1963 में "स्वास्थ्य सरिता" मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और पाठकों ने इसे बहुत सराहा था
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23.10.10

गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ. दयाराम आलोक







गांधी जयंति 2 october 1968 , प्रिन्ट मीडिया मे प्रकाशित 

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गांधी नैतिकता,कर्म,मुक्ति के बोधक थे.
वे सत्य,अहिंसा प्रेम शांति के पोषक थे.
"वह राजनीति निष्प्राण कि जिसमें धर्म नहीं"
और धर्म हीन शासन से जन कल्याण नहीं.

मानव -मानव थे तुल्य दृष्टि में गांधी के.
सब धर्म श्रेष्ठ थे उस मानवतावादी के.
वह आचारों की शुद्धि हेतु बल देता था.
और स्वयं कष्ट सह दुष्ट हृदय पिघलाता था

वे धीमी-धीमी क्रांति चाहने वाले थे.
उनके समाजवादी सिद्धांत निराले थे.
"धन तो भाई ईश्वर की एक धरोहर है"
"परमार्थ करो उपलब्ध तुम्हे यदि अवसर है"


जब वर्ष गांठ आये हम उनको याद करें.
केवल इतना करना मिथ्या विज्ञापन है.
जब तक समाज में ऊंच-नीच की बातें हैं
गांधी के प्रति हम लोगों का अंधापन है।.

पाखण्ड मत करो केवल सूत कताई का.
खद्दर लपेटकर मजा न लो नेताई का.
खद्दर के चद्दर से मत अपने पाप ढको.
निज अवलंबन को आडंबर का रूप न दो.

भारत में अब हिंसाएं और हडतालें हैं.
अब धर्म,जाति , भाषा के प्रश्न उछालें हैं
गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं.
दु:ख है हमको केवल गांधीजी प्यारे हैं.

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15.8.10

" आओ आज करें अभिनंदन" : डॉ. दयाराम आलोक

        

   "आओ आज करें अभिनंदन"


रचयिता -डॉ.दयाराम आलोक 


आज की अठहत्तरवीं  
वर्ष गांठ हम मना रहे हैं.
जन गण मन में जोश बह रहा

गांव,गली,शहरों,बाजारों,
सभी जगह जन आंदोलित हैं

बच्चे कैसे आल्हादित हैं
आजादी का असली मतलब
शायद इन्हें अधिक मालूम है।

हर संस्था में तीव्र बाढ है
कार्यक्रमों की
ध्वज आरोहण
छात्र चल रहे पंक्ति बद्ध हो
नारे गगन प्रकंपित करते
भाषण,नाटक,नृत्य,प्रदर्शन
झूम रहा हर हिन्दुस्तानी


पर स्वतंत्रता
जिसको पाया
देश-भक्त सच्चे वीरों ने
अग्नि ज्वलित की जन मानस में--
"आजादी पैदाईश हक है"
मुझे खून दो आजादी लो"
अंग्रेजों छोडो भारत को"

बाल,लाल,पाल,
आजाद भगत सिंह,बोस
गांधी,नेहरू,वल्लभ भाई
अन्य कई बलिदान हुए
तब भारत की
आजादी आई।
साहस धैर्य,त्याग का जज्बा
जो उनमें था
अपनाना है।


लेकिन अब कुछ और हो रहा
बलिदानी भारत के बेटे
सत्ता को आराध्य मानकर
जूझ रहे हैं तन,मन,धन से
गांधी का प्यारा सत्याग्रह
अब होता है
स्वार्थपूर्ण लक्ष्यों के खातिर

प्रजातंत्र के अभिभावक गण
जनता के निर्वाचित नेता
मुक्के चला रहे सदनों में
किसके खातिर?

