कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं।कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुःख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं. -Dr.Dayaram Aalok,M.A.,Ayurved Ratna,D.I.Hom(London)
बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में, बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में, अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी, बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में, आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता, जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता, किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में, प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता, जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने, वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी, आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी, करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है, अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी, और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है, नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है, सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है, जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का। बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे साँस की शराब का खुमार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी और हम अजान से दूर के मकान से पालकी लिये हुए कहार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
मै न भूलूँगा मै न भूलूँगी इन रस्मों को, इन क़समों को, इन रिश्ते-नातों को
चलो जग भूलें, ख्यालों मे झूलें बहारो मे डोले, सितारों को छू लें आ तेरी मै माँग सँवारूँ तू दुल्हन बन जाए माँग से जो दुल्हन का रिश्ता मै न भूलूँगी...
समय की धारा मे उमर बह जानी है जो घड़ी जी लेंगे वही रह जानी है मै बन जाऊँ साँस आख़िरी, तू जीवन बन जाए जीवन से साँसो का रिश्ता मै न भूलूँगी
गगन बनकर झूमे, पवन बनकर झूमे चलो हम राह मोड़ें, कभी न संग छोड़ें तरस चख जाना है, नज़र चख जाना है कहीं पे बस जाएँगे, यह दिन कट जाएँगे अरे क्या बात चली, वो देखो रात ढली यह बातें चलती रहें, यह रातें ढलती रहें
सूरज पर प्रतिबंध अनेकों और भरोसा रातों पर नयन हमारे सीख रहे हैं हँसना झूठी बातों पर
हमने जीवन की चौसर पर दाँव लगाए आँसू वाले कुछ लोगों ने हर पल, हर दिन मौके देखे बदले पाले हम शंकित सच पा अपने, वे मुग्ध स्वयं की घातों पर नयन हमारे सीख रहे हैं हँसना झूठी बातों पर
हम तक आकर लौट गई हैं मौसम की बेशर्म कृपाएँ हमने सेहरे के संग बाँधी अपनी सब मासूम खताएँ हमने कभी न रखा स्वयं को अवसर के अनुपातों पर नयन हमारे सीख रहे हैं हँसना झूठी बातों पर
कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है ! मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !! मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है ! ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!
मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है ! कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !! यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं ! जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!
समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता ! यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !! मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले ! जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!
भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा! हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!! अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का! मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!! *******************
जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार । कला कौशल खेती व्यापार, हवाई यान, रेल या तार । सभी के एकमात्र आधार, हमारे बिना नहीं उद्धार ।। जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
रत्नगर्भा से लेकर रत्न, विश्व को हमने बीहड़ वन सयत्न । काटकर बीहड़ वन अभिराम, लगाए रम्य रम्य आराम । झोंपड़ी हो या कोई महल, हमारे बिना न बनना सहल ।। जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
किसा का लिया नहीं आभार, बाहुबल रहा सदा आधार । पूर्ण हम संसृति के अवतार, हमारे हाथों बेड़ा पार ।। उठाया है हमने भू-भार, हुआ हमसे सुखमय संसार । जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
हाय ! उसका यह प्रत्युपकार, तुच्छ हमको समझे संसार । बन गए कितने ठेकेदार, भोगने को सम्पत्ति अपार ।।
हमारा दारून हा-हाकार, उन्हें हैं वीणा की झनकार । जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
भाग्य का हमें भरोसा दिया, विभव सब अपने वश में किया । जहाँ तक बना रक्त पर लिया, वज्र की छाती, पत्थर हिया । किसी ने ज़ख़्मेदिल कब सिया, जिया दिल अपना पर क्या जिया । जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
दिया था जिनको अपना रक्त, प्राण के प्यासे वे बन गए । नम्रता पर थे हम आसक्त, और भी हमसे वे तन गए ।। हाय रे स्वार्थ न तेरा अन्त, जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
बहुत सह डाले हैं सन्ताप, गर्दनें काटीं अपने-आप । न जाने था किसका अभिशाप, न जाने किन कृत्यों का पाप ।। हो रही थीं आँखें जो बन्द, पद-दलित होने को सानन्द । जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
रचेंगे हम अब नव संसार, न होने देंगे अत्याचार । प्रकृति ही का लेकर आधार, चलाएँगे सारे व्यवहार ।। सिद्ध कर देंगे बारम्बार, और देखेगा विश्व अपार । जगत के केवल हम कर्त्तार, हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
मेरे मन के आसमान में पंख पसारे उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे! मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी यह कौन मीत अगनित अनुनय से निस दिन किसका नाम उतारे! हौले, हौले दखिन-पवन-नित डोले-डोले द्वारे-द्वारे! बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी जागो मन के सजग पथिक ओ! अलस-थकन के हारे-मारे
कब से तुम्हें पुकार रहे हैं गीत तुम्हारे इतने सारे!