उर्वशी : रामधारी सिंह 'दिनकर'
पात्र परिचय पुरुष
पुरुरवा: वेदकालीन, प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक महर्षि च्यवन: प्रसिद्द; भृगुवंशी, वेदकालीन महर्षि सूत्रधार: नाटक का शास्त्रीय आयोजक, अनिवार्य पात्र कंचुकी: सभासद: प्रतिहारी: प्रारब्ध आदि आयु: पुरुरवा-उर्वशी का पुत्र महामात्य: पुरुरवा के मुख्य सचिव विश्व्मना: राज ज्योतिषी नारी नटी: शास्त्रीय पात्री, सूत्रधार की पत्नी सहजन्या, रम्भा, मेनका, चित्रलेखा: अप्सराएं औशीनरी: पुरुरवा पत्नी, प्रतिष्ठानपुर की महारानी निपुणिका, मदनिका: औशिनरी की सखियाँ उर्वशी: अप्सरा, नायिका सुकन्या: च्यवन ऋषी की सहधर्मिणी अपाला: उर्वशी की सेविका
प्रथम अंक साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य, तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम._ विक्रमोर्वशीयम
राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं। सूत्रधार नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है, ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में। खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं, चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के; या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों नटी इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है, मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की; मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो सूत्रधार सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है नटी सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा में समाधिस्थ संसार अचेतन बह्ता-सा लगता है । सूत्रधार स्वच्छ कौमुदी में प्रशांत जगती यों दमक रही है, सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पन में । शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर में प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो ।
(ऊपर आकाश में रशनाओं और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है। बहुत-सी अप्सराएं एक साथ नीचे उतर रही हैं) । नटी शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणन-स्वर कैसा? अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं? उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणें लगी लजाने; ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है? कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायें उतर रही हैं? उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से? या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई हैं? उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में? या वसंत के सपनों की तस्वीरें घूम रही हैं तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से? सूत्रधार लो, पृथ्वी पर आ पहुंची ये सुश्मायें अम्बर की उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलों के । पद-निक्षेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की, सजल कंठ से गीत, हंसी से फूल झरे जाते हैं । तन पर भीगे हुए वसन है किरणों की जाली के, पुश्परेण-भूशित सब के आनन यों दमक रहे हैं, कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर । नटी फूलों की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ हैं? सूत्रधार नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ हैं, ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी हैं, मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएं हैं देवों की रण क्लांति मदिर नयनों से हरने वाली स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की । नटी पर,सुरपुर को छोड़ आज ये भू पर क्यों आई हैं? सूत्रधार यों ही, किरणों के तारों पर चढ़ी हुई, क्रीड़ा में, इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है । या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है, पर, कह्ते है,स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नहीं है । पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की, गगन रूप को बाँहो में भरने को अकुलाता है गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं,दोनो के अलग-अलग हैं प्रश्न और हैं अलग-अलग पीड़ायें । हम चाह्ते तोड़ कर बन्धन उड्ना मुक्त पवन में, कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं ।
एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर, कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बड़ा कठिन है, जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है, वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को । किन्तु, सुनें भी तो, ये परियाँ बातें क्या करती हैं?
{नटी और सूत्रधार वृक्ष की छाया में जाकर अदृश्य हो जाते हैं। अप्सरायें पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली और झरनों के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती हैं} परियों का समवेत गान फूलों की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई । फूटी सुधा-सलिल की धारा डूबा नभ का कूल किनारा सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री ! यह रात रुपहली आई । मही सुप्त, निश्चेत गगन है, आलिंगन में मौन मगन है । ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री ! यह रात रुपहली आई । मुदित चाँद की अलकें चूमो, तारों की गलियों में घूमो, झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढ़ाओ री ! यह रात रुपहली आई । सहजन्या धुली चाँदनी में शोभा मिट्टी की भी जगती है,
कभी-कभी यह धरती भी कित्नी सुन्दर लगती है!
जी करता है यही रहें, हम फूलों में बस जायें!
रम्भा
दूर-दूर तक फैल रही दूबों की हरियाली है,
बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है ।
जी करता है, इन शीतल बून्दों में खूब नहायें ।
मेनका
आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी हैं,
लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी हैं ।
जी करता है,फूलों को प्राणों का गीत सुनायें ।
समवेत गान
हम गीतों के प्राण सघन,
छूम छनन छन, छूम छनन ।
बजा व्योम वीणा के तार,
भरती हम नीली झंकार,
सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन ।
छूम छनन छन, छूम छनन ।
सपनों की सुषमा रंगीन,
कलित कल्पना पर उड्डीन,
हम फिरती हैं भुवन-भुवन
छूम छनन छन, छूम छनन ।
हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,
भिंगो भुमि-अम्बर के छोर,
बरसाती फिरती रस-कन ।
छूम छनन छन, छूम छनन ।
रम्भा
बिछा हुआ है जाल रश्मि का,मही मग्न सोती है,
अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है ।
मेनका
कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन में
उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन में
रम्भा
प्रश्न उठे या नहीं, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है ,
मर्त्यलोक मरने वाला है ,पर सुरलोक अमर है ।
अमित, स्निग्ध ,निर्धूम शिखा सी देवों की काया है ,
मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है ।
मेनका
पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को ।
हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते हैं,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं ।
हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से ।
रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से ।
पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नहीं है
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नहीं है
नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ़ कर फूलों को गले लगाए ।
पर, सुर बनें मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते हैं,
गन्धों की सीमा से आगे देव न जा सकते हैं ।
क्या है यह अमरत्व? समीरों-सा सौरभ पीना है,
मन में धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है ।
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है ।
सहजन्या
साधु ! साधु ! मेनके ! तुम्हारा भी मन कहीं फंसा है ?
मिट्टी का मोहन कोई अंतर में आन बसा है?
तुम भी हो बन गई महीतल पर रुपसी किसी की?
किन्ही मर्त्य नयनों की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?
सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो
मर्त्यों की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो ।
रम्भा
अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई ।
आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नहीं क्यों आई?
सहजन्या
वाह तुम्हें ही ज्ञात नहीं है कथा प्राण प्यारी की ?
तुम्हीं नहीं जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की ?
नहीं जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से
लौट रही थीं जब, इतने में एक दैत्य ऊपर से
टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर
और तुरंत उड़ गया उर्वशी को बाहों में लेकर ।
रम्भा
बाहों में ले उड़ा ? अरी आगे की कथा सुनाओ ।
सहजन्या
यही कि हम रो उठीं, “दौड़ कर कोई हमें बचाओ”
रम्भा
तब क्या हुआ?
सहजन्या
पुकार हमारी सुनी एक राजा ने,
दौड़ पड़े वे सदय उर्वशी को अविलम्ब बचाने
और उन्हीं नरवीर नृपति के पौरुष से, भुजबल से
मुक्त हुई उर्वशी हमारी उस दिन काल-कवल से ।
रम्भा
ये राजा तो बड़े वीर हैं ।
सहजन्या
और परम सुन्दर भी ।
ऐसा मनोमुग्धकारी तो होता नहीं अमर भी
इसीलिये तो सखी उर्वशी, उषा नन्दनवन की
सुरपुर की कौमुदी, कलित कामना इन्द्र के मन की
सिद्ध विरागी की समाधि में राग जगाने वाली
देवों के शोणित में मधुमय आग लगाने वाली
रति की मूर्ति, रमा की प्रतिमा, तृषा विश्वमय नर की
विधु की प्राणेश्वरी, आरती-शिखा काम के कर की
जिसके चरणों पर चढ़ने को विकल व्यग्र जन-जन है
जिस सुषमा के मदिर ध्यान में मगन-मुग्ध त्रिभुवन है
पुरुष रत्न को देख न वह रह सकी आप अपने में
डूब गई सुर-पुर की शोभा मिट्टी के सपने में
प्रस्तुत हैं देवता जिसे सब कुछ देकर पाने को
स्वर्ग-कुसुम वह स्वयं विकल है वसुधा पर जाने को ।
रम्भा
सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?
निरी मानवी बनकर मिट्टी की सब व्यथा सहेगी?
सहजन्या
सो जो हो, पर, प्राणों में उसके जो प्रीत जगी है
अंतर की प्रत्येक शिरा में ज्वाला जो सुलगी है
छोड़ेगी वह नहीं उर्वशी को अब देव निलय में
ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय में
रम्भा
ऐसा कठिन प्रेम होता है?
सहजन्या
इसमें क्या विस्मय है? कहते है, धरती पर सब रोगों से कठिन प्रणय है लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नहीं आती है दिवस रुदन में, रात आह भरने में कट जाती है । मन खोया-खोया, आंखें कुछ भरी-भरी रहती हैं भींगी पुतली में कोई तस्वीर खडी रह्ती है सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी तन से जगी, स्वप्न के कुंजों में मन से सोई-सी खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ किसी ध्यान में पड़ी गँवा देती घड़ियों पर घड़ियाँ दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नहीं होता है आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नहीं होता है मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है । सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी, योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी । वे नूपुर भी मौन पड़े हैं, निरानन्द सुरपुर है, देव सभा में लहर लास्य की अब वह नहीं मधुर है । क्या होगा उर्वशी छोड़ जब हमें चली जायेगी? रम्भा स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी । सहजन्ये! हम परियों का इतना भी रोना क्या? किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या? हम भी हैं मानवी कि ज्यों ही प्रेम उगे रुक जायें? मिला जहाँ भी दान हृदय का, वहीं मग्न झुक जायें प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है; प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है जनमी हम किसलिये? मोद सबके मन में भरने को किसी एक को नहीं मुग्ध जीवन अर्पित करने को । सृष्टि हमारी नहीं संकुचित किसी एक आनन में, किसी एक के लिये सुरभि हम नहीं संजोती तन में । कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल हैं किसी गेह का नहीं दीप जो ,हम वह द्युति कोमल हैं । रचना की वेदना जगा जग में उमंग भरती हैं, कभी देवता ,कभी मनुज का आलिंगन करती हैं । पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है, गन्धॉ के जग में दो प्राणों का निर्मुक्त रमण है ।
सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम कनक-रंग में नर को रंग देती अनुरागमयी हम; देती मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरों में , सुख से देती छोड़ कनक-कलशों को उष्ण करों में; पर यह तो रसमय विनोद है, भावों का खिलना है, तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणों का मिलना है ।
रचना की वेदना जगाती, पर न स्वयं रचती हम बन्ध कर कभी विविध पीड़ाओं में न कभी पचती हम । हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल हैं इच्छाओं की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल हैं ।
रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?
तुम्हें नहीं लगता क्या, जैसे इसे कहीं देखा है?
सह्जन्या
दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है ।
सब
अरी चित्रलेखे! हम सब हैं यहाँ कुसुम के वन में;
जल्दी आ, सब लोग चलें उड़ होकर साथ गगन में ।
भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई ।
चित्रलेखा
रुको, रुको क्षण भर सहचरियों! आई, मै यह आई ।
खेल रही हो यहीं अभी तक तारों की छाया में?
स्वर्ग भूल ही गया तुम्हें भी मिट्टी की माया में?
[चित्रलेखा आ पहुंचती है]
सह्जन्या
तेज-तेज सांसे चलती हैं, धड़क रही छाती है,
चित्रे ! तू इस तरह कहाँ से थकी-थकी आती है?
चित्रलेखा
आज सांझ से सखी उर्वशी को न रंच भी कल थी
नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी
कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नहीं पाउँगी,
तो शरीर को छोड-पवन में निश्चय मिल जाउँगी।”
“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी
दिव में रखकर मुझे नहीं जीवित अवलोक सकोगी ।
भला चाह्ती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो
मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो ।
नहीं दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय में
बुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय में ।
स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग में सब सौभाग्य भरा है,
पर, इस महास्वर्ग में मेरे हित क्या आज धरा है?
स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मैं,
नहीं कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मैं ।
तृप्ति नहीं अब मुझे साँस भर-भर सौरभ पीने से
ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से ।
लगता है, कोई शोणित में स्वर्ण तरी खेता है
रह-रह मुझे उठा अपनी बाहों में भर लेता है
कौन देवता है, जो यों छिप-छिप कर खेल रहा है,
प्राणों के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?
जिस्का ध्यान प्राण में मेरे यह प्रमोद भरता है,
उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है ।
यही चाह्ती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मैं,
उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहों में जकड़ुं मैं,
निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,
फूटे तन की आग और मैं उसमें तैर नहाऊँ ।
कहती हूँ, इसलिये चित्रलेखे! मत देर लगाओ,
जैसे भी हो मुझे आज प्रिय के समीप पहुंचाओ.”
सह्जन्या
तो तुमने क्या किया?
चित्रलेखा
अरी, क्या और भला करती मैं?
कैसे नहीं सखी के दुःसंकल्पों से डरती मैं ?
आज सांझ को ही उसको फूलों से खूब सजाकर,
सुरपुर से बाहर ले आई ,सबकी आंख बचाकर,
उतर गई धीरे-धीरे चुपके ,फिर मर्त्य भुवन में,
और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन में
रम्भा
छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?
चित्रलेखा
युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए ।
अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी
हमें देख लेती वे तो फिर बढ़ती वृथा कहानी
नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन में आई है,
अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन में छाई है ।
रानी ज्यों ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,
फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन में विरहिणी-वियोगी ।
रम्भा
अरी, एक रानी भी है राजा को?
चित्रलेखा
तो क्या भय है?
एक घाट पर किस राजा का रहता बन्धा प्रणय है?
नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते हैं,
नित्य नई सुन्दरताओं पर मरते ही रहते हैं ।
सहधर्मिणी गेह में आती कुल-पोषण करने को,
पति को नहीं नित्य नूतन मादकता से भरने को ।
किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणों से,
नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणों से ।
जितने भी हों कुसुम, कौन उर्वशी-सदृश, पर, होगा?