दाल गले वह दल अच्छा है
दल मानों पेडों की डालें
उछल रहे हैं डाल -डाल पर
बंदर सम मतवाले नेता।

रेल उलटना आग लगाना
बंद और चक्का जाम लगाना
संप्रदाय,भाषाई झगडे
नये धर्म बन गये देश के

शायद हम अब भी गुलाम हैं
वही क्रियाएं दुहर रही हैं
जो सैंतालिस पूर्व हुई थीं

गलत साध्य,
टुच्चे साधन हैं
चिंतन,मनन,त्याग,जनसेवा
सबसे अधिक जरूरी सदगुण
सबसे कम विकसित दिखते हैं।
आओ आज करें अभिनंदन
उत्साही तरुणों,युवकों का
राष्ट्र-धर्म को अंगीकार कर
बढें समुन्नत करें देश को
कविता की समीक्षा:Meta Ai द्वारा 
आपकी कविता में भारत की आजादी के लिए वीर सपूतों के योगदान को याद किया गया है और आज की पीढ़ी को देश को समुन्नत करने का आव्हान किया गया है। कविता में आजादी के असली मतलब को समझने और उसकी कीमत को पहचानने की बात कही गई है।

कविता में वर्तमान समय में देश में हो रही घटनाओं पर चिंता व्यक्त की गई है, जैसे कि बवाल, संप्रदायिक और भाषाई झगड़े, और राजनेताओं की सत्ता के लिए लड़ाई। कविता में कहा गया है कि ये घटनाएं देश को गुलामी की ओर ले जा रही हैं और हमें अपने सदगुणों को विकसित करने की जरूरत है।

कविता का अंतिम भाग नव युवकों को राष्ट्र-धर्म को अंगीकार करने और देश को समुन्नत करने का आव्हान करता है। यह कविता एक संदेश देती है कि हमें अपने देश को समुन्नत करने के लिए एकजुट होकर काम करना चाहिए और अपने सदगुणों को विकसित करना चाहिए

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4.3.10

प्रणय-गीत : डॉ.दयाराम आलोक




हम तुम गीत प्रणय के गाएं
प्राण-प्राण योवन  महकाएँ

मोह न मन का घटने पाए
मेघ न स्नेहिल छंटने पाएं
हृदय खोल दें इक दूजे पर
उपालंभ झूठलाएं
हम तुम गीत प्रणय के गाएं


ऊर की अभिलाषाएं कुंठित
सृजन-विनाश हुए अनुबंधित
क्षुब्ध उदधि उत्ताल तरंगें
पथ प्रशस्त कर जाएं
हम तुम गीत प्रणय के गाएं


लतिका-विटप ग्रथित बंधन में
विचलित सुमन भ्रमर गुंजन में
हूक न कब तक उठे हृदय में
जब वसंत बौराए.
हम तुम गीत प्रणय के गाएं.

अधर कपोल प्रणय प्रण पालें
चक्षु चकोर नियम अपनालें
सब बंधन शैवाल बह चलें
स्नेह सलिल ढरकाएं
हम तुम गीत प्रणय के गाएं

समीक्षा Meta Ai के शब्दों मे- 

डॉ. दयाराम आलोक जी की कविता "हम तुम गीत प्रणय के गायें" वास्तव में एक सुंदर और भावपूर्ण प्रणय गीत है। उनकी कविता में प्रेम, प्रकृति और देशभक्ति के भावों का सुंदर मेल दिखाई देता है।
इस कविता में प्रेम की सुंदरता और उसके प्रभाव को दर्शाने के लिए डॉ. आलोक जी ने सुंदर शब्दों और मेटाफर्स का उपयोग किया है। कविता की पंक्तियां प्रेम की गहराई और उसके स्थायी प्रभाव को दर्शाती हैं।
डॉ. आलोक जी की कविता में प्रेम के साथ-साथ प्रकृति के सौंदर्य का भी वर्णन किया गया है, जैसे कि "लतिका-विटप ग्रथित बंधन में", "स्नेह सलिल ढरकाएं"। यह पंक्तियां प्रेम के बंधन को सुंदर और मजबूत बताती हैं।
कविता का अंतिम भाग "अधर कपोल प्रणय प्रण पालें, चक्षु चकोर नियम अपनालें" प्रेम की सुंदरता और उसके प्रभाव को दर्शाता है, जिसमें दो आत्माएं एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करती हैं।
डॉ. दयाराम आलोक जी की यह कविता प्रेम की सुंदरता और उसके प्रभाव को दर्शाने में सफल है, और यह पाठकों को प्रेम की गहराई और सुंदरता के बारे में सोचने पर मजबूर करती है|

रात और प्रभात :डॉ.दयाराम आलोक


                  रात और प्रभात :डॉ.दयाराम आलोक    
                                               


        
                                  
रात,
भयानक अंधकार है,
कलुषित उद्वेगों का पौषक.
पथिक,
चल रहा डरता-डरता,
कठिन डगर पर धीमे-धीमे.
मंजिल,
दूर नजर आती है
आकर्षक,सुन्दर,मन भावन

दीप,
जल रहा
झिल मिल-झिल मिल,
सघन तिमिर से सतत जूझता.
दीपक की लौ,
कहती-"संभलो,
क्यों दुष्कृत्यों में डूबे हो,
मैं गवाह हूं
देख रही हूं
दुराचार  जो यहाँ  हो रहा."

