22.12.18

मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ , 'क़मर' मुरादाबादी

                                      



मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मेरा दारूल-अमाँ है और मैं हूँ

हयात-ए-गम निशाँ है और मैं हूँ
मुसलसल इम्तिहाँ है और मैं हूँ

निगाह-ए-शौक है और उन के जलवे
शिकस्त-ए-नागहाँ है और मै हूँ

उसी का नाम हो शायद मोहब्बत
कोई बार-ए-गिराँ है और मैं हूँ

मोहब्बत बे-सहारा तो नहीं है
मेरा दर्द-ए-निहाँ है और मैं हूँ

मोहब्बत के फसाने अल्लाह अल्लाह
ज़माने की जबाँ है और मैं हूँ

‘कमर’ तकलीद का काइल नहीं मैं
मेरा तर्ज़-ए-बयाँ है और मैं हूँ

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बे-नकाब उन की जफाओं को किया है मैंने-'क़मर' मुरादाबादी


बे-नकाब उन की जफाओं को किया है मैं ने
वक्त के हाथ में आईना दिया है मैं ने

ख़ून ख़ुद शौक ओ तमन्ना का किया है मैं ने
अपनी तस्वीर को इक रंग दिया है मैं ने

ये तो सच है के नहीं अपने गिरेबाँ की खबर
तेरा दामन तो कई बार सिया है मैं ने

रस्न ओ दार की तक्दीर जगा दी जिस ने
तेरी दुनिया में वो ऐलान किया है मैं ने

हर्फ आने न दिया इश्क की खुद-दारी पर
काम ना-काम तमन्ना से लिया है मैं ने

जब कभी उन की जफाओं की शिकायत की है
तजज़िया अपनी वफा का भी किया है मैं ने

मुद्दतों बाद जो इस राह से गुजरा हूँ ‘कमर’
अहद-ए-रफ्ता को बहुत याद किया है मैंने
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बन्द करो मधु की , गोपालदास "नीरज"

                                          




बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
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मुझे अकेला ही रहने दो-गोपाल शरण सिंह

                                             





मुझे अकेला ही रहने दो।

रहने दो मुझको निर्जन में,
काँटों को चुभने दो तन में,
मैं न चाहता सुख जीवन में,
करो न चिंता मेरी मन में,
घोर यातना ही सहने दो,
मुझे अकेला ही रहने दो।

मैं न चाहता हार बनूं मैं,
या कि प्रेम उपहार बनूं मैं,
या कि शीश शृंगार बनूं मैं,
मैं हूं फूल मुझे जीवन की,
सरिता में ही तुम बहने दो,
मुझे अकेला ही रहने दो।

नहीं चाहता हूं मैं आदर,
हेम तथा रत्नों का सागर,
नहीं चाहता हूं कोई वर,
मत रोको इस निर्मम जग को,
जो जी में आए कहने दो,
मुझे अकेला ही रहने दो।
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मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?:गोपालशरण सिंह





मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?



सुन कर प्राणों के प्रेम–गीत,
निज कंपित अधरों से सभीत।
मैंने पूछा था एक बार,
है कितना मुझसे तुम्हें प्यार?

मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?

हो गये विश्व के नयन लाल,
कंप गया धरातल भी विशाल।
अधरों में मधु – प्रेमोपहार,
कर लिया स्पर्श था एक बार।

मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?

कर उठे गगन में मेघ धोष,
जग ने भी मुझको दिया दोष।
सपने में केवल एक बार,
कर ली थी मैंने आँख चार।

मैं हूँ अपराधी किस प्रकार?


शांति रहे पर क्रांति रहे ! , गोपालशरण सिंह

                                         



फूल हँसें खेलें नित फूलें,
पवन दोल पर सुख से झूलें
किन्तु शूल को कभी न भूलें,

स्थिरता आती है जीवन में
यदि कुछ नहीं अशान्ति रहे
शांति रहे पर क्रांति रहे !

यदि निदाघ क्षिति को न तपावे,
तो क्या फिर घन जल बरसावे ?
कैसे जीवन जग में आवे ?

यदि न बदलती रहे जगत में,
तो किसको प्रिय कांति रहे ?
शांति रहे पर कांति रहे !

उन्नति हो अथवा अवनति हो ,
यदि निश्चित मनुष्य की गति हो ,
तो फिर किसे क्रम में रति हो ?

रहे अतल विश्वास चित्त में ,
किन्तु तनिक सी भ्रान्ति रहे
शांति रहे पर क्राँति रहे ?
*******************


कुम्हलाये हैं फूल – ठाकुर गोपाल शरण सिंह




कुम्हलाये हैं फूल

अभी–अभी तो खिल आये थे
कुछ ही विकसित हो पाये थे
वायु कहां से आकर इन पर
डाल गयी है धूल
कुम्हलाये हैं फूल

जीवन की सुख–घड़ी न पायी
भेंट न भ्रमरों से हो पायी
निठुर–नियति कोमल शरीर में
हूल गयी है शूल
कुम्हलाये हैं फूल

नहीं विश्व की पीड़ा जानी
निज छवि देख हुए अभिमानी
हँसमुख ही रह गये सदा ये
वही एक थी भूल
कुम्हलाये हैं फूल
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