उसे छोड अन्यत्र रमें, दृगहीन कौन नर होगा?
कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?
एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी ।
सहजन्या
तब तो अपर स्वर्ग में ही तू उसको धर आई है,
नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है ।
मेनका
अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु ,मेरे मन में संशय है ।
कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?
सखी उर्वशी की पीड़ा, माना तुम जान चुकी हो ;
चित्रे !पर, क्या इसी भांति ,नृप को पह्चान चुकी हो?
तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर जिसको वरने को,
प्रस्तुत है वह भी क्या उसका आलिंगन करने को ?
दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन में,
देखा कभी धुँआं भी उसका तूने मर्त्य भुवन में?
चित्रलेखा
धुँआं नहीं, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,
जो अमर्त्य की आग ,मर्त्य की जलन न उससे कम है ।
सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है
उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है ।
छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हें स्वयं निज मन से,
”वृथा लौट आया उस दिन उज्ज्वल मेघों के वन से,
नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न टुक लाना था,
मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था ।
एक मूर्ति में सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे , इतनी सुन्दर होती है नारी?
लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से
तन की रक्तिम कांति शुद्ध ,ज्यों धुली हुई पावक से ।
जग भर की माधुरी अरुण अधरों में धरी हुई सी ।
आंखॉ में वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी
तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाओं की लाली-सी,
नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी ।
पग पड़ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलों से
जहाँ खड़ी हो, वहीं व्योम भर जाये श्वेत फूलों से ।
दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप अपना देखा करती है,
वह सौन्दर्य, कला जिस्का सपना देखा करती है ।
नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”
फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे
अंतराग्नि में पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?
जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?
कल्पलता, जानें, आलिंगन से कब तपन हरेगी?
आह! कौन मन पर यों मढ़ सोने का तार रही है?
मेरे चारों ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?
नक्षत्रों के बीज प्राण के नभ में बोने वाली !
ओ रसमयी वेदनाओं में मुझे डुबोने वाली !
स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!
किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मै निज मन की ?
स्यात अभी तप ही अपूर्ण है,न तो भेद अम्बर को
छुआ नहीं क्यों मेरी आहों ने तेरे अंतर को?
पर, मै नहीं निराश, सृष्टि में व्याप्त एक ही मन है,
और शब्दगुण गगन रोकता रव का नहीं गमन है ।
निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;
और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा ।
मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,
पारिजात वन के प्रसून आहों से कुम्हलाएँगे ।
मेरी मर्म पुकार् मोहिनी वृथा नहीं जायेगी,
आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर में वह तड़पाएगी ।
और वही लाएगी नीचे तुझे उतार गगन से
या फिर देह छोड़ मै ही मिलने आऊंगा मन से.”
सह्जन्या
यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !
चित्रलेखा
यही समुद्वेलन नर का शोभा है रूपमती की ।
सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है ।
राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है ।
सह्जन्या
महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी
समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ़ कहानी ।
चित्रलेखा
कैसे समझे नहीं ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?
कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?
प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,
सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है ।
सह्जन्या
तब तो चन्द्रानना-चन्द्र में अच्छी होड़ पड़ी है ।
मेनका
यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है ।
रम्भा
अच्छा, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर में,
भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर में ।
समवेत गान
बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !
उमड़ रही जो विभा, उसे बढ़ बाहों में कस रे !
इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,
डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नहीं बस रे !
दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,
रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियों में बस रे !
[सब गाते-गाते उड़ कर आकश में विलीन हो जाती हैं]
प्रथम अंक समाप्त
द्वितीय अंक
प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते,
प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित:
-विक्रमोर्वशीयं
[प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों के साथ]
औशीनरी
तो वे गये?
निपुणिका
गये ! उस दिन जब पति का पूजन करके
लौटीं, आप प्रमदवन से संतोष हृदय में भरके
लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे
हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे
प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा,
अन्य नारियों पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा,
तभी भाग्य पर देवि ! आपके कुटिल नियति मुसकाई,
महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई ।
औशीनरी
फिर क्या हुआ ?
निपुणिका
देवि, वह सब भी क्या अनुचरी कहेगी ?
औशीनरी
पगली ! कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ?
कह्ती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे,
जलता है यदि हृदय अभागिन का,उसको जलने दे ।
सानुकूलता कितनी थी उस दिन स्वामी के स्वर में !
समझ नहीं पाती, कैसे वे बदल गए क्षण भर में !
ऐसी भी मोहिनी कौन-सी परियाँ कर सकती हैं,
पुरुषों की धीरता एक पल में यों हर सकती हैं !
छला अप्सरा ने स्वामी को छवि से या माया से?
प्रकटी जब उर्वशी चन्द्नी में द्रुम की छाया से,
लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो,
याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा में आन ढली हो;
उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की,
उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवन की ।
कुसुम-कलेवर में प्रदीप्त आभा ज्वालामय मन की,
चमक रही थी नग्न कांति वसनो से छन कर तन की ।
हिमकण-सिक्त-कुसुम-सम उज्जवल अंग-अंग झलमल था,
मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था
किसी सान्द्र वन के समान नयनों की ज्योति हरी थी,
बड़ी-बड़ी पलकॉ के नीचे निद्रा भरी-भरी थी ।
अंग-अंग में लहर लास्य की राग जगानेवाली,
नर के सुप्त शांत शोणित में आग लगानेवाली ।
मदनिका
सुप्त, शांत कहती हो?
जलधारा को पाषाणों में हाँक रही जो शक्ति,
वही छिप कर नर के प्राणों में दौड़-दौड़
शोणित प्रवाह में लहरें उपजाती है,
और किसी दिन फूट प्रेम की धारा बन जाती है ।
पर, तुम कहो कथा आगे की, पूर्ण चन्द्र जब आया,
अचल रहा अथवा मर्यादा छोड़ सिन्धु लहराया ?
निपुणिका
सिन्धु अचल रहता तो हम क्यों रोते राजमहल में?
जलते क्यों इस भांति भाग्य के दारुण कोपानल में ?
महाराज ने देख उर्वशी को अधीर अकुलाकर,
बाँहों में भर लिया दौड़ गोदी में उसे उठाकर
समा गई उर-बीच अप्सरा सुख-सम्भार-नता-सी,
पर्वत के पंखों में सिमटी गिरिमल्लिका-लता-सी ।
और प्रेम-पीड़ित नृप बोले, “क्या उपचार करुँ मैं?
सुख की इस मादक तरंग को कहाँ समेट धरु मैं?
गहा चाहता सिन्धु प्राण का कौन अदृश्य किनारा?
छुआ चाहती किसे हृदय को फोड़ रक्त की धारा?
कौन सुरभि की दिव्य बेलि प्राणों में गमक उठी है?
नई तारिका कौन आज मूर्धा पर चमक उठी है?
किस पाटल के गन्ध-विकल दल उड़कर अनिल-लहर में
मन्द-मन्द तिर रहे आज प्राणों के मादक सर में?
सुगम्भीर सुख की समाधि यह भी कितनी निस्तल है?
डूबें प्राण जहाँ तक, रस-ही-रस है, जल-ही-जल है ।
प्राणों की मणि! अयि मनोज्ञ मोहिनी! दुरंत विरह में
नहीं झेलता रहा वेदनाएँ क्या-क्या दुस्सह मैं?
दिवा-रात्रि उन्निद पलों में तेरा ध्यान संजोकर
काट दिए आतप, वर्षा, हिमकाल सतत रो-रोकर ।
विदा समय तूने देखा था जिस मधुमत्त नयन से,
वह प्रतिमा, वह दृष्टि न भूली कभी एक क्षण मन से ।
धरते तेरा ध्यान चाँद्नी मन में छा जाती थी,
चुम्बन की कल्पना मन में सिहरन उपजाती थी ।
मेघों में सर्वत्र छिपी मेरा मन तू हरती थी,
और ओट लेकर विधु की संकेत मुझे करती थी ।
फूल-फूल में यही इन्दु-मुख आकर्षण उपजाकर,
छिप जाता सौ बार बिहँस इंगित से मुझे बुलाकर ।
रस की स्रोतस्विनी यही प्राणों में लहराती थी,
दाह-दग्ध सैकत को, पर, अभिसिक्त न कर पाती थी ।
किंतु, आज आषाढ, घनाली छाई मतवाली है,
मुझे घेरकर खड़ी हो गई नूतन हरियाली है ।
प्राणेश्वरी! मिलन-सुख को, नित होकर संग वरें हम,
मधुमय हरियाले निकुंज में आजीवन विचरें हम”
औशीनरी
आजीवन वे साथ रहेंगे? तो अब क्या करना है?
जीते जी यह मरण झेलने से अच्छा मरना है
निपुणिका
मरण श्रेष्ठ है, किंतु, आपको वह भी सुलभ नहीं है ।
जाते समय मंत्रियों से प्रभु ने यह बात कही है;
”एक वर्ष पर्यंत गन्धमादन पर हम विचरेंगे,
प्रत्यागत हो नैमिषेय नामक शुभ यज्ञ करेंगे.”
विचरें गिरि पर महाराज हो वशीभूत प्रीता के,
यज्ञ न होगा पूर्ण बिना कुलवनिता परिणिता के ।
औशीनरी
इसी धर्म के लिए आपको भुवनेश्वरी जीना है
हाय, मरण तक जेकर मुझको हालाहल पीना है
जाने, इस गणिका का मैने कब क्या अहित किया था,
कब, किस पूर्वजन्म में उसका क्या सुख छीन लिया था,
जिसके कारण भ्रमा हमारे महाजन की मति को,
छीन ले गई अधम पापिनी मुझसे मेरे पति को ।
ये प्रवंचिकाएँ, जानें, क्यों तरस नहीं खाती हैं,
निज विनोद के हित कुल-वामाओं को तड़पाती हैं ।
जाल फेंकती फिरती अपने रूप और यौवन का,
हँसी-हँसी में करती हैं आखेट नरों के मन का ।
किंतु, बाण इन व्याधिनियों के किसे कष्ट देते हैं?
पुरुषों को दे मोद प्राण वे वधुओं के लेते हैं
निपुणिका पर, कैसी है कृपा भाग्य की इस गणिका के ऊपर! बरस रहा है महाराज का सारा प्रेम उमड़कर । जिधर-जिधर उर्वशी घूमती, देव उधर चलते हैं तनिक श्रांत यदि हुई व्यजन पल्लव-दल से झलते हैं । निखिल देह को गाढ़ दृष्टि के पय से मज्जित करके अंग-अंग किसलय, पराग, फूलों से सज्जित करके, फिर तुरंत कहते “ये भी तो ठीक नहीं जंचते हैं ‘’ भाँति-भाँति के विविध प्रसाधन बार-बार रचते हैं
और उर्वशी पीकर सब आनन्द मौन रहती है अर्धचेत पुलकातिरेक में मन्द-मन्द बहती है मदनिका इसमें क्या आश्चर्य? प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है, दुर्लभ स्वप्न समान रम्य नारी नर को लगती है
कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी जीवन की जब अजेय केसरी भूल सुध-बुध समस्त तन-मन की पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी-मुख को, क्षण-क्षण रोमाकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को! यही लग्न है वह जब नारी, जो चाहे, वह पा ले, उडुओं की मेखला, कौमुदी का दुकूल मंगवा ले । रंगवा ले उंगलियाँ पदों की ऊषा के जावक से सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से ।
तपोनिष्ठ नर का संचित ताप और ज्ञान ज्ञानी का, मानशील का मान, गर्व गर्वीले, अभिमानी का, सब चढ़ जाते भेंट, सहज ही प्रमदा के चरणों पर कुछ भी बचा नहीं पाता नारी से, उद्वेलित नर ।
किन्तु, हाय, यह उद्वेलन भी कितना मायामय है ! उठता धधक सहज जिस आतुरता से पुरुष ह्रदय है, उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में रखा चाहती वह समेटकर सागर को बंधन में । औशीनरी किन्तु बन्ध को तोड़ ज्वार नारी में जब जगता है तब तक नर का प्रेम शिथिल, प्रशमित होने लगता है । पुरुष चूमता हमें, अर्ध-निद्रा में हमको पाकर, पर, हो जाता विमिख प्रेम के जग में हमें जगाकर ।
और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला, पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला । वही आंसुओं की माला अब मुझे पिरोनी होगी । निपुणिका इसी भाँती क्या महाराज भी होंगे नहीं वियोगी ? आप सद्र्श सन्नारी को यदि राजा ताज सकते हैं, आँख मूंद स्वर्वेश्या को कब तक वे भज सकते हैं ? औशीनरी कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है । जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है । मदनिका उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की, नई-नई प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की । वश में आई हुई वस्तु से इसको तोष नहीं है, जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है ।
नई सिद्धि-हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर, नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है नर । करस्पर्श से दूर, स्वप्न झलमल नर को भाता है, चहक कर जिसको पी न सका,वह जल नर को भाता है । ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है, जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है
क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर, ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर; जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो, प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में, पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में । औशीनरी गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके, जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भर के पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी? जीत गयी अप्सरा, सखी ! मैं रानी बनकर हारी । निपुणिका इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने?
महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं, जिसका चित्त अप्सराएं कर सकती सहज हरण हैं? कार्त्तिकेय-सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी, रावी-सम तेजवंत, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी; घनाद-सदृश संग्रही, व्योमवत मुक्त, जल्द-निभ त्यागी, कुसुम-सदृश मधुमय, मनोज्ञ , कुसुमायुध से अनुरागी ।
ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है? कौन वस्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है? औशीनरी
अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक न कर सकी हूँ ? कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ ? प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है । न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है ।
तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को, सड़ा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को । पर, वह मिलता नहीं, चमक, जाने क्यों खो गयी कहाँ पर ! जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गयी कहाँ पर !
सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है, जिससे नारी के अंतर का मान-पद्म खिलता है । वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से, देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से ।
वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है, प्रौढा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है । अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी, जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठती है नारी । मदनिका जब तक यह रस-दृष्टि, तभी तक रसोद्रेक जीवन में, आलिंगन में पुलक और सिहरन सजीव चुम्बन में । विरस दृष्टि जब हुई स्वाद चुम्बन का खो जाता है, दारु-स्पर्श-वत सारहीन आलिंगन हो जाता है ।
वपु तो केवल ग्रन्थ मात्र है,क्या हो काय-मिलन से ? तन पर जिसे प्रेम लिखता,कविता आती वह मन से । पर, नर के मन को सदैव वश में रखना दुष्कर है, फूलों से यह मही पूर्ण है और चपल मधुकर है ।
पुरुष सदा आक्रांत विचरता मादक प्रणय-क्षुधा से, जय से उसको तृप्ति नहीं,संतोष न कीर्ति-सुधा से । असफलता में उसे जननी का वक्ष याद आता है, संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है ।
संघर्षों से श्रमित-श्रांत हो पुरुष खोजता विह्वल सर धरकर सोने को, क्षण-भर, नारी का वक्षस्थल । आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन, और विपद में रमणी के अंगों का गाढ़ालिंगन ।
जलती हुई धूप में आती याद छांह की, जल की, या निकुंज में राह देखती प्रमदा के अंचल की । और नरों में भी, जो जितना ही विक्रमी, प्रबल है, उतना ही उद्दाम, वेगमय उसका दीप्त अनल है
प्रकृति-कोष से जो जितना हिएज लिए आता है, वह उतना ही अनायास फूलों से कट जाता है । अगम, अगाध, वीर नर जो अप्रतिम तेज-बल-धारी, बड़ी सहजता से जय करती उसे रूपसी नारी ।
तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है, युवती के उज्जवल कपोल पर वही दृष्टि सोती है । जो बाँहें गिरी को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं, उरःपीड-परिरंभ-वेदना वही दान करती हैं ।
जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रांत, गम है, उसकी बडवाग्नि उतनी ही अविश्रांत, दुर्दम है । बंधन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं, किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं। निपुणिका इस प्रचंडता का जग में कोई उपचार नहीं है ? औशीनरी पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है । जब तक है यह दशा, नारियां व्यथा कहाँ खोयेंगी? आंसू छिपा हँसेंगी, फिर हंसते-हँसते रोएंगी ।
[कंचुकी का प्रवेश] कंचुकी जय हो भट्टारिके ! मार्ग भट्टारक को दिखलाने और उन्हें सक्षेम गंधमादन गिरि तक पहुंचाने जो सैनिक थे गए,आज वे नगर लौट आए हैं, और आपके लिए संदेशा यह प्रभु का लाए हैं ।
"पवन स्वास्थ्यदाई, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है, झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है । लम्बे-लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए, एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए
दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नंदन-वन हैं, जहां देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुञ्ज-भवन हैं । शिखरों पर हिमराशी और नीचे झरनों का पानी, बीचों बीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी ।
बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में, किन्तु यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में । प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है, एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है ।
पुत्र ! पुत्र ! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा? देवि ! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा? करती रहें प्रार्थना, त्रुटी हो नहीं धर्म-साधन में, जहां रहूं, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में." निपुणिका सुन लिया सन्देश आर्ये ? औशीनरी हाँ, अनोखी साधना है, अप्सरा के संग रमना ईश की आराधना है ! पुत्र पाने के लिए बिहरा करें वे कुञ्ज-वन में, और मैं आराधना करती रहूं सूने भवन में ।
कितना विलक्षण न्याय है ! कोई न पास उपाय है ! अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है ।
दुःख-दर्द जतलाओ नहीं, मन की व्यथा गाओ नहीं, नारी ! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं ।
तब भी मरुत अनुकूल हों, मुझको मिलें, जो शूल हों, प्रियतम जहां भी हों, बिछे सर्वत्र पथ में फूल हों ।
तृतीय अंक आरम्भ
पुरुरवः ! पुनरस्तं परेहि, दुरापना वात इवाहमस्मि -ऋग्वेद
हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ मैं वायु के सामान दुष्प्राप्य हूँ
(गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी) पुरुरवा जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है; जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से, अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आई है । जब से हम-तुम मिले, रूप के अगम, फुल कानन में अनिमिष मेरी दृष्टि किसी विस्मय में ड़ूब गयी है, अर्थ नहीं सूझता मुझे अपनी ही विकल गिरा का; शब्दों से बनाती हैं जो मूर्त्तियां, तुम्हारे दृग से । उठने वाले क्षीर-ज्वार में गल कर खो जाती हैं । खड़ा सिहरता रहता मैं आनंद-विकल उस तरु-सा जिसकी डालों पर प्रसन्न गिलहरियाँ किलक रही हों, या पत्तों में छिपी हुई कोयल कूजन करती हो । उर्वशी जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को, लय होता जा रहा मरुदगति से अतीत-गह्वर में । किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी, यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था । उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था, कल्प बिताये बिना न हटाती थीं वे काल-निशाएँ कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर; पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को । निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का । मिले, अंत में, तब, जब ललना की मर्याद गंवाकर स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई । पुरुरवा चिर कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का, इसे छोड़कर और दूसरा कौन पथ संभव था ? उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके और छोड़कर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में लौटा जब मैं राजभवन को, लगा, देह ही केवल रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गयी है; छूट गये हैं प्राण उन्हीं उज्जवल मेघों के वन में, जहां मिली थी तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी । कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं, अब उर्वशी बिना यह जीवन दूबर हुआ जाता है,
बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भू-तल पर आने दें पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख मांगते हैं क्या"? और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ? मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से , उसका ह्रदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ? बाहर सांकल नहीं जिसे तू खोल ह्रदय पा जाए, इस मंदिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है ।
"और कभी ये भी सोचा है, जिस सुगंध से छककर विकल वायु बह रही मत्त होकर त्रिकाल-त्रिभुवन की, उस दिगंत-व्यापिनी गंध की अव्यय, अमर शिखा को मर्त्य प्राण की किस निकुंज-वीथी में बाँध धरेगा?"
इसीलिए, असहाय तड़पता बैठा रहा महल में लेकर यह विश्वास, प्रीती यदि मेरी मृषा नहीं है, मेरे मन का दाह व्योम के नीचे नहीं रुकेगा, जलद-पुंज को भेद, पहुँचकर पारिजात के वन में वह अवश्य ही कर देगा संतप्त तुम्हारे मन को । और प्रीती जागने पर तुम वैकुंठ-लोक को तजकर किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी । उर्वशी सो तो मैं आ गयी, किन्तु, यह वैसा ही आना है, अयस्कांत ले खींच अयस को जैसे निज बाहों में । पर, इस आने में किंचित भी स्वाद कहाँ उस सुख का, जो सुख मिलता उन मनस्विनी वामलोचनाओं को जिन्हें प्रेम से उद्वेलित विक्रमा पुरुष बलशाली रण से लाते जीत या कि बल-सहित हरण करते हैं ।
नदियाँ आती स्वयं, ध्यान सागर, पर, कब देता है? बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को चिर-अतृप्त, उद्भ्रांत महोदधि लहराता रहता है ।
वही धनी जो मान्मयी प्रणयी के बाहु-वलय में खिंची नहीं,विक्रम-तरंग पर चढ़ी हुई आती है ।
हरण किया क्यों नहीं, मांग लाने में यदि अपयश था?
पुरुरवा
अयशमूल दोनों विकर्म हैं,हरण हो कि भिक्षाटन
और हरण करता मैं किसका ? उस सौन्दर्य सुधा का
जो देवों की शान्ति, इन्द्र के दृग की शीतलता थी?
नहीं बढाया कभी हाथ पर के स्वाधीन मुकुट पर,
न तो किया संघर्ष कभी पर की वसुधा हरने को ।
तब भी प्रतिष्ठानपुर वंदित है सहस्र मुकुटों से,
और राज्य-सीमा दिन-दिन विस्तृत होती जाती है ।
इसी भांति, प्रत्येक सुयश, सुख, विजय, सिद्धि जीवन की
अनायास, स्वयमेव प्राप्त मुझको होती आई है ।
यह सब उनकी कृपा, सृष्टि जिनकी निगूढ़ रचना है।
झुके हुए हम धनुष मात्र हैं, तनी हुई ज्या पर से
किसी और की इच्छाओं के बाण चला करते हैं ।
मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है
कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन-पुलक जगा कर;
कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से
मन का दीपक बुझा, बनाकर तिमिराच्छन्न ह्रदय को ।
किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?
फिर होता संघर्ष तिमिर में दीपक फिर जलाते हैं ।
रंगों की आकुल तरंग जब हमको कस लेती है,
हम केवल डूबते नहीं ऊपर भी उतराते हैं
पुण्डरीक के सदृश मृत्ति-जल ही जिसका जीवन है
पर, तब भी रहता अलिप्त जो सलिल और कर्दम से ।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है
उर्वशी
यह मैं क्या सुन रही ? देवताओं के जग से चल कर
फिर मैं क्या फंस गई किसी सुर के ही बाहू-वलय में ?
अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक ह्रदय तुम्हारा
तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करुँगी?
और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को
मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?
वह विद्युन्मय स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की
नींद टूट जाती,रोमों में दीपक बल उठते हैं ?
वह आलिंगन अन्धकार है, जिसमें बंध जाने पर
हम प्रकाश के महासिंधु में उतरने लगते हैं?
और कहोगे तिमिर-शूल उस चुम्बन को भी जिससे
जड़ता की ग्रंथियां निखिल तन-मन की खुल जाती हैं?
यह भी कैसी द्विधा? देवता गंधों के घेरे से
निकल नहीं मधुपूर्ण पुष्प का चुम्बन ले सकते हैं ।
और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर
ललचाता है दूर गंध के नभ में उड़ जाने को
अनासक्ति तुम कहो, किन्तु, उस द्विधा-ग्रस्त मानव की
झांकी तुम में देख मुझे, जाने क्यों, भय लगता है
तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ आलिंगन में,
मन से, किन्तु, विषण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में
मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?
कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ
आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो
क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोड़न में
और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं
अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी
और अभी यह भाव, गोद में पड़ी हुई मैं जैसे
युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ ।
शमित-वह्नि सुर की शीतलता तो अज्ञात नहीं है;
पर, ज्वलंत नर पर किसका यह अंकुश लटक रहा है
छककर देता उसे नहीं पीने जो रस जीवन का,
न तो देवता-सदृश गंध-नभ में जीने देता है ।
पुरुरवा
कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ ।
पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ ।
आग है कोई, नहीं जो शांत होती;
और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है ।
रूप का रसमय निमंत्रण
या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि
मुझको शान्ति से जीने न देती ।
हर घड़ी कहती, उठो,
इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो,
पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी ।
अब नहीं आगे कभी उद्भ्रांत हूँगी ।
किन्तु रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को,
घूँट या दो घूँट पीते ही
न जानें, किस अतल से नाद यह आता,
"अभी तक भी न समझा ?
दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है ।
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है."
टूट गिरती हैं उमंगें,
बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है ।
अप्रतिभ मैं फिर उसी दुर्गम जलधि में ड़ूब जाता,
फिर वही उद्विग्न चिंतन, फिर वही पृच्छा चिरंतन , "रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और क्या है? स्नेह का सौन्दर्य को उपहार रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"
रक्त की उत्तम लहरों की परिधि के पार कोई सत्य हो तो, चाहता हूँ, भेद उसका जान लूँ । पथ हो सौन्दर्य की आराधना का व्योम में यदि शून्य की उस रेख को पहचान लूँ ।
पर,जहां तक भी उड़ूँ, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है मृत्ति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर? शून्य है सब और नीचे भी नहीं संतोष, मिट्टी के ह्रदय से दूर होता ही कभी अम्बर नहीं है ।
इस व्यथा को झेलता आकाश की निस्सीमता में घूमता फिरता विकल, विभ्रांत पर, कुछ भी न पाता । प्रश्न को कढ़ता, गगन की शून्यता में गूंजकर सब ओर मेरे ही श्रवण में लौट आता.
और इतने में मही का गान फिर पड़ता सुनाई, "हम वही जग हैं, जहां पर फूल खिलते हैं । दूब है शय्या हमारे देवता की, पुष्प के वे कुञ्ज मंदिर हैं जहां शीतल, हरित, एकांत मंडप में प्रकृति के कंटकित युवती-युवक स्वच्छंद मिलते हैं."
"इन कपोलों की ललाई देखते हो? और अधरों की हँसी यह कुंद-सी, जूही-कली-सी ? गौर चम्पक-यष्टि-सी यह देह श्लथ पुष्पभरण से, स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?"
यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो । रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर. ओ गगनचारी! यहाँ मधुमास छाया है । भूमि पर उतारो, कमल, कर्पूर, कुंकुम से, कुटज से इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।"
गीत आता है मही से? या कि मेरे ही रुधिर का राग यह उठता गगन में ? बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ ह्रदय में; याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन; स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख, याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख । कामनाएं प्राण को हिलकोरती हैं । चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में । फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती ।
मैं न रुक पाता कहीं, फिर लौट आता हूँ पिपासित शून्य से साकार सुषमा के भुवन में युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा जो कहीं रुकता नहीं, बेचैन जा गिरता अकुंठित तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में
चूमता हूँ दूब को, जल को, प्रसूनों, पल्लवों को, वल्लरी को बांह भर उर से लगाता हूँ; बालकों-सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह को छिपाकर नींद की निस्तब्धता में डूब जाता हूँ ।
नींद जल का स्रोत है, छाया सघन है, नींद श्यामल मेघ है, शीतल पवन है ।
किन्तु, जगकर देखता हूँ, कामनाएं वर्तिका सी बल रही हैं जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं । रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पड़ा हो, नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पड़ा हो । फिर क्षुधित कोई अतिथि आवाज देता फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को, कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है, रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रुधिर में, चेतना रस की लहर में डूब जाती है
और तब सहसा न जानें , ध्यान खो जाता कहाँ पर । सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान, तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो आरती की ज्योति को भुज में समेटे मैं तुम्हारी ओर अपलक देखता एकांत मन से रूप के उद्गम अगम का भेद गुनता हूँ ।
सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है, सींचता हूँ प्राण को इस गंध की भीनी लहर से, और अंगों की विभा की वीचियों से एक होकर मैं तुम्हारे रंग का संगीत सुनता हूँ
और फिर यह सोचने लगता, कहाँ ,किस लोक में हूँ ? कौन है यह वन सघन हरियालियों का, झूमते फूलों, लचकती डालियों को? कौन है यह देश जिसकी स्वामिनी मुझको निरंतर वारुणी की धार से नहला रही है ? कौन है यह जग, समेटे अंक में ज्वालामुखी को चांदनी चुमकार कर बहला रही है ?