तिमिर,
कुपित हो उठा
"दिये की ये हिम्मत है?"
अंधड को आदेश
कुचलने का दे डाला.

दीप लडा,
बलिदान हो गया
लीन हो गई उसकी आत्मा,
उस अनंत में

जिसमें लाखों ज्वालाएं हैं
अगणित दीपक मालाएं हैं

अंधकार हंस दिया-
"शत्रु का हुआ सफ़ाया"
आत्म शक्ति से रहित
प्राणियों के घट-घट में
तिमिर प्रतिष्ठित सहज हो गया

पर यह क्रम
चल सका न लंबा
रवि ने अपना रथ दौडाया,
दुष्ट तिमिर अवसान हो गया
रवि के प्रबल रश्मि अस्त्रों से
जग ने कहा-
"प्रभात हो गया"

समीक्षा- 

डॉ. दयाराम आलोक जी की कविता "रात" और "प्रभात" में अंधकार और प्रकाश की विजय का संदेश दिया गया है। कविता में रात को अंधकार और भय का प्रतीक बनाया गया है, जबकि प्रभात को प्रकाश और ज्ञान का प्रतीक।
कविता की पहली पंक्ति "भयानक अंधकार है, कलुषित उद्वेगों का पौषक" से यह स्पष्ट होता है कि रात अंधकार और भय का समय है। लेकिन दीपक की लौ, जो प्रकाश का प्रतीक है, अंधकार के खिलाफ लड़ती है और सत्य और न्याय की रक्षा करती है।
दीपक की लौ के शब्द "संभलो, क्यों दुष्कृत्यों में डूबे हो, मैं गवाह हूं देख रही हूं दुराचार जो यहाँ  हो रहा" से यह स्पष्ट होता है कि प्रकाश सत्य और न्याय की रक्षा करता है और अंधकार को हटाता है।
कविता के अंत में रवि की विजय और प्रभात की घोषणा से यह संदेश मिलता है कि सत्य और ज्ञान की विजय होती है और अंधकार और अज्ञान का नाश होता है।
यह कविता हमें यह सिखाती है कि हमें सत्य और ज्ञान की राह पर चलना चाहिए और अंधकार और अज्ञान से लड़ना चाहिए|

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हम भारत की शान हैं-डॉ.दयाराम आलोक

                                     


सीना ताने बढे चलेंगे भारत की संतान हैं.

ऊंचा मस्तक सदा रहेगा हम भारत की शान हैं.


बलिदानों की ज्योति जली है मातृभूमि सम्मान पर.
हंसते-हंसते प्राण निछावर करें राष्ट्र की आन पर.
उलझन खुद शर्मिंदा होगी हिमगिरि से उत्थान पर.
तूफ़ानों के दिल दहलेंगे अनुशासन की बान पर.


विपदा में मुस्काते चेहरे ऐसे वीर जवान हैं.
ऊंचा मस्तक सदा रहेगा हम भारत की शान हैं.


ऊंच-नीच,ऐश्वर्य अभावों की गुत्थी सुल्झाएंगे.
वैज्ञानिक चातुर्य,कला कौशल का ध्वज फ़हराएंगे.
संकट में वीर शिवा राणा प्रताप बन जाएंगे.
भारत को प्राचीन जमाने का गौरव दिलवाएंगे.


