25.12.18

बन्द करो मधु की ,गोपालदास "नीरज"




बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥
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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"




स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
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मै ना भूलूँगा, संतोषानन्द



मै न भूलूँगा
मै न भूलूँगी
इन रस्मों को, इन क़समों को, इन रिश्ते-नातों को

चलो जग भूलें, ख्यालों मे झूलें
बहारो मे डोले, सितारों को छू लें
आ तेरी मै माँग सँवारूँ तू दुल्हन बन जाए
माँग से जो दुल्हन का रिश्ता मै न भूलूँगी...

समय की धारा मे उमर बह जानी है
जो घड़ी जी लेंगे वही रह जानी है
मै बन जाऊँ साँस आख़िरी, तू जीवन बन जाए
जीवन से साँसो का रिश्ता मै न भूलूँगी

गगन बनकर झूमे, पवन बनकर झूमे
चलो हम राह मोड़ें, कभी न संग छोड़ें
तरस चख जाना है, नज़र चख जाना है
कहीं पे बस जाएँगे, यह दिन कट जाएँगे
अरे क्या बात चली, वो देखो रात ढली
यह बातें चलती रहें, यह रातें ढलती रहें

मै न भूलूँगा, मै न भूलूँगी...
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सूरज पर प्रतिबंध अनेकों , कुमार विश्वास








सूरज पर प्रतिबंध अनेकों
और भरोसा रातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

हमने जीवन की चौसर पर
दाँव लगाए आँसू वाले
कुछ लोगों ने हर पल, हर दिन
मौके देखे बदले पाले
हम शंकित सच पा अपने,
वे मुग्ध स्वयं की घातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर

हम तक आकर लौट गई हैं
मौसम की बेशर्म कृपाएँ
हमने सेहरे के संग बाँधी
अपनी सब मासूम खताएँ
हमने कभी न रखा स्वयं को
अवसर के अनुपातों पर
नयन हमारे सीख रहे हैं
हँसना झूठी बातों पर
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कोई दीवाना कहता है (कविता) , कुमार विश्वास




कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!

भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा!
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!!
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का!
मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!

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मज़दूरों का गीत , गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'



जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।
कला कौशल खेती व्यापार,
हवाई यान, रेल या तार ।
सभी के एकमात्र आधार,
हमारे बिना नहीं उद्धार ।।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

रत्नगर्भा से लेकर रत्न,
विश्व को हमने बीहड़ वन सयत्न ।
काटकर बीहड़ वन अभिराम,
लगाए रम्य रम्य आराम ।
झोंपड़ी हो या कोई महल,
हमारे बिना न बनना सहल ।।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

किसा का लिया नहीं आभार,
बाहुबल रहा सदा आधार ।
पूर्ण हम संसृति के अवतार,
हमारे हाथों बेड़ा पार ।।
उठाया है हमने भू-भार,
हुआ हमसे सुखमय संसार ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

हाय ! उसका यह प्रत्युपकार,
तुच्छ हमको समझे संसार ।
बन गए कितने ठेकेदार,
भोगने को सम्पत्ति अपार ।।
हमारा दारून हा-हाकार,
उन्हें हैं वीणा की झनकार ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

भाग्य का हमें भरोसा दिया,
विभव सब अपने वश में किया ।
जहाँ तक बना रक्त पर लिया,
वज्र की छाती, पत्थर हिया ।
किसी ने ज़ख़्मेदिल कब सिया,
जिया दिल अपना पर क्या जिया ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

दिया था जिनको अपना रक्त,
प्राण के प्यासे वे बन गए ।
नम्रता पर थे हम आसक्त,
और भी हमसे वे तन गए ।।
हाय रे स्वार्थ न तेरा अन्त,
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

बहुत सह डाले हैं सन्ताप,
गर्दनें काटीं अपने-आप ।
न जाने था किसका अभिशाप,
न जाने किन कृत्यों का पाप ।।
हो रही थीं आँखें जो बन्द,
पद-दलित होने को सानन्द ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

रचेंगे हम अब नव संसार,
न होने देंगे अत्याचार ।
प्रकृति ही का लेकर आधार,
चलाएँगे सारे व्यवहार ।।
सिद्ध कर देंगे बारम्बार,
और देखेगा विश्व अपार ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।
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24.12.18

रहीम के दोहे -रहीम कवि

                                              






जो अनुचितकारी तिन्‍हैं, लगै अंक परिनाम।
लखे उरज उर बेधियत, क्‍यों न होय मुख स्‍याम॥

जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील।
तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील॥

जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम।
पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥

जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥

जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय।
जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय॥

जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्‍यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्‍यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥

जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥

जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥


धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥

धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्‍यों रहीम यह देह॥

धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्‍नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥
नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग।
देसी स्‍वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥

नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि।
निकट निरादर होत है, ज्‍यों गड़ही को पानि॥

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥

निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ।
पाँसे अपने हाथ में, दॉंव न अपने हाथ॥