कौमुदी के इस सुनहरे जाल का बल तोलता हूँ, एक पल उड्डीन होने के लिए पर खोलता हूँ।
पर, प्रभंजन मत्त है इस भांति रस-आमोद में, उड़ न सकता, लौट गिरता है कुसुम की गोद में ।
टूटता तोड़े नहीं यह किसलयों का दाम, फूलों की लड़ी जो बांध गई, खुलती नहीं है ।
कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी, खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बांह मेरी.
सिन्धु-सा उद्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है? गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार, उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएं सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल, मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है ।
सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं, कांपता है कुण्डली मारे समय का व्याल, मेरी बांह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है ।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं । अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ, बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ
पर, न जानें, बात क्या है ! इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है, सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है, फूल के आगे वही असहाय हो जाता, शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता ।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से ।
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ । मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ ।
कौन कहता है, तुम्हें मैं छोड़कर आकाश में विचरण करूंगा ?
बाहुओं के इस वलय में गात्र की बंदी नहीं है, वक्ष के इस तल्प पर सोती न केवल देह , मेरे व्यग्र, व्याकुल प्राण भी विश्राम पाते हैं ।
मर्त्य नर को देवता कहना मृषा है, देवता शीतल, मनुज अंगार है ।
देवताओं की नदी में ताप की लहरें न उठतीं, किन्तु, नर के रक्त में ज्वालामुखी हुंकारता है, घूर्नियाँ चिंगारियों की नाचती हैं, नाचते उड़कर दहन के खंड पत्तों-से हवा में, मानवों का मन गले-पिघले अनल की धार है ।
चाहिए देवत्व, पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर? कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ? आग के बदले मुझे संतोष ,बोलो कौन देगा?
फिर दिशाए मौन, फिर उत्तर नहीं है
प्राण की चिर-संगिनी यह वह्नि, इसको साथ लेकर भूमि से आकाश तक चलते रहो । मर्त्य नर का भाग्य ! जब तक प्रेम की धारा न मिलती, आप अपनी आग में जलते रहो ।
एक ही आशा, मरुस्थल की तपन में ओ सजल कादम्बिनी! सर पर तुम्हारी छांह है । एक ही सुख है, उरस्थल से लगा हूँ, ग्रीव के नीचे तुम्हारी बांह है ।
इन प्रफुल्लित प्राण-पुष्पों में मुझे शाश्वत शरण दो, गंध के इस लोक से बाहर न जाना चाहता हूँ । मैं तुम्हारे रक्त के कान में समाकर प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ । उर्वशी स्वर्णदी, सत्य ही, वह जिसमें उर्मियाँ नहीं, खर ताप नहीं देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं पर, ओ, जीवन के चटुल वेग! तू होता क्यों इतना कातर ? तू पुरुष तभी तक, गरज रहा जब तक भीतर यह वैश्वानर । जब तक यह पावक शेष, तभी तक सखा-मित्र त्रिभुवन तेरा, चलता है भूतल छोड़ बादलों के ऊपर स्यन्दन तेरा । जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है, अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है । पथ नहीं रोकते सिंह, राह देती है सघन अरण्यानी तब तक ही शीष झुकाते हैं सामने प्रांशु पर्वत मानी । सुरपति तब तक ही सावधान रहते बढ़कर अपनाने को, अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को । जब तक यह पावक शेष, तभी तक भाव द्वन्द्व के जगते हैं, बारी-बारी से मही, स्वर्ग दोनों ही सुन्दर लगते हैं मरघट की आती याद तभी तक फुल्ल प्रसूनों के वन में सूने श्मशान को देख चमेली-जूही फूलती हैं मन में शय्या की याद तभी तक देवालय में तुझे सताती है, औ’ शयन कक्ष में मूर्त्ति देवता की मन में फिर जाती है । किल्विष के मल का लेश नहीं, यह शिखा शुभ्र पावक केवल, जो किए जा रहा तुझे दग्ध कर क्षण-क्षण और अधिक उज्ज्वल । जितना ही यह खर अनल-ज्वार शोणित में उमह उबलता है । उतना ही यौवन-अगुरु दीप्त कुछ और धधक कर जलता है । मैं इसी अगुरु की ताप-तप्त, मधुमयी गन्ध पीने आई, निर्जीव स्वर्ग को छोड़ भूमि की ज्वाला में जीने आई
बुझ जाए मृत्ति का अनल, स्वर्गपुर का तू इतना ध्यान न कर जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर । तू नहीं जानता इसे, वस्तु जो इस ज्वाला में खिलती है, सुर क्या सुरेश के आलिंगन में भी न कभी वह मिलती है । यह विकल, व्यग्र, विह्वल प्रहर्ष सुर की सुन्दरी कहां पाए ? प्रज्वलित रक्त का मधुर स्पर्श नभ की अप्सरी कहां पाए ? वे रक्तहीन,शुची, सौम्य पुरुष अम्बरपुर के शीतल, सुन्दर, दें उन्हें किंतु क्या दान स्वप्न जिनके लोहित, संतप्त, प्रखर? यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल और ज्वलित भी है, मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है । योगी अनंत, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला, भोगी ज्वलंत, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला; मन की असीमता में, निबद्ध नक्षत्र, पिन्ड, ग्रह, दिशाकाश, तन में रसस्विनी की धारा, मिट्टी की मृदु, सोन्धी सुवास; मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है, वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है । तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले, फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ अपने आलिंगन में भर ले । मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ, छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ । आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंत:सर में मज्जित करके,
हर लूंगी मन की तपन चान्दनी, फूलों से सज्जित करके । रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी, फूलों की छाँह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी। पुरुरवा तुम मेरे बहुरंगे स्वप्न की मणि-कुट्टिम प्रतिमा हो, नहीं मोहती हो केवल तन की प्रसन्न द्युति से ही, पर, गति की भंगिमा-लहर से, स्वर से, किलकिंचित से, और गूढ़ दर्शन-चिंतन से भरी उक्तियों से भी । किंतु, अनल की दाहक्ता यह दर्शन हर सकता है? हर सकते हैं उसे मात्र ये दोनों नयन तुम्हारे, जिनके शुचि, निस्सीम, नील-नभ में प्रवेश करते ही मन के सारे द्विधा-द्वन्द्व, चिंता-भरम मिट जाते हैं । या प्रवाल-से अधर दीप्त, जिनका चुम्बन लेते ही धुल जाती है श्रांति, प्राण के पाटल खिल पड्ते हैं और उमड़ आसुरी शक्ति फिर तन में छा जाती है
किंतु, हाय री, लहर वह्नि की, जिसे रक्त कहते हैं; किंतु, हाय री, अविच्छिन्न वेदना पुरुष के मन की । कर्पूरित, उन्मद, सुरम्य इसके रंगीन धुएँ में जानें, कितनी पुष्पमुखी आकृतियाँ उतराती हैं रंगों की यह घटा ! व्यग्र झंझा यह मादकता की! चाहे जितनी उड़े बुद्धि पर राह नहीं पाती है । छिपता भी यदि पुरुष कभी क्षण-भर को निभृत निलय में यही वह्नि फिर उसे खींच् मधुवन में ले आती है । अप्रतिहत यह अनल! दग्ध हो इसकी दाहकता से कुंज-कुंज में जगे हुए कोकिल क्रन्दन करते हैं । घूणि चक्र, आंसू, पुकार, झंझा, प्रवेग, उद्वेलन, करते रहते सभी रात भर दीर्ण-विदीर्ण तिमिर को, और प्रात जब महा क्षुब्ध प्लावन पग फैलाता है, जगती के प्रहरी-सेवित सब बन्ध टूट जाते हैं । दुर्निवार यह वह्नि, मुग्ध इसकी लौ के इंगित से उठते हैं तूफान और संसार मरा करता है ।
उर्वशी
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी, क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है । निरी बुद्धि की निर्मितियाँ निष्प्राण हुआ करती हैं; चित्र और प्रतिमा, इनमें जो जीवन लहराता है, वह सूझों से नहीं, पत्र-पाषाणों में आया है, कलाकार के अंतर के हिलकोरे हुए रुधिर से । क्या विश्वास करे कोई कल्पनामयी इस धी का? अमित वार देती यह छलना भेज तीर्थ-पथिकों को उस मन्दिर की ओर, कहीं जिसका अस्तित्व नहीं है
पर,शोणित दौड़ता जिधर को,उस अभिप्रेत दिशा में, निश्चय ही, कोई प्रसून यौवानोत्फुल्ल सौरभ से विकल-व्यग्र मधुकर को रस-आमंत्रण भेज रहा है । या वासकसज्जा कोई फूलों के कुञ्ज-भवन में पथ जोहती हुई, संकेतस्थल सूचित करने को खड़ी समुत्सुक पद्म्राग्मानी-नूपुर बजा रही है ।
या कोई रूपसी उन्मना बैठी जाग रही है प्रणय-सेज पर, क्षितिज-पास, विद्रुम की अरुणाई में सिर की ओर चन्द्रमय मंगल-निद्राकलश सजा कर
श्रुतिपट पर उत्तप्त श्वास का स्पर्श और अधरों पर, रसना की गुदगुदी, अदीपित निश के अन्धियाले में रस-माती, भटकती ऊंगलियों का संचरण त्वचा पर; इस निगूढ़ कूजन का आशय बुद्धि समझ सकती है?