कदम बढेंगे हृदय मिलेंगे रुकना मौत समान है.
ऊंचा मस्तक सदा रहेगा हम भारत की शान हैं.
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सरहदें बुला रहीं:डॉ.दयाराम आलोक


                   
        सरहदें बुला रहीं:डॉ.दयाराम आलोक: विडिओ                                                        


नौ जवां बढे चलो वतन की ये पुकार है
वो सरहदें बुला रहीं तुम्हारा इंतजार है।

दुश्मनों को जंग में प्रहार दो शिकस्त दो,
कि जो करे इधर का रुख पकड उसे पछाड दो
बरस पडो क्या खोफ़ है जो शत्रु बेशुमार हैं
वो सरहदें बुला रही तुम्हारा इंतजार है।

दरिन्दे लाल चीन के हिमालया पे छा रहे
लुटेरे पाक के नजर स्वदेश पे गडा रहे
उडा दो उनका सर पडेगा सिर वो ही मजार है
वो सरहदें बुला रही तुम्हारा इंतजार है।

तुम्हारे हर कदम का लक्ष्य दुश्मनों की मौत हो
बढे चलो कि हर कदम नई विजय का स्रोत हो
मिटेगी क्या वो जिन्दगी जो कौम पर निसार है
वो सरहदें बुला रही तुम्हारा इंतजार है।

चलाओ टेंक,तोप,बम फ़टे कि आसमां हिले,
रुको नहीं कि जब तलक न शत्रु को सजा मिले,
तुम्हारे गर्म खून से वतन ,चमन,बहार है
वो सरहदें बुला रहीं तुम्हारा इंतजार है।

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इस कविता पर Meta Ai की टिप्पणी 
यह कविता डॉ. दयाराम आलोक द्वारा लिखी गई एक शक्तिशाली और देशभक्ति से भरी हुई रचना है, जो भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान युद्ध के संदर्भ में लिखी गई है। कविता में देश की रक्षा के लिए सैनिकों को प्रेरित करने और दुश्मनों के खिलाफ लड़ने के लिए उत्साहित करने का आह्वान किया गया है।
कविता की भाषा शक्तिशाली और प्रभावशाली है, जो पाठकों को देशभक्ति और साहस की भावना से भर देती है। कविता के माध्यम से डॉ. आलोक ने देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए सैनिकों को प्रेरित करने का प्रयास किया है।
कविता के कुछ प्रमुख बिंदु हैं:
- देश की रक्षा के लिए सैनिकों को प्रेरित करना
- दुश्मनों के खिलाफ लड़ने के लिए उत्साहित करना
- देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए आह्वान
- सैनिकों को देश की रक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए शक्तिशाली भाषा का उपयोग
यह कविता डॉ. दयाराम आलोक की देशभक्ति और साहस की भावना को दर्शाती है, और यह एक प्रेरणादायक और शक्तिशाली रचना है
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यह वासंती शाम :डॉ.दयाराम आलोक




दैनिक ध्वज में १५ मार्च १९७० को प्रकाशित गीत-



यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!
सुखप्रद सुन्दर!प्रथम मिलन सी प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!
सुरभित सुमन पवन हिचकोलें,
गुंजित बाग भ्रमर रस घोलें
लहरों में थिरकन मचली है
अंतर मौन निमंत्रण खोलें

बादल के परदे पर किरणें
सृजन कर रहीं दृष्य मनोहर

और तुम्हारे नयन सृजन के आवाहन परिपूर्ण मिलनकर ,
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर!

हांर सिंगार अंग पुलकित है,
पुष्प-पुष्प मकरंद अमित है
कल-कल,छल-छल नदियां बहती
नीलांबर वसुधा विचलित है।

भूले बिसरे क्षण उभरे हैं
जो गुजरे थे संग तुम्हारे
स्नेहिल बातें करें कुंज में प्रणय गीत उतरे अधरों पर
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुन्दर।

लौट रहे पंछी नीडों को
फ़र-फ़र नन्हे पंख हिलाते
दूर वेणु का स्वर उभरा है
प्रियतम को प्रण याद दिलाते ।
वन उपवन बढ चले धुंधलके
अंबर ने नक्षत्र सजाये

किन्तु सुनें हम अमराई में कोयल का मधु गीत मचलकर
यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुंदर!