तैं रहीम मन आपुनो, कीन्‍हों चारु चकोर।
निसि बासर लागो रहै, कृष्‍णचंद्र की ओर॥

अच्‍युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल॥

अधम वचन काको फल्‍यो, बैठि ताड़ की छाँह।
रहिमन काम न आय है, ये नीरस जग माँह॥

अन्‍तर दाव लगी रहै, धुआँ न प्रगटै सोइ।
कै जिय आपन जानहीं, कै जिहि बीती होइ॥

अनकीन्‍हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय॥

अनुचित उचित रहीम लघु, क‍रहिं बड़ेन के जोर।
ज्‍यों ससि के संजोग तें, पचवत आगि चकोर॥

अनुचित वचन न मानिए जदपि गुराइसु गाढ़ि।
है र‍हीम रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि॥

अब रहीम चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर।
जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर॥

अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥

अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गाँस।
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस॥

अरज गरज मानैं नहीं, रहिमन ए जन चारि।
रिनिया, राजा, माँगता, काम आतुरी नारि॥

असमय परे रहीम कहि, माँगि जात तजि लाज।
ज्‍यों लछमन माँगन गये, पारासर के नाज॥

आदर घटे नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं॥

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल॥

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।
जीरन होत न पेड़ ज्‍यौं, थामे बरै बरेह॥

उरग, तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार।
रहिमन इन्‍हें सँभारिए, पलटत लगै न बार॥

जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट॥

जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥

जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस॥88॥

जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं॥

जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ॥

जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥

जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।
ज्‍यों नर डारत वमन कर, स्‍वान स्‍वाद सों खाय॥

टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार॥

तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उलटी नाव ज्‍यों, खैंचत गुन के जोर॥

तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥


तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ॥

तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय॥

थोथे बादर क्वाँर के, ज्‍यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात॥

थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय।
ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय॥

दादुर, मोर, किसान मन, लग्‍यो रहै घन माँहि।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥

दिव्‍य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्‍धु से बन्‍धु॥


दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्‍यों रहीम नट कुण्‍डली, सिमिटि कूदि च‍ढ़ि जाहिं॥

दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥

दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि॥

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥

दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं॥



धन थोरो इज्‍जत बड़ी, कह रहीम का बात।
जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥

धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्‍त।
नहिं रहीम कोउ लख्‍यो, गाढ़े दिन को मित्‍त॥

ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति।
त्‍यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति॥

एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

ए रहीम दर दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं।
यारो यारी छो‍ड़िये वे रहीम अब नाहिं॥

ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय।
ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय॥

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।
जिन आँखिन सों हरि लख्‍यो, रहिमन बलि बलि जाय॥

अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्‍कन पान।
हस्‍ती-ढक्‍का, कुल्‍हड़िन, सहैं ते तरुवर आन॥

कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥

जब लगि बित्‍त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय।
रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय

ज्‍यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।
अपने हाथ रहीम ज्‍यों, नहीं आपुने हाथ

जलहिं मिलाय रहीम ज्‍यों, कियो आपु सम छीर।
अँगवहि आपुहि आप त्‍यों, सकल आँच की भीर

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय

जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ।
ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित न होइ॥

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह॥

जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्‍ण मिताई जोग॥

जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन का‍ढ़ि।
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बा‍ढि॥

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥

जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्‍यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात॥

जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन॥

जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय॥

जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।
धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह॥

जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर।
बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर॥

कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की बधू, क्‍यों न चंचला होय॥

कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्‍यों न फजीहत होय॥

करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर॥

करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत ह्वै गौ भोर॥

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात॥

कहि रहीम य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर।
रहि रहीम नर नीच में, स्‍वारथ स्‍वारथ हेर॥

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत॥

कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय।
माया ममता मोह परि, अंत चले पछिताय॥
चरन छुए मस्‍तक छुए, तेहु नहिं छाँड़ति पानि।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि॥

चारा प्‍यारा जगत में, छाला हित कर लेय।
ज्‍यों रहीम आटा लगे, त्‍यों मृदंग स्‍वर देय॥

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह॥

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥

चिंता बुद्धि परेखिए, टोटे परख त्रियाहि।
उसे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनी किआहि॥

छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥

छोटेन सो सोहैं बड़े, कहि रहीम यह रेख।
सहसन को हय बाँधियत, लै दमरी की मेख॥

रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि मैं घुलि जाय।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय॥

काज परै कछु और है, काज सरै कछु और।
रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर॥

काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई॥

कहा करौं बै‍कुंठ लै, कल्‍प बृच्‍छ की छाँह।
रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह॥

काह कामरी पामरी, जाड़ गए से काज।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्‍यो मिलै अनाज॥

कुटिलन संग रहीम क‍हि, साधू बचते नाहिं।
ज्‍यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहिं॥

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगर सों वैर॥

कोउ रहीम जनि काहु के, द्वार गये पछिताय।
संपति के सब जात हैं, विपति सबै लै जाय॥

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गये रहीम॥

खरच बढ्यो, उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥

खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय॥

खैंचि चढ़नि, ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति।
आज काल मोहन गही, बंस दिया की रीति॥

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥

गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय।
जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जाय लजाय॥

गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछू उपाव॥

गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते का‍ढ़ि।
कूपहु ते कहुँ होत है, मन काहू को बा‍ढ़ि॥

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतोरी आहि॥

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जागो मन के सजग पथिक ओ! , फणीश्वर नाथ रेणु

                        



मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगनित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उतारे!
हौले, हौले दखिन-पवन-नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे

कब से तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे!

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