उसे समझना रक्त, एक कम्पन जिसमें उठता है किसी दूब की फुनगी से औचक छू जाने पर भी बुद्धि बहुत करती बखान सागर-तट की सिकता का, पर, तरंग-चुम्बित सैकत में कितनी कोमलता है, इसे जानती केवल सिहरित त्वचा नग्न चरणों की । तुम निरुपते हो विराग जिसकी भीषिका सुनाकर, मेरे लिये सत्य की वानी वही तप्त शोणित है । पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का; यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमायेगी, छली बुद्धि की भांति,जिसे सुख-दुख से भरे भुवन में पाप दीखता वहाँ जहाँ सुन्दरता हुलस रही है, और पुष्प-चय वहाँ जहाँ कंकाल, कुलिश, कांटे हैं । पुरुरवा द्वन्द्व शूलते जिसे, सत्य ही, वह जन अभी मनुज है देवी वह जिसके मन में कोई संघर्ष नहीं है । तब भी, मनुज जन्म से है लोकोत्तर, दिव्य तुम्हीं-सा, मटमैली, खर, चटुल धार निर्मल, प्रशांत उद्गम की
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो । निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नहीं पाते हैं पहुंच नहीं पाते उस अव्यय, एक, पूर्ण सविता तक, खोए हुए अचेत माधवी किरणों के कलरव में
ये किरणें, ये फूल, किंतु, अप्रतिम सोपान नहीं हैं उठना होगा बहुत दूर ऊपर इनके तारों पर, स्यात, ऊर्ध्व उस अम्बर तक जिसकी ऊंचाई पर से यह मृत्तिका-विहार दिव्य किरणों का हीन लगेगा । दाह मात्र ही नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी, नारी जब देखती पुरुष की इच्छा-भरे नयन को, नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में, मन में किसी कांत कवि को भी जन्म दिया करती है । नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की, शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है । तन्मय हो सुनता मनुष्य जब स्वर कोकिल-कंठी का, कवि हो रहता लीन रूप की उज्ज्वल झंकारों में । नर चाहता सदेह खींच रख लेना जिसे हृदय में कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है । कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से दोनों मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते है, उस अनंत में जो अमूर्त धागों से बान्ध रहा है सभी दृश्य सुषमाओं को अविगत, अदृश्य सत्ता से । देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की, सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक । यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमन्डल में किसी दिव्य,अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है
जगता प्रेम प्रथम लोचन में, तब तरंग-निभ मन में, प्रथम दीखती प्रिया एकदेही, फिर व्याप्त भुवन में, पहले प्रेम स्पर्श होता है,तदनंतर चिंतन भी, प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी । मुझमें जिस रहस्य चिंतक को तुमने जगा दिया है उड़ा चाहता है वह भावुक निरभ्र अम्बर में घेर रहा जो तुम्हें चतुर्दिक अपनी स्निग्ध विभा से, समा रहीं जिसमें अलक्ष्य आभा-उर्मियाँ तुम्हारी ।
वह अम्बर जिसके जीवन का पावस उतर चुका है, चमक रही है धुली हुई जिसमें नीलिमा शरद की । वह निरभ्र आकाश, जहाँ, सत्य ही, चन्द्रमा सी तुम तैर रही हो अपने ही शीतल प्रकाश-प्लावन से , किरण रूप में मुझे समाहित किये हुए अपने में । वह नभ, जहाँ गूढ़ छवि पर से अम्बर खिसक गया है, परम कांति की आभा में सब विस्मित, चकित खड़े हैं, अधर भूल कर तृषा और शोणित निज तीव्र क्षुधा को । वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में, न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो; दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के, देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है । ऊपर जो द्युतिमान, मनोमय जीवन झलक रहा है, उसे प्राप्त हम कर सकते हैं तन के अतिक्रमण से तन का अतिक्रमण, यानी इन दो सुरम्य नयनों के वातायन से झांक देखना उस अदृश्य जगती को जहाँ मृत्ति की सीमा सूनेपन में बिला रही है तन का अतिक्रमण,यानी मांसल आवरण हटाकर आंखों से देखना वस्तुओं के वास्तविक हृदय को और श्रवण करना कानों से आहट उन भावों की जो खुल कर बोलते नहीं, गोपन इंगित करते हैं जो कुछ भी हम जान सके हैं यहाँ देह या मन से वह स्थिर नहीं, सभी अटकल-अनुमान-सदृश लगता है अत:, किसी भी भांति आप अपनी सीमा लंघित कर् अंतरस्थ उस दूर देश में हम सबको जाना है जहाँ न उठते प्रश्न, न कोई शंका ही जगती है । तुम अशेष सुन्दर हो, पर, हो कोर मात्र ही केवल उस विराट छवि की,जो, घन के नीचे अभी दबी है अतिक्रमण इसलिये कि इन जलदॉ का पटल हटाकर देख सकूँ , मधुकांतिमान सारा सौन्दर्य तुम्हारा । मध्यांतर में देह और आत्मा के जो खाई है अनुल्लन्घ्य वह नहीं, प्रभा के पुल से संयोजित है अतिक्रमण इसलिये, पार कर इस सुवर्ण सेतु को उद्भासित हो सकें भूतरोत्तर जग की आभा से सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है और चुनें गोपन भेदॉ को, जो समाधि-कानन में कामद्रुम से, कुसुम सदृश, नीरव अशब्द झरते हैं यह अति-क्रांति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का देह-धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाना है यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में मौन ग्रहण यह उन अपार शोभाशाली बिम्बों का, जो नारी से निकल पुरुष के मन में समा रहे हैं यह अति-क्रांति वियोग नहीं, शोणित के तप्त ज्वलन का परिवर्तन है स्निग्ध, शांत दीपक की सौम्य शिखा में निन्दा नहीं, प्रशस्ति प्रेम की, छलना नहीं,समर्पण त्याग नहीं, संचय; उपत्यकाओं के कुसुम-द्रुमों को ले जाना है यह समूल नगपति के तुंग शिखर पर वहाँ जहाँ कैलाश-प्रांत में शिव प्रत्येक पुरुष है और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी । पर, कैसा दुसाध्य पंथ, कितना उड्डयन कठिन है पहले तो मधु-सिक्त भ्रमर के पंख नहीं खुलते हैं और खुले भी तो उड़ान आधी ही रह जाती है ; नीचे उसे खींच लेता है आकर्षण मधुवन का देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की ममता रखती रोक उसे अति दूर देश जाने से बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का।
उर्वशी
अतिक्रमण सुख की तरंग, तन के उद्वेलित मधु का? तुम तो जगा रहे मुझ में फिर उसी शीत महिमा को जिसे टांग कर पारिजात-द्रुम की अकम्प टहनी में मैं चपलोष्ण मानवी-सी भू पर जीने आई हूँ
पर, मैं बाधक नहीं, जहाँ भी रहो, भूमि या नभ में वक्षस्थल पर इसी भांति मेरा कपोल रहने दो कसे रहो, बस इसी भांति, उर-पीड़क आलिंगन में और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से
किंतु आह! यों नहीं तनिक तो शिथिल करो बाहों को; निष्पेषित मत करो, यदपि, इस मधु-निष्पेषण में भी मर्मांतक है शांति और आनन्द एक दारुण है
तुम पर्वत मैं लता, तुम्हारी बलवत्तर बाँहों में विह्वल, रस-आकुलित, क्षाम मैं मूर्छित हो जाऊँगी
ना, यों नहीं; अरे, देखो तो उधर, बड़ा कौतुक है, नगपति के उत्तुंग, समुज्ज्वल, हिम-भूषित शृगों पर कौन नई उज्जवलता की तूली सी फेर रहा है? कुछ वृक्षो के हरित-मौलि पर, कुछ पत्तों से छनकर छँह देख नीचे मृगांक की किरणें लेट गई हैं ओढ़े धूप-छम्ह की जाली ,अपनी ही निर्मिति की । लगता है, निष्कम्प, मौन सारे वन-वृक्ष खड़े हों पीताम्बर, उष्णीष बान्धकर छायातप-कुट्टिम पर । दमक रही कर्पूर धूलि दिग्बन्धुओं के आनन पर; रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है यह अधित्यका दिन में तो कुछ इतनी बडी नहीं थी? अब क्या हुआ कि यह अनंत सागर-समान लगती है? कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की? उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है रसप्रसन्न मधुकांति चतुर्दिक ऐसे उमड़ रही है, मानो, निखिल सृष्टि के प्राणों में कम्पन भरने को एक साथ ही सभी बाण मनसिज ने छोड़ दिये हों । पुरुरवा हाँ समस्त आकाश दीखता भरा शांत सुषमा से चमक रहा चन्द्रमा शुद्ध, शीतल, निष्पाप हृदय-सा विस्मृतियाँ निस्तल समाधि से बाहर निकल रही हैं लगता है, चन्द्रिका आज सपने में घूम रही है । और गगन पर जो असंख्य आग्नेय जीव बैठे हैं लगते हैं धुन्धले अरण्य में हीरों के कूपों-से । चन्द्रभूति-निर्मित हिमकण ये चमक रहे शाद्वल में? या नभ के रन्ध्रों में सित पारावत बैठ गये हैं? कल्प्द्रुम के कुसुम, या कि ये परियों की आंखें हैं? उर्वशी कल्पद्रुम के कुसुम नहीं ये, न तो नयन परियों के, ये जो दीख रहे उजले-उजले से नील गगन में, दीप्तिमान, सित, शुभ्र, श्मश्रुमय देवों के आनन हैं । शमित वह्नि ये शीत-प्राण पीते सौन्दर्य नयन से, घ्राण मात्र लेते, न कुसुम का अंग कभी छूते हैं
पर, देखो तो, दिखा-दिखा दर्पण शशांक यह कैसे सब के मन का भेद गुप्तचर-सा पढ़्ता जाता है, (भेद शैल-द्रुम का, निकुंज में छिपी निर्झरी का भी.) और सभी कैसे प्रसन्न अभ्यंतर खोल रहे हैं, मानो चन्द्र-रूप धर प्राणों का पाहुन आया हो । ऐसी क्या मोहिनी चन्द्रमा के कर में होती है? पुरुरवा ऋक्षकल्प झिलमिल भावों का, चन्द्रलिंग स्वप्नों का दिवस शत्रु, एकांत यामिनी धात्री है, माता है । आती जब शर्वरी, पोंछती नहीं विश्व के सिर से केवल तपन-चिन्ह, केवल लांछन सफेद किरणों के; श्रमहारी, निर्मोघ, शांतिमय अपने तिमिरांचल में कोलाहल, कर्कश निनाद को भी समेट लेती है तिमिर शांति का व्यूह, तिमिर अंतर्मन की आभा है, दिन में अंतरस्थ भावों के बीज बिखर जाते हैं; पर हम चुनकर उन्हें समंजस करते पुन: निशा में जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है । जो सपने दिन के प्रकाश में धूमिल हो जाते हैं या अदृश्य अपने सोदर, संकोचशील उडुओं-से, वही रात आने पर कैसे हमें घेर लेते हैं ज्योतिर्मय, जाज्वल्यमान, आलोक-शिखाएँ बनकर! निशा योग-जागृति का क्षण है उदग्र प्रणय की ऐकायनिक समाधि; काल के इसी गरुत के नीचे भूमा के रस-पथिक समय का अतिक्रमण करते हैं योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में । समतामयी उदार शीतलांचल जब फैलाती है, जाते भूल नृपति मुकुटॉ को, बन्दी निज कड़ियों को; जग भर की चेतना एक होकर अशब्द बहती है किसी अनिर्वचनीय, सुखद माया के महावरण में । साम्राज्ञी विभ्राट, कभी जाते इसको देखा है समारोह-प्रांगण में पहने हुए दुकूल तिमिर का नक्षत्रों से खचित, कूल-कीलित झालरें विभा की गूँथे हुए चिकुर में सुरभित दाम श्वेत फूलों के? और सुना है वह अस्फुट मर्मर कौशेय वसन का जो उठता मणिमय अलिन्द या नभ के प्राचीरों पर मुक्ता-भर,लम्बित दुकूल के मन्द-मन्द घर्षण से, राज्ञी जब गर्वित गति से ज्योतिर्विहार करती है?
निशा शांति का क्रोड़; किंतु, यह सुरभित स्फटिक-भवन में तब भी, कोई गीत ज्योति से मिला हुआ चलता है यह क्या है? कौमुदी या कि तारे गुन-गुन गाते है? दृश्य श्रव्य बनकर अथवा श्रुतियों में समा रहा है? बजती है रागिनी सुप्त सुन्दरता की साँसॉ की या अपूर्व कविता चिर-विस्मृत किसी पुरातन कवि की गूँज रही निस्तब्ध निशा में निकल काल-गह्वर से? यह अगाध सुषमा, अनंतता की प्रशांत धारा में, लगता है, निश्चेत कहीं हम बहे चले जाते हैं । उर्वशी अतल, अनादि, अनंत, पूर्ण, बृंहित, अपार अम्बर में सीमा खींचे कहाँ? निमिष, पल, दिवस, मास, संवत्सर महाकाश में टंगे काल के लक्तक-से लगते हैं । प्रिय! उस पत्रक को समेट लो जिसमें समय सनातन क्षण, मुहुर्त, संवत, शताब्दि की बून्दों में अंकित है । बहने दो निश्चेत शांति की इस अकूल धारा में, देश-काल से परे, छूट कर अपने भी हाथों से । किस समाधि का शिखर चेतना जिस पर ठहर गई है? उड़ता हुआ विशिख अम्बर में स्थिर-समान लगता है ।
पुरुरवा
रुको समय-सरिते! पल! अनुपल! काल-शकल! घटिकाओ! इस प्रकार, आतुर उड़ान भर कहाँ तुम्हें जाना है? कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का, काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है कहीं कुंडली मार कर बैठ जाओ नक्षत्र-निलय में मत ले जाओ खींच निशा को आज सूर्य-वेदी पर । रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की; एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का, एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूंघ लेने दो । मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है; जनमा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है । जिस प्रकार नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की, और हिमालय की गाथा विदित महासागर को, वर्तमान, त्यों ही, अपने गृह में जो कुछ करता है, भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं । सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान खड़े हैं दिगायाम में जैसे एक साथ; त्यों काल-देवता के महान प्रांगण में भूत, भविष्यत, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं बातें करते हुए परस्पर गिरा-मुक्त भाषा में । कहाँ देश, हम नहीं व्योम में जिसके गूँज रहे हैं कौन कल्प, हम नहीं तैरते हैं जिसके सागर में? महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है, बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर । उर्वशी हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनों के एकार्णव में तैर रहे सम्पृक्त सभी वीचियों, कणों, अणुओं से । समा रही धड़कनें उरों की अप्रतिहत त्रिभुवन में, काल-रन्ध्र भर रहा हमारी सांसॉ के सौरभ से । अंतर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणों का! सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम? पुरुरवा महाशून्य के अंतर्गृह में, उस अद्वैत-भवन में जहाँ पहुंच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है । इस निरभ्र नीलांतरिक्ष की निर्झर मंजुषा में सर्ग-प्रलय के पुराव्र्त्त जिसमें समग्र संचित हैं । दूरागत इस सतत-संचरण-मय समीर के कर में कथा आदि की जिसे अंत की श्रुति तक ले जाना है इस प्रदीप्त निश के अंचल में, जो आप्रलंय निरंतर, इसी भांति, सुनती जायेगी कूजन गूढ़ प्रणय का ।
