6.8.19

कलम, आज उनकी जय बोल :रामधारी सिंह "दिनकर"




जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
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आह! वेदना मिली विदाई:जयशंकर प्रसाद






आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई
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अश्रु यह पानी नहीं है-महादेवी वर्मा




अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा!
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप, धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है?

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं!
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
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सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल




सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा

ग़ुर्बत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया आसमाँ का
वह संतरी हमारा, वह पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ
गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वह दिन हैं याद तुझको?
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़्हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-व-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

इक़्बाल! कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा!
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30.3.19

कुछ बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है-- राहुल प्रसाद (महुलिया पलामू)

कुछ बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है,
बिछड़ना मजबूरी था, मिलना भी ज़रूरी है।


आज सुन भी जाओ, ये फलसफा जो मजबूरी है,
दिल तोड़ना फिर सिलना, ये कैसी फितूरी है।


दिल के बंजर पड़े दीवार में, इश्क की बूंदें पड़ना ज़रूरी है,
धड़कन रुक न जाए कहीं, ये सांसों को समझना भी ज़रूरी है।


नहीं संभालता ये इश्क़ अब, टूटकर बाहों में बिखरना ज़रूरी है,
तुम समेट लो बाहों में हमें, इश्क की यही दस्तूरी है।

जो बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है,
हां दूर रहना मजबूरी है, दिल लगना भी ज़रूरी है।


मिलना है तुझसे खुद को खोने से पहले, आज गले लगना ज़रूरी है,
यादों में ही टूटकर जीना है अब, ये जो जीवन अधूरी है।


नहीं रुकता सिलसिला दर्द का, अश्क को गिरना भी ज़रूरी है,
फिर से अश्क को दिल के दरिया में संभालना, ये कैसी मजबूरी है।


तुम पास आ जाओ, ये धड़कन सुनना भी ज़रूरी है,
मन की जो प्रीत अधूरी है, प्रीत की रीत करना जो पूरी है।

तेरे लबों से खुशबू चुराके, तेरी दिल की धड़कनों को बढ़ाना भी ज़रूरी है,
आओ प्यास बुझा जाए, ये जो वर्षों की दूरी है, हां जो मिलन अधूरी है।


कुछ बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है,
हां दूर रहना मजबूरी है, तो दिल लगना भी ज़रूरी है।
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22.2.19

पथहारा वक्तव्य - अशोक वाजपेयी




हमें पता था
कि खाली हाथ और टूटे हथियार लिए
शिविर में लौटना होगा:
यह भी कि हम जैसे लोग
कभी जीत नहीं पाए-
वे या तो हारते हैं
या खेत रहते हैं-
हम सिर्फ बचे हुए हैं
इस शर्म से कि हमने चुप्पी नहीं साधी,
कि हमने मोर्चा सम्हालने से पहले या हारने के बाद
न तो समर्पण किया, न समझौता:
हम लड़े, हारे और बचे भर हैं!
यह कोई वीरगाथा नहीं है:
इतिहास विजय की कथाएं कहता है,
उसमें प्रतिरोध और पराजय के लिए जगह नहीं होती।
लोग हमारी मूढ़ता पर हंसते हैं-
हमेशा की तरह
वे विजेताओं के जुलूस में
उत्साह से शामिल हैं-
हम भी इस भ्रम से मुक्त होने की कोशिश में हैं
कि हमने अलग से कोई साहस दिखाया:
हम तो कविता और अंत:करण के पाले में रहे
जो आदिकाल से युद्धरत हैं, रहेंगे!
हम पथहारे हैं
पर पथ हमसे कहीं आगे जाता है।
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कितने दिन और बचे हैं? - अशोक वाजपेयी




कोई नहीं जानता कि
कितने दिन और बचे हैं?

चोंच में दाने दबाए
अपने घोंसले की ओर
उड़ती चिड़िया कब सुस्ताने बैठ जाएगी
बिजली के एक तार पर और
आल्हाद से झूलकर छू लेगी दूसरा तार भी।

वनखंडी में
आहिस्ता-आहिस्ता एक पगडंडी पार करता
कीड़ा आ जाएगा
सूखी लकड़ियाँ बीनती
बुढ़िया की फटी चप्पल के तले।

रेल के इंजन से निकलती
चिनगारी तेज़ हवा में उड़कर
चिपक जाएगी
एक डाल पर बैठी प्रसन्न तितली से।

कोई नहीं जानता कि
किनता समय और बचा है
प्रतीक्षा करने का
कि प्रेम आएगा एक पैकेट में डाक से,
कि थोड़ी देर और बाक़ी है
कटहल का अचार खाने लायक होने में,
कि पृथ्वी को फिर एक बार
हरा होने और आकाश को फिर दयालु और
उसे फिर विगलित होने में
अभी थोड़ा-सा समय और है।

दस्तक होगी दरवाज़े पर
और वह कहेगी कि
चलो, तुम्हारा समय हो चुका।
कोई नहीं जानता कि
कितना समय और बचा है,
मेरा या तुम्हारा।

वह आएगी –
जैसे आती है धूप
जैसे बरसता है मेघ
जैसे खिलखिलाती है
एक नन्हीं बच्ची
जैसे अंधेरे में भयातुर होता है
ख़ाली घर।
वह आएगी ज़रूर,
पर उसके आने के लिए
कितने दिन और बचे है
कोई नहीं जानता।

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