कविता की समीक्षा:Meta Ai द्वारा
डॉ. दयाराम आलोक जी की यह कविता "यह वासंती शाम" दैनिक ध्वज अखबार में 1970 में प्रकाशित हुई थी। कविता में वासंती शाम के सौंदर्य और प्रेम के भावों को प्रस्तुत किया गया है।


कविता में वासंती शाम को प्रेम के मिलन के रूप में देखा गया है, जो सुखप्रद और सुंदर है। कविता में प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन किया गया है, जैसे कि सुरभित सुमन, गुंजित बाग, लहरों में थिरकन, बादल के परदे पर किरणें सृजन कर रहीं आदि।


कविता में प्रेम के भावों को प्रस्तुत किया गया है, जैसे कि प्रथम मिलन, स्नेहिल बातें, प्रणय गीत, प्रियतम को प्रण याद दिलाते आदि। कविता में प्रेम को एक सुखप्रद और सुंदर अनुभव के रूप में देखा गया है।


कविता की भाषा सुंदर और प्रवाहमय है, जो पाठक को वासंती शाम के सौंदर्य और प्रेम के भावों में डूबने का अवसर प्रदान करती है। कविता का अंतिम पंक्ति "यह वासंती शाम हमारे प्रथम मिलन सी सुखप्रद सुंदर" प्रेम के भावों को प्रस्तुत करती है और कविता को एक सुंदर और सुखप्रद अनुभव के रूप में समाप्त करती है
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सुमन कैसे सौरभीले  ऑडियो सुनिए 



3.3.10

उन्हें मनाने दो दीवाली: डॉ. दयाराम आलोक

उन्हें मनाने दो दीवाली--डॉ.दयाराम अलोक  

इस कविता का वाचन you tube पर सुने डॉ .आलोक की आवाज

                                                                                                                                                
नवज्योति जयपुर अखबार में प्रकाशित डॉ.दयाराम आलोक की रचना- 

नक्षत्रों की ज्योति मेघ का मुक्त हास धरती पर लाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

युग बीते जग देख रहा है चकाचौंध जगमग दीवाली,
युद्ध द्रश्य है इधर ज्योति और उधर तिमिर मावस मतवाली।
नष्ट करो मालिन्य प्रसारो उज्वलता जगती ने जाना,
शृंगारित घर आंगन गलियां हुआ नयन रंजक वीराना।

अंधियारे के अधिवासों पर आओ दीप शिखा लहराएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

बाहर की सुन्दरता देखी अब अंतर की आंखे खोलो
घृणा,ग्लानि,ईर्षा ,दुर्गुण सब स्नेह,सत्य,समता से धोलो।
दीवाली का रूप हो जिसमें हर अभाव वैभव को छूले,
सम्प्रदाय-विद्वेष,ढोंग और कलुशित वर्ग विषमता भूलें।

यह प्रकाश वेला अति पावन सौहार्द्रिक सद्भाव जगाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

ज्योतित जग में आज निहारो अश्रुपूर्ण लोचन कितने हैं,
वैभव के पोषक बेचारे दलित,क्षुधित पंजर कितने हैं।
हम न विचारें ऐसे मसले तब तक यह दीपक मेला है,
विस्फ़ोटक द्रव्यों से मानव खुश किन्तु प्रलय झेला है।

दयानंद,सुकरात दीप हैं जो सदियों तक राह दिखाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।

तुम मत ऐसे दीप जलाओ जिससे अंधकार उकसाए,
लुत्फ़ उठाना ठीक नहीं जो मजबूरों के दिल तडफ़ाए।
उन्हें मनाने दो दीवाली जिन्हें न खुशियां रास हुई हैं,
उन खुशियों को जीवन दे दो जो खुशियां बर्बाद हुई हैं।

ज्योति पर्व आवाहन करता जन मन दर्पण स्वच्छ बानाएं,
आओ दीप जलाकर जग को मंगलमय सद्पथ दिखलाएं।
 