उस अदृश्य के पद पर, जिसकी दयासिक्त, मृदु स्मिति में, हम दोनों घूमते और क्रीड़ा विहार करते हैं । जिसकी इच्छा का प्रसार भूतल, पाताल, गगन है, दौड़ रहे नभ में अनंत कन्दुक जिसकी लीला के अगणित सविता-सोम, अपरिमित ग्रह, उडु-मंडल बनकर; नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है और बेधता पुरुष-कांति बन हृदय-पुष्प नारी का । निधि में जल, वन में हरीतिमा जिसका घनावरण है, रक्त-मांस-विग्रह भंगुर ये उसी विभा के पट हैं । प्रणय-श्रृंग की निश्चेतनता में अधीर बाँहों के आलिंगन में देह नहीं श्लथ, यही विभा बँधती है । और चूमते हम अचेत हो जब असंज्ञ अधरों को,
वह चुम्बन अदृश्य के चरणों पर भी चढ़ जाता है ।
देह मृत्ति, दैहिक प्रकाश की किरणें मृत्ति नहीं हैं, अधर नष्ट होते, मिटती झंकार नहीं चुम्बन की; यह अरूप आभा-तरंग अर्पित उसके चरणों पर, निराकार जो जाग रहा है सारे आकारों में । उर्वशी रोम-रोम में वृक्ष, तरंगित, फेनिल हरियाली पर चढ़ी हुई आकाश-ओर मैं कहाँ उड़ी जाती हूँ? पुरुरवा देह डूबने चली अतल मन के अकूल सागर में किरणें फेंक अरूप रूप को ऊपर खींच रहा है । उर्वशी करते नहीं स्पर्श क्यों पगतल मृत्ति और प्रस्तर का? सघन, उष्ण वह वायु कहाँ है? हम इस समय कहाँ हैं? पुरुरवा छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुंच रहे हैं उर्वशी फूलों-सा सम्पूर्ण भुवन सिर पर इस तरह, उठाए यह पर्वत का श्रृंग मुदित हमको क्यों हेर रहा है? पुरुरवा अयुत युगों से ये प्रसून यों ही खिलते आए हैं, नित्य जोहते पंथ हमारे इसी महान मिलन का । जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में, नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर तब प्रहर्ष की अति से यों ही प्रकृति काँप उठती है, और फूल यों ही प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं । उर्वशी जला जा रहा अर्थ सत्य का सपनों की ज्वाला में, निराकार में आकारों की पृथ्वी डूब रही है । यह कैसी माधुरी? कौन स्वर लय में गूंज रहा है त्वचा-जाल पर, रक्त-शिराओं में, अकूल अंतर में? ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ री बेबसी गिरा की! दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को? पुरुरवा शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है; प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी? भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणों की । उर्वशी कौन पुरुष तुम? पुरुरवा जो अनेक कल्पों के अंधियाले में तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को जन्मों के अनेक कुंजों, वीथियों, प्रार्थनाओं में, पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघों पर एक पुष्प में अमित युगों के स्वप्नों की आभा-सी उर्वशी और कौन मैं? पुरुरवा ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता हूँ इतना ही है ज्ञात, तुम्हारे आते ही अंतर का द्वार स्वयं खुल गया और प्राणों का निभृत निकेतन् अकस्मात, भर गया स्वरित रंगों के कोलाहल से । जब से तुम आई पृथ्वी कुछ अधिक मुदित लगती है; शैल समझते हैं, उनके प्राणों में जो धारा है, बहती है पहले से वह,कुछ अधिक रसवती होकर जब से तुम आई धरती पर फूल अधिक खिलते हैं, दौड़ रही कुछ नई दीप्ति सी शीतल हरियाली में । सब हैं सुखी, एक नक्षत्रों को ऐसा लगता है जैसे कोई वस्तु हाथ से उनके निकल गई हो । उर्वशी और मिले जब प्रथम-प्रथम तुम, विद्युत चमक उठी थी इन्द्रधनुष बनकर भविष्य के नीले अन्धियाले पर तुम मेरे प्राणेश, ज्ञान-गुरु, सखा, मित्र, सह्चर हो; जहाँ कहीं भी प्रणय सुप्त था शोणित के कण-कण में तुमने उसको छेड़ मुझे मूर्छा से जगा दिया है । प्राणों में शीतल शुचिता सद्य:प्रस्फुटित कमल की; लगता है ऋजु प्रभा हृदय में पुन: लौट आई है भरी चुम्बनों की फुहार, कम्पित प्रमोद की अति से जाग उठी हूँ मैं निद्रा से जगी हुई लतिका-सी प्रथम-प्रथम ही सुना नाद उद्गम पर बजते जल का, प्रथम-प्रथम ही आदि उषा की द्युति में भीग रही हूँ । तन की शिरा-शिरा में जो रागिनियाँ बन्द पड़ी थी कौन तुम्हारे बिना उन्हें उन्मोचित कर सकता था? कौन तुम्हारे बिना दिलाता यह विश्वास हृदय को, अंतरिक्ष यह स्वयं भूमि है किसी अन्य जगती की, सम्मुख जो झूमते वृक्ष,वे वृक्ष नहीं बादल हैं? यह ज्योतिर्मय रूप? प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से काट पुरुष-प्रतिमा विराट निज मन के आकारों की, महाप्रान से भर उसको, फिर भू पर गिरा दिया है; स्यात्, स्वर्ग की सुन्दरियों, परियों को ललचाने को, स्यात्, दिखाने को, धरती जब महावीर जनती है, असुरों से वह बली, सुरों से भी मनोज्ञ् होता है ।
उफ री यह माधुरी! और ये अधर विकच फूलों-से! ये न्वीन पाटल के दल आनन पर जब फिरते हैं, रोम-कूप, जानें, भर जाते किन पीयुष कणों से! और सिमटते ही कठोर बाँहों के आलिंगन में, चटुल एक-पर-एक उष्ण उर्मियाँ तुम्हारे तन की मुझमें कर संक्रमण प्राण उन्मत्त बना देती हैं कुसुमायित पर्वत-समान तब लगी तुम्हारे तन से मैं पुलकित-विह्वल, प्रसन्न-मूर्च्छित होने लगती हूँ कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में? पुरुरवा हाय, तृषा फिर वही तरंगों में गाहन करने की! वही लोभ चेतना-सिन्धु के अपर पार जाने का झम्प मार तन की प्रतप्त, उफनाती हुई लहर में? ठहर सकेगा कभी नहीं क्या प्रणय शून्य अम्बर पर? विविध सुरों में छेड़ तुम्हारी तंत्री के तारों को, बिठा-बिठा कर विविध भांति रंगों में, रेखाओं में, कभी उष्ण उर-कम्प, कभी मानस के शीत मुकुर में, बहुत पढ़ा मैने अनेक लोकों में तुम्हें जगाकर । पर, इन सब से खुलीं पूर्ण तुम? या जो देख रहा हूँ, मायाविनि! वह बन्द मुकुल है, महासिन्धु का तट है? कहाँ उच्च वह शिखर, काल का जिस पर अभी विलय था? और कहाँ यह तृषा ग्राम्य नीचे आकर बहने की पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में? भ्रांत स्वयं या जान-बूझकर मुझको भ्रमा रही हो? उर्वशी भ्रांति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं, शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है । किसने कहा तुम्हें, परमेश्वर और प्रकृति, ये दोनों साथ नहीं रहते; जिसको भी ईश्वर तक जाना है, उसे तोड़ लेने होंगे सारे सम्बन्ध प्रकृति से; और प्रकृति के रस में जिसका अंतर रमा हुआ है, उसे और जो मिले, किंतु, परमेश्वर नहीं मिलेगा? किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है, उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का; और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को, देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है? ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से; इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है
माया कह क्यों मृषा मेटते हो अस्तित्व प्रकृति का? ये नदियाँ, ये फूल, वृक्ष ये और स्वयं हम-तुम भी शून्य मंच पर सत्वशील, जीवित, साकार खड़े हैं । और यहाँ जो कुछ करते हैं उसकी गंध हवा में उड़ते-उड़ते दूर जन्म-जन्मांतर तक जाती है । शिखरों में जो मौन, वही झरनों में गरज रहा है, ऊपर जिसकी ज्योति, छिपा है वही गर्त्त के तम में । तब किस भय से भाग रहे नीचे की तिमिरपुरी से? शिखरों पर का कौन लोभ ऊपर को खींच रहा है? अन्धा हो जाता मनुष्य रवि की भी प्रखर प्रभा से और किसी को अन्धियाले में भी सब कुछ दिखता है । मुक्ति खोजते हो? पर,यह तो कहो कि किस बंधन से? ये प्रसून, यह पवन बन्ध है? या मैं बाँध रही हूँ? अच्छा, खुल जाओ प्रसून से, पवन और मुझसे भी; अब बोलो, मन पर जो बाकी कोई बन्ध नहीं है? बन्ध नियम,संयम, निग्रह, शास्त्रों की आज्ञाओं का? मोह मात्र ही नहीं सभी ऐसे विचार बन्धन हैं जो सिखलाते हैं मनुष्य को, प्रकृति और पर्मेश्वर दो हैं; जो भी प्रकृत हुआ, वह हुआ दूर ईश्वर से; ईश्वर का जो हुआ, उसे फिर प्रकृति नहीं पायेगी । प्रकृति नहीं माया, माया है नाम भ्रमित उस धी का, बीचोंबीच सर्प-सी जिसकी जिह्वा फटी हुई है; एक जीभ से जो कहती कुछ सुख अर्जित करने को, और दूसरी से बाकी का वर्णन सिखलाती है
मन की कृति यह द्वैत, प्रकृति में, सचमुच द्वैत नहीं है । जब तक प्रकृति विभक्त पड़ी है श्वेत-श्याम खण्डों में विश्व तभी तक माया का मिथ्या प्रवाह लगता है किंतु,शुभाशुभ भावों से मन के तटस्थ होते ही,
न तो दीखता भेद, न कोई शंका ही रहती है । राग-विराग दुष्ट दोनों, दोनों निसर्ग-द्रोही हैं । एक चेतना को अजुष्ट संकोचन सिखलाता है; और दूसरा प्रिय, अभीष्ट सुख की अभिप्रेत दिशा में कहता है बल-सहित भावना को प्रसरित होने को । दोनों विषम शांति-समता के दोनों ही बाधक हैं; दोनों से निश्चिंत चेतना को अभंग बहने दो । करने दो सब कृत्य उसे निर्लिप्त सभी से होकर, लोभ, भीति, संघर्ष और यम, नियम, सयंमों से भी ।
हम इच्छुक अकलुष प्रमोद के, पर, वह प्रमुद निरामय विधि-निषेध-मय संघर्षों, यत्नों से साध्य नहीं है । आता है वह अनायास, जैसे फूटा करती हैं डाली से टहनियाँ और पत्तियाँ स्वत: टहनी से, या रहस्य-चिंतक के मन में स्वयं कौंध जाती है जैसे किरण अदृश्य लोक की, भेद अगम सत्ता का ।
यह अकाम आनन्द भाग संतुष्ट-शांत उस जन का, जिसके सम्मुख फलासक्तिमय कोई ध्येय नहीं है, जो अविरत तन्मय निसर्ग से, एकाकार प्रकृति से, बहता रहता मुदित, पूर्ण, निष्काम कर्म-धारा में,
संघर्षों में निरत, विरत, पर, उनके परिणामों से;
सदा मानते हुए, यहाँ जो कुछ है, मात्र क्रिया है; हम निसर्ग के स्वयं कर्म हैं, कर्म स्वभाव हमारा, कर्म स्वयं आनन्द, कर्म ही फल समस्त कर्मों का । जब हम कुछ भी नहीं खोजते निज से बाहर जाकर, तब हम कर्मी नहीं, कर्म के रूप स्वयं होते हैं करते हुए व्यक्त आंसू अथवा उल्लास प्रकृति का । यह अकाम आनन्द भाग उनका, जो नहीं सुखों को आमंत्रण भेजते, न जगकर पथ जोहा करते हैं; न तो बुद्धि जिनकी चिंताकुल यह सोचा करती है, कैसे, क्या कुछ करें कि हो सुख पर अधिकार हमारा; और न तो चेतना आकुलित इस भय से रहती है, जानें, कौन दुख आ जाए कब, किस वातायन से; विधि-निषेध से मुक्त, न तो पीड़ित सचेष्ट वर्जन से, न तो प्राण को बल समेत, बरबस उस ओर लगाए जिस दिशि से जीवन में सुख-धारा फूटा करती है । जब इन्द्रियाँ और मन ऐसी सहज, शांत मुद्रा में, वातायन खोले, चिंता से रहित पड़े होते हैं, तभी किरन निष्कलुष मोद की स्वयं उतर आती है रवि की किरणों के समान, अम्बर से, खुले भवन में । विधि-निषेध हैं जहाँ, वहाँ पर कर्म अकर्म नहीं है; विधि-निषेध कुछ नहीं, नियम हैं वे अर्जन-वर्जन के । और जहाँ अर्जन-वर्जन का गणित चला करता है, कह सकते हो सजग-प्रहरियों की उस बड़ी सभा में, एक जीव भी है, जिसके कर्मों का ध्येय नहीं है? फलासक्ति से मुक्त क्रिया में जो उस भाँति निरत है, जैसे बहता है समीर सर्वथा मुक्त ध्येयों से, अथवा जैसे निरुद्देश्य ये फूल खिला करते हैं? हो कोई तो कहो, उसे फल का यदि लोभ नहीं है, तो फिर चाबुक मार स्वयं को वह क्यों हाँक रहा है? समर प्रकृति से रोप, इन्द्रियों पर तलवार उठाये चुका रहा है किस सुख का वह मोल देह-दंडन से? और कौन सुख है जिसके लुट जाने की शंका से सारी रात नीन्द से लड़ वह आकुल जाग रहा है? और सुनोगे एक भेद? ये प्रहरी जिन घेरों पर रात-रात भर धनु का गुण ताने घूमा करते हैं, उन घेरों में रक्षणीय कोई भी सार नहीं है । कुछ भूखी रिक्तता चेतना की, कुछ फेन हवा के, कुछ थोड़ी यह तृषा कि ऐसी कोई युक्ति निकालें, जिससे मृत्यु-करों में भी पड़ने पर नहीं मरें हम; किंतु, अधिक यह भाव, वैर है प्र्कृति और ईश्वर में, अत: सिद्धि के लिये, प्रकृति से हमें दूर होना है । मूढ़ मनुज! यह भी न जानता, तू ही स्वयं प्रकृति है? फिर अपने से आप भागकर कहाँ त्राण पाएगा? सब है शून्य कहीं कोई निश्चित आकार नहीं है, क्षण-क्षण सब कुछ बदल रहा है परिवर्तन के क्रम में धूमयोनि ही नहीं, ठोस यह पर्वत भी छाया है, यह भी कभी शून्य अम्बर था और अचेत अभी भी, नए-नए आकारों में क्षण-क्षण यह समा रहा है; स्यात् कभी मिल ही जाए, क्या पता, अनंत गगन में । यह परिवर्तन ही विनाश है? तो फिर नश्वरता से भिन्न मुक्ति कुछ नहीं. किंतु, परिवर्तन नाश नहीं है । परिवर्तन-प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण-धारा है ।
मुक्त वही, जो सहज भावना से इसमें बहते हैं, विधि-निषेध से परे, छूटकर सभी कामनाओ से, किसी ध्येय के लिए नहीं केवल बहते रहने को; क्योंकि और कुछ भी करना सम्भव या योग्य नहीं है ।
जानें, क्यों तैराक चतुर तब भी प्रशांत धारा में चला-चलाकर हाथ-पाँव विक्षोभ व्यर्थ भरते हैं! कौन सिद्धि है जो मिलती संतरण-दक्ष साधक को, और नहीं मिलती अकाम जल में बहने वाले को? जिसे खिजता फिरता है तू,वह अरूप, अनिकेतन किसी व्योम पर कहीं देह धर बैठा नहीं मिलेगा । वह तो स्वयं रहा बह अपनी ही लीला-धारा में, कर्दम कहीं, कहीं पंकज बन, कहीं स्वच्छ जल बनकर । उसे देखना हो तो आंखों को पहले समझा दे, श्वेत-श्याम एक ही रंग की युगपत संज्ञाएँ हैं और उसे छूना हो तो कह दे अपने हाथों से, भेद उठा दें शूल-फूल का, कमल और कर्दम का । अर्थ खोजते हो जीवन का? लड़ी कार्य-कारण की बहुत दूर तक बिछी हुई है पीछे अन्धियाले में चलो जहाँ तक भी, अतीत-गह्वर में, चरण-चरण पर, मात्र प्रतीक्षा-निरत प्रश्न मग में मिलते जाएंगे । और, अंत में अनाख्येय जो आदि भित्ति आती है, परे झांकने को भी उसमें कहीं गवाक्ष नहीं है । वर्तमान की कुछ मत पूछो,एक बूंद वह जल है, अभी हाथ आया, तुरंत फिर अभी बिखर जायेगा । पढ़ा जाए क्या अर्थ काल के इस उड़ते अक्षर का? और भविष्यत के वन में ऐसा घनघोर तिमिर है, नहीं सूझता पंथ बुद्धि के दीपों की आभा में हार मान प्रज्ञा अपना सिर थाम बैठ जाती है । वृथा यत्न इस अतल शून्य का तलस्पर्श करने का वृथा यत्न पढ़ने का कोई भेद उत्स पर जाकर । कहीं न कोई द्वार न तो वातायन कहीं खुले हैं, हम हैं जहाँ, वहाँ जाने की कोई राह नहीं है । किंतु, अर्थ को छोड़ जभी शब्दॉ की ओर मुड़ोगे, अकस्मात, यह शून्य ठोस रूपों से भर जाएगा । देखोगे, सुनसान नहीं यह तो पूरी बस्ती है नक्षत्रों की, नील गगन की, शैलों, सरिताओं की, लता-पत्र् की, हरियाली की, ऊषा की लाली की । सभी पूर्ण, सब सुखासीन, सब के सब लीन क्रिया में, पूछे किससे? कौन, कहाँ से सृष्टि निकल आई है? अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं, हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएंगे? सच में, यह प्रत्यक्ष जगत कुछ उतना कठिन नहीं है, जितना हो जाता दुरूह मन के भीतर जाने पर । वैचारिक जितना विषण्ण रहता दुरूहताओं से, उतना खिन्न नहीं रहता है सहज मनुष्य प्रकृति का । द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में, द्वन्द्वों का आभास द्वैतमय मानस की रचना है । यह आभास नहीं टिकता, जब मनुज जान लेता है अप्रयास अनुभवन प्रकृति का, सहज रीति जीवन की; क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है । जो भी है अवसर निसर्ग के, ईश्वर के भी क्षण हैं धर्म-साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं चलती है । दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनों, प्रकृति और ईश्वर में भेद गुणों का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का
और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है । काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जंतु बना देता है और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर पहुंचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर । यह विरोध क्या है? कैसे दो फल एक ही क्रिया के एक अपर से, इस प्रकार, प्रतिकूल हुआ करते हैं? सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यों दानव बन जाता है, और कहीं क्यों जाकर मिल जाता रहस्य-चिंतन से? काम नहीं, इस वैपरीत्य का भी मन ही कारण है । मन जब हो आसक्त काम से लभ्य अनेक सुखों पर, चिंतन में भी उन्हीं सुखों की स्मृति ढोये फिरता है, विकल, व्यग्र, फिर-फिर, रस-मधु में अवगाहन करने को स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नों से, छल से, बल से भी, तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं तभी काम दुर्द्धर्ष, दानवी किल्विष बन जाता है । काम-कृत्य वे सभी दुष्ट हैं, जिनके सम्पादन में मन-आत्माएँ नहीं, मात्र दो वपुस् मिला करते हैं; या तन जहाँ विरुद्ध प्रकृति के विवश किया जाता है सुख पाने को, क्षुधा नहीं केवल मन की लिप्सा से; जहाँ नहीं मिलते नर-नारी उस सहजाकर्षण से जैसे दो वीचियाँ अनामंत्रित आ मिल जाती हैं, पर, सुवर्ण की लोलुपता में छिपे-छिपे तस्कर से एक दूसरे का आकुल सन्धान किया करते हैं तन का क्या अपराध? यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का; सीमित उसकी शक्ति और सीमित आवश्यकता है । यह तो मन ही है, निवास जिसमें समस्त विपदा का; वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी काल्पनिक क्षुधा से हाँक-हाँक तन को उस जल को मलिन बना देता है, बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस स्वच्छ सलिल में जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार खिलते हैं
तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन का काम गरल है । फलासक्ति दूषित कर देती ज्यों समस्त कर्मों को, उसी भाँति, वह काम-कृत्य भी दूषित और मलिन है, स्वत:स्फूर्त जो नहीं, ध्येय जिसका मानसिक क्षुधा का स्प्रयास है शमन; जहाँ पर सुख खोजा जाता है तन की प्रकृति नहीं, मन की माया से प्रेरित होकर जहाँ जागकर स्वयं नहीं बहती चेतना उरों की, मन की लिप्सा के अधीन उसको जगना पड़ता है; या जब रसावेश की स्थिति में, किसी भाँति, जाने को मन शरीर के यंत्रों को बरबस चालित करता है । किंतु, कभी क्या रसावेश में कोई जा सकता है, बिना सहज एकाग्र वृत्ति के मात्र हाँक कर तन को? माँस-पेशियाँ नहीं जानती आनन्दॉ के रस को, उसे जानती स्नायु, भोगता उसे हमारा मन है, इसीलिए निष्काम काम-सुख वह स्वर्गीय पुलक है, सपने में भी नहीं स्वल्प जिस पर अधिकार किसी का । नहीं साध्य वह तन के आस्फालन या संकोचन से; वह तो आता अनायास, जैसे बूँदें स्वाती की आ गिरती हैं, अकस्मात, सीपी के खुले हृदय में । लिया-दिया वह नहीं, मात्र वह ग्रहण किया जाता है । और पुत्र-कामना कहो तो यद्यपि वह सुखकर है, पर, निष्काम काम का, सचमुच वह भी ध्येय नहीं है । निरुद्देश्य, निष्काम काम-सुख की अचेत धारा में, संतानें अज्ञात लोक से आकर खिल जाती हैं वारि-वल्लरी में फूलों-सी, निराकार के गृह से स्वयं निकल पड़ने वाली जीवन की प्रतिमाओं-सी प्रकृति नित्य आनन्दमयी है, जब भी भूल स्वयं को हम निसर्ग के किसी रूप(नारी, नर या फूलों) से एकतान होकर खो जाते हैं समाधि-निस्तल में खुल जाता है कमल, धार मधु की बहने लगती है, दैहिक जग को छोड़ कहीं हम और पहुंच जाते हैं, मानो मायावरण एक क्षण मन से उतर गया हो । क्या प्रतीक यह नहीं, काम-सुख गर्हित, ग्राम्य नहीं है? वह भी ले जाता मनुष्य को ऊपर मुक्ति-दिशा में मन के माया-मोह-बन्ध को छुड़ा सहज पद्धति से पर, खोजें क्यों मुक्ति? प्रकृति के हम प्रसन्न अवयव हैं; जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे लीलामय की सहज, शांत, आनन्दमयी धारा में। पुरुरवा कुसुम और कामिनी बहुत सुन्दर दोनों होते हैं पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमों से, क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है । सुमन मूक सौन्दर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं । किंतु, कहीं यदि शब्द फूटने लगें सुमुख पुष्पों से, और लगें करने प्रसून ये गहन-गूढ़ चिंतन भी, सब की वही दशा होगी, जो मेरी अभी हुई है । यह प्रपात रसमयी बुद्धि का! यह हिलोर चिन्तन की! तुम्हें ज्ञात है, मैं बहते-बहते इसकी धारा में किन लोकों, किन गुह्य नभों में अभी घूम आया हूँ? आदि-अंत कुछ नहीं सूझता, सचमुच ही, जीवन का; ग्रंथि-जाल का किसी काल-गह्वर में छोर नहीं है । विधि-निषेध, सत्य ही स्यात्, जल पर की रेखाएं हैं कोई लेख नहीं उगता भीतर के अगम सलिल पर । और ज्वार जो भी उठता ऊपर अवचेत-अतल से, विधि-निषेध का उस पर कोई जोर नहीं चलता है । स्यात्, योग सायास उपेक्षा भर है इस स्वीकृति की, हम निसर्ग के बन्द कपाटॉ को न खोल सकते हैं; स्यात्, साधनाएं प्रयास हैं थकी हुई प्रज्ञा को अन्वेषण में, किसी भांति भी, निरत किये रहने का । सत्य, स्यात्, केवल आत्मार्पण, केवल शरणागति है उसके पद पर, जिसे प्रकृति तुम, मैं ईश्वर कहता हूँ । एक कर्म, अनुगमन मूक अविगत के संकेतों का, एक धर्म, अनुभवन निरंतर उस सुषमा, उस छवि का जो विकीर्ण सर्वत्र, केन्द्र बन तुम में झलक रही है ।
आह, रूप यह! उड़ूँ जहाँ भी, चारों ओर भुवन में यही रूप हँसता, प्रसन्न इंगित करता मिलता है सूर्य-चन्द्र में, नक्षत्रों-फूलों में, तृणों-द्रुमों में । और यही मुख बार-बार उग पुन: डूब जाता है मन के अमित अगाध सिन्धु में ज्वालामयी लहर-सा लगता है, मानो, निकलीं तुम बाहर नहीं जलधि से, जन्मभूमि की शीतलता में अब भी खेल रही हो । देखा तुम्हें बहुत, पर, अब भी तो यह ज्ञात नहीं है, प्रथम-प्रथम तुम खिलीं चीर टहनी किस कल्पलता की? लिया कहाँ आकार निकलकर निराकार के गृह से? उषा-सदृश प्रकटी थीं किन जलदॉ का पटल हटाकर? कहते हैं, मैं स्वयं विश्व में आया बिना पिता के: तो क्या तुम भी, उसी भांति, सचमुच उत्पन्न हुई थीं माता बिना, मात्र नारायण ऋषि की कामेच्छा से, तप:पूत नर के समस्त संचित तप की आभा-सी? या समुद्र जब अंतराग़्नि से आकुल, तप्त, विकल था, तुम प्रसून-सी स्वयं फूट निकलीं उस व्याकुलता से, ज्यों अम्बुधि की अंतराग्नि से अन्य रत्न बनते है? और सुरासुर के अभंग, युग-व्यापी आह्वानों से दयाद्रवित हो, एक प्रात, निकलीं अप्रतिम शिखा-सी अतल, वितल, पाताल, तलातल से ऊपर भूतल में, जैसे उषा निकल सागर-तल से ऊपर आती है? डूब गया होगा सारा आकाश कुतुक-विस्मय में, चकित खडे होंगे सब जब यह प्रतिमा अरुण प्रभा की आकर ठहर गई होगी कम्पित, सुनील लहरों पर, धूम-तरंगों पर चढ़कर नाचती हुई ज्वाला-सी । कैसा दीप रहा होगा पावकमय रूप तुम्हारा नील तरंगो में, झलमल फेनों के शुभ्र वसन में! और चतुर्दिक तुम्हें घेर उद्ग्रीव भुजंगिनियों-सी देख रही होंगी काली लहरें किस उत्सुकता से? रुदन किया होगा कितना अम्बुधि ने तुम्हें गँवाकर! मणि-मुक्ता-विद्रुम-प्रवाल से विरचे हुए भवन की आभा उतर गई होगी, तुम से वियुक्त होते ही शून्य हो गया होगा सारा हृदय महासागर का । और प्राप्त कर रक्त-मांस-मय इस अप्रतिम कुसुम को कितना हर्ष-निनाद हुआ होगा देवों के जग में! तुम अनंत सौन्दर्य, एक तन में बस जाने पर भी,
निखिल सृष्टि में फैल चतुर्दिक कैसे व्याप रही हो? तुम अनंत कल्पना, अंक चाहे जिस भांति भरूँ मैं, एक किरण तब भी बाहों से बाहर रह जाती है । ये लोचन, जो किसी अन्य जग के नभ के दर्पण हैं; ये कपोल, जिसकी द्युति में तैरती किरण ऊषा की; ये किसलय से अधर , नाचता जिन पर स्वयं मदन है, रोती है कामना जहाँ पीड़ा पुकार करती है; ये श्रुतियाँ जिनमें उडुओं के अश्रु-बिन्दु झरते हैं; ये बाँहें, विधु के प्रकाश की दो नवीन किरणों सी; और वक्ष के कुसुम-पुंज, सुरभित विश्राम-भवन ये, जहाँ मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रांति दूर करते हैं । यह मुसकान, विभा जैसे दूरागत किसी किरण की; ध्यान जगा देती मन में यह किसी असीम जगत् का जिसे चाहता तो हूँ, पर, मैने न कभी देखा है । यह रहस्यमय रूप कहीं त्रिभुवन में और नहीं है, सुर-किन्नर-गन्धर्व-लोक में अथवा मर्त्य-भुवन में । तुम कैसे, तब कहो, भला, उस भांति जनम सकती हो जैसे जग में अन्य, अपर सौन्दर्य जन्म लेते हैं? कहो, सत्य ही, तुम समुद्र के भीतर से निकली थीं? या कि शून्य से प्रकट हो गई सहसा चीर गगन को? अथवा जब अरूप सुषमा को रूपायित करने को ऋषि सौन्दर्य-समाधि बान्ध, तन्मय छवि के चिंतन में, बैठे थे निश्चेत, तभी नारी बन निकल पड़ी तुम नारायण की महाकल्पना से, एकायन मन से? उर्वशी मैं मानवी नहीं, देवी हूँ; देवों के आनन पर सदा एक झिलमिल रहस्य-आवरण पड़ा होता है । उसे हटाओ मत, प्रकाश के पूरा खुल जाने से, जीवन में जो भी कवित्व है, शेष नहीं रहता है । स्पष्ट शब्द मत चुनो, चुनो उनको जो धुन्धियाले हैं; ये धुँधले ही शब्द ऋचाओं में प्रवेश पाने पर एक साथ जोड़ते अनिश्चित को निश्चित आशय से । और जहाँ भी मिलन देखते हो प्रकाश-छाया का, वही निरापद बिन्दु मनुज-मन का आश्रय शीतल है । सघन कुंज, गोधुली, चाँदनी, ये यदि नहीं रहें तो दिन की खुली धूप में कब तक जीवन चल सकता है? द्वाभा का वरदान, सभी कुछ अर्धस्फुट, झिलमिल है, स्वप्न स्वप्न से, हृदय हृदय से मिलकर सुख पाते हैं यदि प्रकाश हो जाए और जो कुछ भी छिपा जहाँ है, सब-के-सब हो जाएँ सामने खड़े नग्न रूपों में, कौन सहेगा यह भीषण आघात भेद विघटन का? इसीलिए कहती हूँ, अब तक जितना जान सके हो, उतना ही है अलम; और आगे इससे जाने पर, स्यात्, कुतुहल-शमन छोड़ कुछ हाथ नहीं आएगा । और करूँगी क्या कहकर मैं शमित कुतुहल को भी? मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो; मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की ।
कब था ऐसा समय कि जब मेरा अस्तित्व नहीं था?