 
कविता की समीक्षा Meta Ai के शब्दों मे

डॉ. दयाराम आलोक जी की यह कविता दीपावली पर्व की खूबसूरती को समेटे हुए है, और यह जयपुर से निकले वाले "नव ज्योति" अखबार में प्रकाशित हुई थी। कविता में दीपावली के पर्व को मंगलमय और सद्पथ दिखाने के लिए दीप जलाने का आह्वान किया गया है।
कविता में दीपावली के पर्व को युगों से चली आ रही परंपरा के रूप में दर्शाया गया है, जिसमें जगमग दीवाली के साथ-साथ युद्ध द्रश्य और तिमिर मावस का भी वर्णन किया गया है। कविता में दीपावली के पर्व को मंगलमय बनाने के लिए नष्ट करो मालिन्य प्रसारो उज्वलता का आह्वान किया गया है।
कविता में दीपावली के पर्व को सिर्फ बाहरी सुन्दरता के रूप में नहीं देखा गया है, बल्कि अंतर की आंखे खोलकर घृणा, ग्लानि, ईर्षा और दुर्गुणों को स्नेह, सत्य और समता से धोने का आह्वान किया गया है।
कविता में दीपावली के पर्व को सम्प्रदाय-विद्वेष, ढोंग और कलुशित वर्ग विषमता को भूलने के लिए भी आह्वान किया गया है। कविता में दीपावली के पर्व को प्रकाश वेला अति पावन सौहार्द्रिक सद्भाव जगाने के लिए भी आह्वान किया गया है।
कविता में दीपावली के पर्व को वैभव के पोषक बेचारे दलित और क्षुधित पंजर के लिए भी सोचा गया है। कविता में दीपावली के पर्व को दयानंद, सुकरात जैसे दीपों के रूप में दर्शाया गया है, जो सदियों तक राह दिखाते हैं।
कविता में दीपावली के पर्व को उन्हें मनाने दो जिन्हें न खुशियां रास हुई हैं, और उन खुशियों को जीवन दे दो जो खुशियां बर्बाद हुई हैं। कविता में दीपावली के पर्व को ज्योति पर्व आवाहन करता जन मन दर्पण स्वच्छ बानाने के लिए भी आह्वान किया गया है

तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है: डॉ.दयाराम आलोक

                     

           




मैं खोज रहा था निरवलंब अवलंब तुम्हारा निज मन में।
मैं देख रहा था निर्निमेष प्रतिबिंब तुम्हारा निज मन में |
मैं व्योम तले उद्भ्रांत विहग सा भ्रमित भटकता निरुद्देश्य,
मन विकल अंधेरा घोर भोर की किरण छिपी थी दूर देश।

तुमने मेरे धूमिल लक्ष्य को स्पष्ट और निर्दिष्ट किया है,
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

बेकल जीवन में घिरी अमा अद्रश्य चन्द्र दिखती न शमा,
आलोक हुआ था लोप कोप कर रहा कुहासा सघन धुआं,
मेरे मन की आकांक्षा को था घोर तिमिर ने घेर लिया,
मानस के झंझावातों ने था क्षीण कर दिया आस दिया।

मेरी अनब्याही चाहत को तुमने सहज संवार दिया है।
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

मैं दुर्बल द्रुम का पीत पत्र था उजड गया जिसका सुरंग
था भव सागर का वह हिस्सा उठती न कभी जिसमें तरंग,
था गर्मी की सरिता समान मैं जल विहीन औ’ क्षीण प्राण,
मैं कुसुम कुंज का वह प्रसून भंवरा कतराता मृतक जान।

तुमने पतझडमय प्राणों का वासंती शृंगार किया है।
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

मैं रूप मेघ का चातक था पर बूंद स्नेह का मिला नहीं,
था शुष्क प्राण निर्झर जिसका परिचय सावन से हुआ नहीं।
मैं वह बादल था जो जलमय होकर भी जल का प्यासा था,
मन उदासीन,अवसन्न,विकल सारा जग लगता झांसा था।

मेरे बैरागी जीवन को तुमने स्वर संगीत दिया है,
तुमने मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है।

यह कविता बहुत ही सुंदर और भावनापूर्ण है। इसमें कवि ने अपने जीवन की अधूरापन और अकेलापन को व्यक्त किया है, और फिर किसी विशेष व्यक्ति या शक्ति के आगमन से जीवन में आये परिवर्तन को दर्शाया है।

कविता में कवि ने अपने जीवन को एक उदासीन और शुष्क प्राण के रूप में वर्णित किया है, जो जलमय होकर भी जल का प्यासा है। लेकिन जब कवि को वह व्यक्ति या शक्ति मिलती है, तो उनका जीवन बदल जाता है, और उन्हें एक नया अर्थ और उद्देश्य मिलता है।

कविता में उपयोग किए गए शब्द और छंद बहुत ही सुंदर और प्रभावशाली हैं, जो कवि की भावनाओं को गहराई से व्यक्त करते हैं। कविता का मुख्य विषय जीवन में आशा और अर्थ की खोज है, और कवि ने इसे बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है

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