कब आएगा वह भविष्य कि जिस दिन मैं नहीं रहूँगी?
कौन पुरुष जिसकी समाधि में मेरी झलक नहीं है?
कौन त्रिया, मैं नहीं राजती हूँ जिसके यौवन में?
कौन लोक, कौधती नहीं मेरी ह्रादिनी जहाँ पर?
कौन मेघ, जिसको न सेज मैं अपनी बना चुकी हूँ?
कहूँ कौन सी बात और रहने दूँ कथा कहाँ की?
मेरा तो इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है,
उसी भांति निस्सीम, असीमित जैसे स्वयं प्रकृति है ।
पुरुरवा
सत्य मानकर कब समझा भिन्न तुम्हें सपने से?
नारी कहकर भी कब मैने कहा, मानुषी हो तुम?
अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आंखों से
रही झांकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,
बांहों में जिसको समेटकर उर से लगा रहा हूँ,
रक्त-मांस की मूर्त्ति नहीं,वह सपना है, छाया है ।
छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य-वसन में
देह ग्रहण करने पर भी तुम रही अदेह विभा-सी ।
द्वाभा कहाँ? जहाँ भी ये युग चरण मंजु पड़ते हैं,
तुम्हे घेरकर खुली मुक्त आभा-सी छा जाती है;
और देखता हूँ मैं, जो अन्यत्र नहीं दिखता है ।
तब भी हो गो धूलि कहीं तो उसका पटल हटाकर
आज चाहता हूँ समग्र दर्शन मैं उस सपने का,
शेष आयु के लिए जिसे निज दीपक बना चुका हूँ
कौन सत्य ऐसा कराल है, जिसके अनावरण से
अग्नि प्रकट होगी, मेरे ये लोचन जल जाएंगे,
याकि अशनि-आघात घोर, मैं जिसको सह न सकूँगा?
कहो मुक्त सब कुछ, समक्ष यह प्रतिमा अगर खड़ी है,
मुझे भीति कुछ नहीं, प्रलय के भी वज्राघातों से
सह लूँगा अनिमेष देख्ते हुए तुम्हारे मुख को।
उर्वशी
पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ?
भ्रांति, यह देह-भाव ।
मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;
अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में
मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल ।
मैं नहीं सिन्धु की सुता;
तलातल-अतल-वितल-पाताल छोड़,
नीले समुद्र को फोड़ शुभ्र, झलमल फेनांकुश में प्रदीप्त
नाचती उर्मियों के सिर पर
मैं नहीं महातल से निकली ।
मैं नहीं गगन की लता
तारकॉ में पुलकित फूलती हुई,
मैं नहीं व्योमपुर की बाला,
विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,
पूर्णिमा-सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,
मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी ।
मैं नाम-गोत्र से रहित पुष्प,
अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द-शिखा
इतिवृत्तहीन,
सौन्दर्य चेतना की तरंग;
सुर-नर-किन्नर-गन्धर्व नहीं,
प्रिय मैं केवल अप्सरा
विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत ।
कामना-तरंगों से अधीर
जब विश्वपुरुष का हृदय-सिन्धु
आलोड़ित, क्षुभित, मथित होकर,
अपनी समस्त बड़वाग्नि
कण्ठ में भरकर मुझे बुलाता है,
तब मैं अपूर्वयौवना
पुरुष के निभृत प्राणतल से उठकर
प्रसरित करती निर्वसन, शुभ्र, हेमाभ कांति
कल्पना लोक से उतर भूमि पर आती हूँ,
विजयिनी विश्वनर को अपने उत्तुंग वक्ष
पर सुला अमित कल्पों के अश्रु सुखाती हूँ ।
जन-जन के मन की मधुर वह्नि, प्रत्येक हृदय की उजियाली,
नारी की मैं कल्पना चरम, नर के मन में बसने वाली ।
विषधर के फण पर अमृतवर्त्ति ;
उद्धत, अदम्य, बर्बर बल पर
रूपांकुश, क्षीण मृणाल-तार ।
मेरे सम्मुख नत हो रहते गजराज मत्त;
केसरी, शरभ, शार्दूल भूल निज हिंस्र भाव
गृह-मृग-समान निर्विष, अहिंस्र बनकर जीते ।
मेरी भू-स्मिति को देख चकित, विस्मित, विभोर
शूरमा निमिष खोले अवाक रह जाते हैं;
श्लथ हो जाता स्वयमेव शिंजिनी का कसाव,
संस्रस्त करों से धनुष-बाण गिर जाते हैं ।
कामना-वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध,
मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार;
मैं सदा घूमती फिरती हूँ
पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन
नीहार-आवरण में अम्बर के आर-पार;
उड़ते मेघों को दौड़ बाहुओं में भरती,
स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती ।
विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकांत द्वीप,
यह मेरा उर ।
देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ ।
मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध,
बज रहा अर्चना में मेरी, मेरा नुपूर ।
मैं कला-चेतना का मधुमय, प्रच्छन्न स्त्रोत,
रेखाओं में अंकित कर अंगों के उभार
भंगिमा, तरंगित वर्तुलता, वीचियाँ, लहर,
तन की प्रकांति अंगों में लिये उतरती हूँ ।
पाषाणों के अनगढ़ अंगों को काट-छाँट
मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,
मदिरलोचना, कामलुलिता नारी
प्रस्तावरण कर भंग,
तोड़ तम को उन्मत्त उभरती हूँ ।
भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है ।
प्रिय मुझे प्रखर कामना-कलित, संतप्त, व्यग्र, चंचल चुम्बन,
प्रिय मुझे रसोदधि में निमग्न उच्छल, हिल्लोल-निरत जीवन ।
तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ,
मैं नैश प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ ।
मादन सुगन्ध पवमान-दलित सन्ध्या-तन से उठनेवाली,
नभ से अलिंगित कुमुद्वती चन्द्रिका-यामिनी मतवाली,
कबरी के फूलों का सुवास, आकुंचित अधरों का कम्पन,
परिरम्भ-वेदना से विभोर, कंटकित अंग, मधुमत्त नयन;
दो प्राणों से उठने वाली वे झंकृतियाँ गोपन, मधुमय,
जो अगुरु-धूम-सी हो जाती ऊपर उठ एक अपर में लय ।
दो दीपों की सम्मिलित ज्योति, वह एक शिखा जब जगती है,
मन के अगाध रत्नाकर में यह देह डूबने लगती है ।
दो हृदयों का वह मूक मिलन, तन शिथिल, स्रस्त अतिशय सुख से,
अलसित आंखें देखतीं न कोई शब्द निकलता है मुख से ।
कितनी पावन वह रस-समाधि! जब सेज स्वर्ग बन जाती है,
गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है ।
देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शांति की छाया में,
आरोहण के सोपान लगे हैं त्वचा, रुधिर में, काया में ।
परिरम्भ पाश में बँधे हुए उस अम्बर तक उठ जाओ रे!
देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!
चिंतन की लहरों के समान सौन्दर्य-लहर में भी है बल,
सातों अम्बर तक उड़ता है रूपसी नारी का स्वर्णांचल ।
जिस मधुर भूमिका में जन को दर्शन-तरंग पहुंचाती है,
उस दिव्य लोक तक हमें प्रेम की नाव सहज ले जाती है ।
ओ शून्य पवन में मुझे देख चुम्बन अर्पित करने वालो !
सम्पूर्ण निशा मेरी छवि का उन्निद्र ध्यान धरने वालो!
मैं देश-काल से परे चिरंतन नारी हूँ ।
मै आत्मतंत्र यौवन की नित्य नवीन प्रभा,
रूपसी अमर मैं चिर-युवती सुकुमारी हूँ ।
तुम त्रिभुवन में अथवा त्रिकाल में जहाँ कहीं भी हो,
अंतर में धैर्य धरो ।
सरिता, समुद्र, गिरि, वन मेरे व्यवधान नहीं ।
मैं भूत, भविष्यत, वर्तमान की कृत्रिम बाधा से विमुक्त;
मैं विश्वप्रिया ।
तुम पंथ जोहते रहो,
अचानक किसी रात मैं आऊँगी ।
अधरों में अपने अधरों की मदिरा उड़ेल,
मैं तुम्हें वक्ष से लगा
युगों की संचित तपन मिटाऊँगी ।
पुरुरवा
आवेशित उद्गार यही मर्मों का उद्घाटन है?
हुआ स्रस्त कितना रहस्यमय अवगुंठन माया का?
पर, रहस्य हट जाने पर भी रहीं रहस्यमयी तुम;
मायावरण दूर कर देने पर भी तुम माया हो ।
अब भी तो तुम दीप रहीं निष्कलुष आदि ऊषा-सी,
शुभ्र वह्नि-सी जो अरणी से अभी-अभी फूटी हो;
युग-युग की प्रेयसी हेम-सी जिसकी शुभ्र त्वचा पर
कहीं काल के स्पर्श याकि ऊँगली का दाग नहीं है ।
एक कोमल स्पर्श कोमल गीतों से भरी हुई ऊँगली का,
तंत्री से नव निनद, नई झंकार उमड़ पड़ती है;
धरती हो ये अरुण पुष्प-से पद जिस किसी दिशा में,
जग उठते हैं नये पुंस कम्पित नव ईहाओं से ।
तुम त्रिकाल-सुन्दरी, अमर आभा अखंड त्रिभुवन की,
सभी युगों से, सभी दिशाओं से चल कर आई हो;
इसीलिए, तुम विविध जन्म-कुंजों में पुलक जगाकर
सभी दिशाओं, सभी युगों को पुन: लौट जाओगी ।
एक पुष्प में सभी पुष्प, सब किरणें एक किरण में
तुम सन्हित, एकत्र एक नारी में सब नारी हो ।
प्रति युग की परिचिता, रसाकर्षण प्रति मंवंतर का,
विश्व-प्रिया, सत्य ही, महारानी सब के सपनों की ।
पर, दिगंत-व्यापिनी चन्द्रिका मुक्त विहरनेवाली
व्योम छोड़कर सिमट गई जो मेरे भुज पाशों में;
रस की कादम्बिनी, विचरती हुई अनंत गगन में,
अकस्मात् आकर प्रसन्न जो मुझ पर बरस गई है,
सो केवल सन्योग मात्र है? या इस गूढ़ मिलन के
पीछे जन्म-जन्म की कोई लीला छिपी हुई है?
जहाँ-जहाँ तुम खिलीं स्यात् मैं ही मलयानिल बनकर
तुम्हें घेरता आया हूँ अपनी आकुल बाँहों में
जिसके भी सामने किया तुम ने कुंचित अधरों को,
लगता है, मैं ही सदैव वह चुम्बन-रसिक पुरुष था ।
मेरी ही थी तपन जिसे फूलों के कुंज-भवन में
जन्म-जन्म में तुम आलिंगन से हरती आई हो ।
कल-कल्प में सुला प्रणय-उद्वेलित वक्षोजों पर
अश्रु पोंछती आई हो मेरे ही आर्त्त दृगों का ।
जहाँ-जहाँ तुम रही, निष्पलक नयनों की आभा से
रहा सींचता मैं, आगे तुम जहाँ-जहाँ जाओगी,
साथ चलूँगा मैं सुगन्ध से खिंचे हुए मधुकर-सा
या कि राहु जैसे विधु के पीछे-पीछे चलता है ।
उर्वशी
चन्द्रमा चला, रजनी बीती हो गया प्रात;
पर्वत के नीचे से प्रकाश के आसन पर
आ रहा सूर्य फेंकते बाण अपने लोहित,
बिंध गया ज्योति से, वह देखो, अरुणाभ शिखर ।
हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी-पुजारिन को देखो,
पति को फूलों का नया हार पहनाती है,
कुंजों में जनमा है कल कोई वृक्ष कहीं,
वन की प्रसन्न विहगावलि सोहर गाती है ।
कट गया वर्ष ऐसे जैसे दो निमिष गए
प्रिय! छोड़ गन्धमादन को अब जाना होगा,
इस भूमि-स्वर्ग के हरे-भरे, शीतल वन में
जानें, कब राजपुरी से फिर आना होगा!
कितना अपार सुख था, बैठे चट्टानों पर
हम साथ-साथ झरनों में पाँव भिगोते थे,
तरु-तले परस्पर बाँहों को उपधान बना
हम किस प्रकार निश्चिंत छाँह में सोते थे!
जाने से पहले चलो, आज जी खोल मिलें
निर्झरी, लता, फूलों की डाली-डाली से,
पी लें जी भर पर्वत पर का नीरव प्रकाश,
लें सींच हृदय झूमती हुई हरियाली से ।
तृतीय अंक समाप्त ****************************
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